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विमर्श

कॉरपोरेट के द्वारा और कॉरपोरेट के लिए है नया कृषि अध्यादेश

Janjwar Desk
4 Dec 2020 2:21 PM GMT
कॉरपोरेट के द्वारा और कॉरपोरेट के लिए है नया कृषि अध्यादेश
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नए किसान कानून के खिलाफ करीब 10 दिनों से देश में आंदोलन चल रहा है। सरकार व किसान नेताओं की कई दौर की वार्ता के बावजूद अबतक सुलह के संकेत नहीं हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि किसान आखिर क्यों तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं। पढिए यह विशेष आलेख...

विद्यार्थी विकास और विजय पाॅल का विश्लेषण

जवाहर लाल नेहरू के इस कथन से कृषि के महत्व का अंदाज लगाया जा सकता है कि सब कुछ प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं। ज्यादातर मामलों में, किसान संस्थागत तौर-तरीकों से अंजान हैं। वे कमजोर हैं, संसाधन विहीन हैं, उनके घर में प्रोफेशनल्स की कमी है और उन्हें स्थानीय मध्यस्थों पर भरोसा करना होता है।

इस अवधारणा का न तो कोई ऐतिहासिक और न ही कोई व्यावहारिक आधार है। यह एक तथ्य है कि समय के साथ कृषि उत्पादों की वास्तविक कीमतें कम हुई हैं। किसानों को एक गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है। छोटे ऋणदाताओं के परिणामस्वरूप वे अक्सर कर्ज के जाल में फंस जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारत में पिछले दो दशकों में करीब तीन लाख से अधिक आत्महत्याएं हुई हैं।

एपीएमसी अधिनियम (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एक्ट) ने कृषि उत्पाद के विपणन के लगभग सभी पहलुओं में आमूल-चूल परिवर्तन और महत्वपूर्ण सुधार लाया है। वहीं, इस दौरान समय गुजरने के साथ बहुत-सी अनियमितताएं उत्पन्न हुईं जिनमें सुधारों की आवश्यकता है।

एपीएमसी की अनुपलब्धता के स्थिति में बिहार के किसानों ने संकटग्रस्त बिक्री का सहारा लिया जबकि पंजाब में किसान एपीएमसी के साथ एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक्री करने में सक्षम थे। पूरे देश ने यह देखा कि कोविड19 संकट के बीच वे किसान ही थे जिन्होंने खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की और उसे मजबूती प्रदान की। जरा सोचिए, अगर भारत में खेती नष्ट हो गई तो महामारी और 2008 की मंदी के बीच देश को कौन बचा सकता था?

केंद्रीय बजट 2018-19 ने उत्पादन की लागत (C2+50 प्रतिशत% पर न्यूनतम 50 प्रतिशत मुनाफा) (किसानों पर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग की सिफारिश) और एक ही साथ छोटे एवं सीमांत किसानों की फसल की सीधी बिक्री के लिए 22 हजार हाट की व्यवस्था की गई है।

इन हाटों को एपीएमसी अधिनियम से छूट दी जाएगी, जबकि एपीएमसी अधिनियम की धारा 26(1) किसानों की एमएसपी सुनिश्चित करती है। ऐसे में ग्रामीण हाट के आगे बढना अब भी सवालों के घेरे में है।

अमेरिकी कृषि फार्म ब्यूरो के मुख्य अर्थशास्त्री जाॅन न्यूटन के अनुसार, 1960 के बाद से अमेरिका में फसल की कीमतों में लगातार गिरावट आयी है। अमेरिका में 85 प्रतिशत किसान ऋणग्रस्त हैं, आत्महत्याएं बढ रही हैं और अमेरिका व अन्य विकसित देशों में किसान खेती छोड़ रहे हैं। किसानों का नियंत्रण व नियमन बाजार द्वारा किया जा रहा है।

कोविड19 संकट के बीच तीन कृषि अध्यादेश कृषि ढांचे और आम आदमी के हितों के विरुद्ध लाए गए। इन अध्यादेशों की संरचना ऐसी थी जिसे कॉर्पोरेट के लिए और कॉर्पोरेट के द्वारा कहा जा सकता है।

