सुप्रीम कोर्ट का फैसला और भारत में जनता के विरोध प्रदर्शन का अनिश्चित भविष्य
संयुक्ता धर्माधिकारी
किसी सरकार द्वारा लिए गए निर्णय पर असहमति व्यक्त करने और अपनी आपत्ति व्यक्त करने के लिए एक उपयुक्त स्थान क्या है? क्या नागरिकों द्वारा व्यवस्था विरोधी विरोध को निर्वाचित सरकार के तयशुदा तरीके से आयोजित किया जा सकता है? ये सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले के बाद उठे कुछ सवाल हैं, जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि विरोध-प्रदर्शन असुविधा का कारण नहीं बन सकता है और सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चित काल तक के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता है।
शाहीन बाग के विरोध के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'सार्वजनिक तरीके और सार्वजनिक स्थानों पर इस तरह से कब्जा नहीं किया जा सकता है और वह भी अनिश्चित काल के लिए। लोकतंत्र और असंतोष साथ-साथ चलते हैं, लेकिन असंतोष व्यक्त करने वाले प्रदर्शनों को अकेले निर्दिष्ट स्थानों पर होना चाहिए'। शीर्ष अदालत ने इसके साथ कहा, 'हम आवेदकों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि जब भी वे विरोध करना चाहते हैं तो अनिश्चित संख्या में लोग इकट्ठा हो सकते हैं'। अदालत ने नागरिकता संशोधन अधिनियम और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस के खिलाफ धरने-प्रदर्शनों को आने-जाने वाले लोगों के लिए गंभीर असुविधा का कारण बताया।
भारत के विरोध प्रदर्शन का इतिहास शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों या जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में छात्रों के प्रदर्शन से बहुत पुराना है। इसमें औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ स्वतंत्रता संघर्ष और आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शामिल है। भाजपा के कुछ सबसे वरिष्ठ सदस्यों ने छात्र आंदोलन में लोकतंत्र का स्वाद चखा है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के शब्दों ने अब एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है, यदि राज्य को लोकतांत्रिक असंतोष प्रदर्शन पर अधिक नियंत्रण दिया जाता है तो फिर विरोध-प्रदर्शन का उद्देश्य क्या है?
असंतोष व्यक्त करना, ताकि सरकार नोटिस करे
वरिष्ठ पत्रकार अम्मू जोसेफ कहतीं हैं, अ'संतोष और विरोध एक वास्तविक कामकाजी लोकतंत्र की जान हैं। अम्मू कहतीं हैं, मुझे लगता है कि यह फैसला नागरिकों के शांतिपूर्ण असहमति व्यक्त करने के लोकतांत्रिक अधिकारों को दुर्भाग्य से एक घेरे में लाने की मांग करता है'।
शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन दिसंबर 2019 और इस साल मार्च के बीच दक्षिण पूर्वी दिल्ली में यमुना नदी के नजदीक जीडी बिड़ला मार्ग के पर हुआ। विरोध प्रदर्शन छोटे स्तर पर हुआ था, पुलिस ने विरोध स्थल की ओर जाने वाले कई रास्तों पर बैरिकेडिंग की थी न कि वहां जहां वास्तविक विरोध प्रदर्शन हुए थे। ये बैरिकेड्स दिल्ली के यात्रियों के लिए असुविधा का कारण थे। पुलिस ने उस संबंध में कहा था कि वे एक सुरक्षा उपाय थे।
स्वतंत्रता सेनानी और बेंगलुरु के रहने वाले एचएस डोरस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि इसने अनिश्चितकाल तक नागरिकों के विरोध करने अधिकार के बारे में अस्पष्टता का एक अध्याय खोल दिया। अगर यह जरूरीहै तो इसे सुनिश्चित करने के लिए उनकी आवाज भी सुनी जाए।
104 वर्ष के डोरेस्वामी ने हाल ही में बेंगलुरु में कृषि विधेयक के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। उनका तर्क है कि विरोध के कारण असाधारण परिस्थितियों में असुविधा हो सकती है, जो कभी-कभी सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए आवश्यक है।
