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विमर्श

हिंदी कविताओं से झांकता है आधी आबादी का सच | Some Hindi Poems on Women

Janjwar Desk
13 Feb 2022 12:25 PM IST
हिंदी कविताओं से झांकता है आधी आबादी का सच | Some Hindi Poems on Women
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हिंदी कविताओं से झांकता है आधी आबादी का सच | Some Hindi Poems on Women

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महेंद्र पाण्डेय की कविता

Poem on Women in Hindi: महिलायें किसी भी समाज को आगे तो बढाती हैं पर विडम्बना यह है कि वे समाज के तौर-तरीकों को परिभाषित नहीं करतीं| समाज के तौर-तरीके निर्धारित करने में पूरी दुनिया में पुरुषों का वर्चस्व है| जाहिर है, प्रत्यक्ष तौर पर दुनिया पुरुषों ने अपने अनुसार ढाल ली है, जिसमें महिलायें किसी तरह से अपना निर्वाह कर रहीं हैं| लगभग हरेक दिन महिलाओं के बदतर हालात से सम्बंधित समाचार प्रकाशित होते हैं| अब तो समाज भी इन समाचारों पर प्रतिक्रिया देना बंद कर चुका है| दिल्ली में निर्भया से बलात्कार और हत्या के मामले में विरोध में लोग सडकों पर पूरे देश में उतरे, पर इसके बाद सब कुछ शांत हो गया, जबकि आज भी बलात्कार, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा और पक्षपात बदस्तूर कायम है| महिलाओं का तो अपने शरीर पर भी अधिकार नहीं है| महाराष्ट्र के बीड जिले में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 4605 महिला श्रमिकों के शरीर से गर्भाशय निकाल दिया गया| अधिकतर महिलाएं गन्ने के खेतों में श्रमिक हैं| गर्भाशय निकालने के बाद महिलायें बच्चा नहीं पैदा कर सकतीं, इसलिए वे कम छुट्टियां लेती हैं और खेती के काम में बाधा नहीं आती|

वर्ष 1980 के दशक से महिला सशक्तीकरण और तापमान बृद्धि की खूब चर्चा की जा रही है, पर इस दोनों क्षेत्रों में दुनिया आगे नहीं बढ़ पायी| तापमान बृद्धि भी महिलाओं को अधिक प्रभावित कर रहा है| महिलायें शारीरिक और मानसिक तौर पर पुरुषों के तुलना में अधिक सशक्त होतीं हैं पर पुरुष प्रधान समाज इसे नहीं समझता| इसके बाद भी हरेक क्षेत्र में महिलायें धीरे-धीरे प्रवेश कर रहीं हैं और तमाम विरोधों के बाद भी अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं|

समाज में महिलाओं की स्थिति का आकलन करने वाली अनेक हिंदी कवितायें हैं| निर्मला पुतुल ने अपनी कविता, अखबार बेचती लड़की, में बताया है कि अखबार बेचती लड़की नहीं जानती कि ताजा समाचार क्या हैं – वह तो अपने को बेच रही है|

अख़बार बेचती लडकी/निर्मला पुतुल

अखबार बेचती लड़की

अखबार बेच रही है या खबर बेच रही है

यह मैं नहीं जानती

लेकिन मुझे पता है कि वह

रोटी के लिए अपनी आवाज बेच रही है

अखबार में फोटो छपा है

उस जैसी बदहाल कई लड़कियों का

जिससे कुछ-कुछ उसका चेहरा मिलता है

कभी-कभी वह तस्वीर देखती है

कभी अपने आप को देखती है

तो कभी अपने ग्राहकों को

वह नहीं जानती है कि आज के अखबार की

ताजा खबर क्या है

वह जानती है तो सिर्फ यह कि

कल एक पुलिस वाले ने

भद्दा मजाक करते हुए धमकाया था

वह इस बात से अंजान है कि वह अखबार नहीं

अपने आप को बेच रही है

क्योंकि अखबार में उस जैसी

कई लड़कियों की तस्वीर छपी है

जिससे उसका चेहरा मिलता है!