किसान सशक्तीकरण और संरक्षण अध्यादेश का सेक्शन - 2 में व्यक्ति कंपनी को दर्शाता है और कृषि उत्पाद प्रसंस्कृत खाद्य को दर्शाता है। इस विचार को पहले ही 2014-15 के वक्त से कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट के निर्माण से खारिज किया जाता रहा है जब नीति आयोग के लैंड पाॅलिसी सेल के चेयरमैन प्रोफेसर टी हक पटना आए थे और इस पर चर्चा की थी।

प्रोफेसर टी हक ने पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज की अपनी यात्रा के दौरान अनुबंध खेती के माॅडल पर चर्चा की थी। संस्थान ने चर्चा के दौरान अपनी चिंता रखी। अब यह स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार अन्य सार्वजनिक संस्थाओं के साथ अनुबंध कृषि के माध्यम से कृषि भूमि को कॉर्पोरेट को सौंपना चाहती है।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि बिहार से प्रवासन अधिक है, क्योंकि 2006 से यहां एपीएमसी अधिनियम को लागू नहीं किया गया है, जो किसानों के लिए एमएसपी सुनिश्चित करता है।

इसके कारण किसानों को संकट का सामना करना पड़ रहा है। बिहार से बिचैलिए कम दामों पर गेहूं, चावल, मक्का, दाल और तिलहन खरीदते हैं और पंजाब में उसे ऊंचे दामों पर बेचते हैं। बिहार के नालंदा जिले में किसानों ने इस साल 900 से 1100 रुपये प्रति क्विंटल की दर से मक्का बेचा, जबकि इसका एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे मक्का उत्पादक किसानों को प्रति क्विंटल 750 से 950 रुपये का नुकसान हुआ।

इसी प्रकार मूंग की एमएसपी 7196 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि बिहार के किसानों ने इसे 6500 रुपये क्विंटल के भाव से बेचा। इसी तरह पिछले साल धान की एमएसपी 1815 रुपये प्रति क्विंटल थी, लेकिन किसानों को इसे 1600 रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। गेहूं की एमएसपी 1975 रुपये प्रति क्विंटल थी, जिसे किसानों ने 1800 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचा। आखिर इन सबके लिए जिम्मेवार कौन है?

पैक्स(PACS-प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसाइटी) की मौजूदा व्यवस्था किसानों के हित में नहीं है। बिहार के किसानों को शायद ही पता हो कि सीएसीपी (कृषि लागत और मूल्य आयोग) की सिफारिश के आधार पर भारत सरकार 23 कृषि उपज के लिए एमएसपी तय करती है। इसमें सात अनाज - धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ शामिल हैं, पांच दलहन - चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर हैं, सात तिलहन - सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, सूर्यमुखी, तिल, कुसुम और नीगर के बीज और चार व्यावसायिक फसलें - कपास, गन्ना, नारियल गरी, कच्चा जूट शामिल हैं।

यदि बिहार के किसानों को एमएसपी मिलती तो ऐसे किसान व मजदूर यहां से पंजाब व हरियाणा नहीं जाते। यदि एमएसपी तय की जाती तो बिहार के किसान मौजूदा स्थिति की तुलना में अधिक समृद्ध होते।

आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश 2020 कहता है कि इससे कृषि में प्रतिस्पर्धा बढेगी और किसानों के हितों की रक्षा करते हुए किसानों की आय में वृद्धि होगी। और साथ ही यह भी कहता है कि यदि कोई व्यक्ति पैन कार्ड धारक है तो वह जितना चाहे उतना अनाज जमा कर सकता है।

यह इस अध्यादेश का एक विरोधाभासी प्रावधान है, जिससे बिचैलिए व व्यापारी को अनाज को जमा करने की छूट मिलती है और किसानों के आय बढने की बात कही जाती है। जबकि इसके विपरीत होगा यह कि जब फसल कटेगी तो व्यापारी बाजार में अनाज की आपूर्ति बढा देंगे इससे उनकी कीमतें कम कम होंगी और वे सस्ते दामों में किसान की अनाज की खरीदारी करेंगे। और, फिर उसी अनाज को बाजार में उच्च कीमत पर बेचेंगे।