कात्यायनी ने अपनी कविता, अपराजिता, में बताया है कि समाज के तमाम प्रयासों के बाद भी महिलायें पीढी दर पीढी अपराजिता ही रही हैं|

अपराजिता/कात्यायनी

उन्होंने यही

सिर्फ़ यही दिया हमें

अपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए

दिया एक बिस्तर

जीवन घिसने के लिए, राख होते रहने के लिए

चौका-बरतन करने के लिए बस एक घर

समय-समय पर

नुमाइश के लिए गहने पहनाए

और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए

लाद दिया उस पर

तमाम अपवित्र इच्छाओं और दुष्कर्मों का भार।

पर नहीं कर सके पराजित वे

हमारी अजेय आत्मा को

उनके उत्तराधिकारी

और फिर उनके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भी

नहीं पराजित कर सके जिस तरह

मानवता की अमर-अजय आत्मा को

उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे

हमारी अजेय आत्मा को

आज भी वह संघर्षरत है

नित-निरंतर

उनके साथ

जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं

बिल्कुल हमारी ही तरह !

पूर्णिमा वर्मन ने अपनी कविता, आसमान में बिंदी, में महिलाओं को आसमान की बिंदी के अलंकार से नवाजा है और बताया है कि महिलायें अपनी राह खोज ही लेती हैं|

आसमान पर बिंदी/पूर्णिमा वर्मन

बिंदी जो कभी थी एक बूंद रक्त

होती गई बड़ी समय के साथ

इतनी बड़ी कि

औरत ने उसे उतारा

और टांग दिया आसमान पर

सूरज की तरह

अब वह सूरज उसकी राहों को

रोशन करता है

हंसुली बरसों तक

जो लटकी रही गले में

अचानक एक दिन इतनी भारी लगी

कि

औरत ने उसे उतारा

और टांग दिया आसमान पर

चांद की तरह

ओह मन ऐसा शीतल हुआ कि

जैसे चंद्रकिरण समा गई हो

भीतर तक

किसी को पता नहीं चला

समय के साथ

औरत हो गई कितनी ऊंची

कि अपनी ही बिंदी अपनी ही हंसुली

आसमान पर टांग

अपनी राह खोज ली उसने

खोज ली अपनी शांति

लोग नहीं जानते

जो दूसरों के लिये खटने वाले

अपना भी कर सकते हैं कायापलट!

सुशीला टाकभौरे ने अपनी कविता, पीड़ा की फसलें, में लिखा है - अब हम अपना सवेरा ढूँढ़ लेंगे, हमने आँखों में सूरज भरना सीख लिया है, चाँद को मुट्ठी में भरना सीख लिया है, समय को बन्धक भी बनाना सीख लेंगे|

पीड़ा की फसलें/सुशीला टाकभौरे

भूकम्प व्यथा का कारण हैं—

मैं व्यथित हूँ

मानव के प्रति मानव के

अमानवीय व्यवहार से

जो भूकम्प-सा

तहस-नहस कर देता है

मानवता के धरातल को

सदियाँ बीत गयीं

तुमने मनुष्य नहीं बनने दिया हमें—

पीड़ाएँ फसलों के साथ

उगती चली आयीं

जितना काटते रहे उन्हें

उससे कई गुना ज़्यादा उग आयीं

ओ शबरी के राम!

आँखें चुराकर

संवेदना दिखाना बन्द करो

तुम्हीं ने तो सीता को

धरती में समा जाने को मजबूर कर दिया था

तब से

विश्वास, भक्ति और प्रेम से पगी सीता

बार-बार

धरती में दफ़नाई जाती रही है

इसीलिए

पीड़ा की फसलें

उगती रही हैं—

पर आज

जानकी सब जान गयी है

वह धरती में नहीं

आकाश में जाना चाहती है

देवकी की कन्या की तरह

बिजली-सी चमक कर

सन्देश देना चाहती है—

तुम्हारी कंसीय मानसिकता के अन्त का

हे राम!

मानव-मानव के बीच

भेदभाव करना बन्द करो

बन्द करो शम्बूक का वध करना

क्योंकि

अब हम अपना सवेरा ढूँढ़ लेंगे

हमने आँखों में सूरज भरना सीख लिया है

चाँद को मुट्ठी में

भरना सीख लिया है

समय को बन्धक भी बनाना

सीख लेंगे!

पद्मा सचदेव ने अपनी कविता, काला मुंह, में लिखा है - जब भी दो रोटियों की आशा में कोई आगे बढ़ता है, उसका मुंह ज़रूर काला होता है|

काला मुंह/पद्मा सचदेव

मुझे तो किसी ने भी नहीं बताया कि

जीने की राह

गेहूं के खेत में से होकर जाती है

पर जैसे मां का दूध पीना मैंने

अपने आप सीख लिया

वैसे ही एक दिन

मैं घुटनियों चलती

गेहूं के खेत में जा पहुंची

गेहूं के साथ-साथ चने भी उगे हुए थे

मेरी मां ने

हरे-हरे चने गर्म राख में भूनकर

मुझे खाने को दिए

मैंने मुंह में चुभला कर

हंसते-हंसते फेंक दिए

अभी मेरे दांत भी नहीं आए थे

भुने हुए चनों से मेरा सारा मुंह

काला हो गया

काली लार टपकने लगी

मां ने तो मुझे यह नहीं बताया था

कि जब भी दो रोटियों की आशा में

कोई आगे बढ़ता है

उसका मुंह ज़रूर काला होता है!

एक औरत के यकीन नामक कविता में मनीषा कुलश्रेष्ठ बताती हैं कि किस तरह एक औरत के यकीन समाज बार-बार चकनाचूर करता है|

एक औरत के यकीन/मनीषा कुलश्रेष्ठ

एक औरत के

यकीनों का क्या है?

टूटते रहते हैं हर रोज

हाथ से गिरे प्यालों की तरह

बटोर कर फैंक देती है वह

उसे शायद नहीं पता

नहीं करती है वह सामना

बाहर की दुनिया का

एक मर्द के लिये

जो कि बहुत आसान नहीं

बहुत बचाता है

बचाना चाहता है

वह औरत के मासूम यकीनों को

लेकिन कई बार

मुमकिन नहीं होता

मर्दों की दुनिया में

मर्द होने की प्रक्रिया में

कई बार लौटा कर

लाया भी है वह

सही सलामत उन कांच से यकीनों को

लेकिन

घर की देहरी तक

लौटते उसके पांव

यूं थक कर लडख़डाते हैं कि

छन्न - से

टूट कर गिर ही पडते हैं

औरत के यकीन

इस लेख के लेखक ने अपनी कविता, महिलायें जब लिखती हैं, में बताया है कि महिलाओं का दृष्टिकोण अथाह सागर की तरह होता है और वे स्वयं में एक महाकाव्य हैं|

महिलायें जब लिखती हैं/महेंद्र पाण्डेय

हरेक स्त्री एक समग्र साहित्य है

हरेक स्त्री एक महाकाव्य है

स्त्री लिखती है

महाकाव्य के उस अंश को

जो उसमें समाया है|

स्त्री केवल पंछियों की उड़ान

पर नहीं लिखती

लिखती है, उस पेड़ पर भी

जिसपर घोंसला बना है

लिखती है उस कुल्हाड़ी पर भी

जो दरख्तों पर चलने वाली है

उस तिनके पर भी

जिससे घोंसला बना है

उस गेहूं के दाने पर भी

जो अपने चोंच में दबाकर लाई थी

बच्चों को खिलाने|

स्त्री केवल दूर तक फैले सरसों के

पीले फूलों पर नहीं लिखती

लिखती है, मधुमक्खियों पर भी

जो फूलों के चक्कर लगाती है

फिर शहद बनाती है

लिखती हैं फूलों के बाद

बनते सरसों के दानों पर भी

जिन्हे पीसना है कोल्हू में|

स्त्री केवल महिलाओं के श्रृंगार पर

नहीं लिखती

लिखतीं हैं उनकी त्रासदी पर

उनकी देह से छलकते पसीने पर

लिखती हैं उनके निश्छल मनोविज्ञान पर

उनकी संवेदनाओं पर

लिखती हैं उनके डर पर|

स्त्री केवल आसमान के इन्द्रधनुष

पर नहीं लिखती

लिखती है, इसके विस्तार पर

आसमान के बदलते रंगों पर

उड़ते गिद्धों पर

जो, घात लगते हैं निरीहों पर

लिखती है, आसमान की कालिख पर|

हरेक स्त्री एक समग्र साहित्य है

हरेक स्त्री एक महाकाव्य है

स्त्री लिखती है

महाकाव्य के उस अंश को

जो उसमें समाया है|

कहा जाता है कि महिलायें आधी दुनिया हैं, पर उसे दुनिया कभी मिलती नहीं है| यदि कभी उन्हें आधी दुनिया मिल जाए तो यकीन मानिए कुछ समय बाद ही उनकी दुनिया आधी से पूरी हो जायेगी, और पुरुषों की आधी दुनिया कराहती हुई विलुप्त हो चुकी होगी|

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