भारत में कॉर्पोरेट द्वारा खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ाया और पूरी तरह से नियंत्रित किया जाएगा। वहीं, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 की धारा 3 में किसानों और उपभोक्ताओं के पक्ष में कृषि उपज की जमाखोरी को नियंत्रित करने के स्पष्ट प्रावधान हैं।

दूसरा अध्यादेश अनुबंध, कॉर्पोरेट खेती को बढ़ावा देता है कि कोई किसान किसी भी कृषि उपज के संबंध में पांच साल या उससे अधिक के लिए एक लिखित कृषि समझौता कर सकता है और इस तरह के समझौते के तहत आपूर्ति के समय उसे गुणवत्ता, मानक, कीमत व अन्य चीजों का पालन करना होगा।

कई लेखों में पहले ही यह सलाह दी गई है कि अधिकतर मामलों में तय किए गए नियमों एवं शर्ताें से किसान भारी समस्याओं का सामना करते हैं। धारा 6 (3)(a) कहती है कि दो तिहाई कीमतों का भुगतान डिलीवरी के समय शेष राशि का भुगतान गुणवत्ता, ग्रेड और मानकों की जांच व प्रमाीणकरण के बाद किया जाएगा।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि इसका सर्टिफिकेट कौन देगा? सरकारी मशीनरी और पीपीपी मॉडल के मामले में क्या होगा? यह समझा जा सकता है कि किसान इसमें हारने वाले होंगे।

किसान और कॉर्पोरेट व व्यापारियों के बीच में विवाद को सुलझाने के लिए एक सुलह बोर्ड होगा। अगर विवाद नहीं सुलझता है तो (धारा 13 व 14 के तहत) कोई भी संबंधित पक्ष एसडीएम से संपर्क कर सकता है। अपीलीय प्राधिकारी जिला मजिस्ट्रेट होंगे, जिनके पास सिविल कोर्ट की शक्ति होगी।

किसी भी सिविल कोर्ट के पास इस समझौते के तहत किसी भी विवाद के संबंध में कोई मुकदमा चलाने या कार्यवाही करने का अधिकार धारा 19 के प्रावधानों के अनुसार नहीं होगा। अध्यादेश यह भी बताता है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के किसी प्रावधान का समझौते के संबंध में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्या किसान कॉर्पोरेट, व्यापारियों, नए ज़मींदारों से लड़ने की स्थिति में हैं। देश ने देखा है कि जमींदार और रैयत के बीच भूमि सुधार विवाद के मामले में क्या हुआ। संक्षेप में यह अध्यादेश कॉर्पोरेट व निगमों को फ्री हीट बाॅल देगा।

एनएसएसओ रिपोर्ट 571 के अनुसार, 2013 में देश के 85.41 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है। इनके पास कुल 53.28 प्रतिशत भूमि है। बिहार में छोटे किसानों की संख्या 92.89 प्रतिशत है, जिनके पास 76.34 प्रतिशत कृषि भूमि है, जबकि पंजाब में छोटे किसान 82.79 प्रतिशत हैं, जिनके पास केवल 32.82 प्रतिशत कृषि भूमि है।

इसका मतलब यह है कि पंजाब की अधिकांश कृषि भूमि 67.18 प्रतिशत, 18.11 प्रतिशत बड़े किसानों पांच हेक्टेयर से अधिक के मालिक के स्वामित्व में है, यानी दो तिहाई कृषि भूमि। अगर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बड़े किसान इस अध्यादेश से डरते हैं तो फिर छोटे किसानों का क्या होगा?

(डाॅ विद्यार्थी विकास एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। विजय पाॅल ग्राफिक इरा डिम्ड यूनिवर्सिटी, देहरादून में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। यह लेख पहले www.thecitizen.in में प्रकाशित।)

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