डोरेस्वामी कहते हैं, 'तीन कठोर कृषि विधेयकों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पर गौर करें। लोग इसे समझ रहे थे क्योंकि प्रदर्शनकारी उनकी चिंताओं को आवाज़ दे रहे थे और उनके डर को सुना जा रहा था। विरोध लोगों के लाभ के लिए हैं और प्रदर्शनकारियों को पता है कि उनके लिए जनता की राय महत्वपूर्ण है। प्रदर्शनकारी यह नहीं चाहते कि जनता को असुविधा हो, पर सरकारें जब जनता की समस्या नहीं सुनती हैं तो असाधारण परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। तब लोगों को विरोध करने और जरूरत पड़ने पर सड़कों पर उतरने का अधिकार होता है। विरोध प्रदर्शन के दौरान जनता को कुछ असुविधा होती है। लेकिन इससे सरकारें तुरंत कार्रवाई करती हैं'।
वे 1935 में हुए एक विरोध प्रदर्शन को याद करते हैं, जिसमें वे और उनके साथी प्रदर्शनकारी विदेश आयातित समानों से भरे ट्रकों को रोकने के लिए सड़कों पर लेट गए थे और उन्हें बाजारों में प्रवेश करने से रोक दिया गया। यह एक सड़क रोको आंदोलन था और इसने काम किया। हमारी राय को इस तरह से विरोध करने के बारे में है कि सरकार इसे नोटिस करती है। डोरेस्वामी कहते हैं, हमारी राय इस तरह विरोध प्रदर्शन कर अपना नजरिया बताना है और सरकार इसे नोटिस करती है।
सरकार को जवाबदेह बनाए रखने के लिए विरोध आवश्यक
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि औपनिवेशिक शासन के खिलाफ असंतोष को एक स्वशासित लोकतंत्र के असंतोष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। इससे देश में विरोध के भविष्य के बारे में और सवाल उठता है। क्या विरोध का उद्देश्य अब अलग है क्योंकि भारत अब स्वतंत्र है?
एचएस डोरेस्वामी कहते हैं, 'चाहे ब्रिटिश शासन हो या आज की सरकारें, वे परिपूर्ण नहीं हैं। वे दमनकारी हो सकती हैं और इस कारण विरोध का अधिकार कायम है। लोग नेताओं को पत्र के बाद पत्र लिख सकते हैं। वे नेताओं से मिल सकते हैं और आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं। यदि शासन करने वाले लोग इस पर ध्यान नहीं देते हैं तो लोग विरोध करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग अपनी बात सुनाना चाहते हैं। यह एकमात्र तरीका है जिससे लोग सरकार के निर्णयों के प्रभाव के बारे में अपनी पीड़ा व्यक्त कर सकते हैं'। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि असंतोष अब अलग तरह का है क्योंकि हम स्वतंत्र हैं] यह भविष्य में समस्याएं पैदा कर सकता है।
1970 के दशक में आपातकाल के दौरान डोरस्वामी व्यापक विरोध प्रदर्शनों को याद करते हैं, जब इंदिरा गांधी के शासन के विरोध ने तत्कालीन प्रशासन द्वारा किए जा रहे अन्याय को आंदोलन के जरिए उजागर किया था। डोरेस्वामी याद करते हैं कि 1975 में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उनके प्रशासन के तरीके की आलोचना की गई थी।
वे कहते हैं, 'मैंने उनसे पत्र में पूछा, क्या आप भारत की प्रधानमंत्री हैं या आप हिटलर जैसी तानाशाह हैं'? मुझे गिरफ्तार किया गया था और इसके लिए जेल भी हुई थी। लेकिन मैंने अपना रुख नहीं तोड़ा। जब मुझे अदालत में पेश किया गया था तो न्यायाधीश ने कहा था कि मुझे प्रधानमंत्री की आलोचना करने का हर अधिकार है अगर मुझे यह लगता है कि प्राधिकारियों के कार्याें से मुझे पीड़ा हो रही है तो।
डोरेस्वामी बताते हैं कि 1975 में जब छात्र आंदोलन देश में व्यापक थे तब उन्होंने कर्नाटक में कई आंदोलन में भाग लिया। वे कहते हैं, 'हम विरोध मार्च निकालते थे। हमने इन विरोध प्रदर्शनों के लिए सड़कों का इस्तेमाल किया। हम जेल जाने से डरते नहीं थे क्योंकि हम नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़े थे और यह सही कारण था। यहां तक कि जब सड़कों को अवरुद्ध किया गया था तो लोग जानते थे कि यह एक अच्छे कारण के लिए है। इसके माध्यम से भारत में लोगों ने स्थायी रूप से यह साबित कर दिया है कि विरोध प्रदर्शन सरकारों को जिम्मेवार बनाने के लिए आवश्यक है'।
आपातकाल के दौरान विरोध एक दमनकारी शासन के खिलाफ था, वहीं, शाहीन बाग के मामले में महिलाएं कानून का विरोध कर रही थीं जिसे वे दमनकारी मानती थीं. वे कानून नागरिकता संशोधन अधिनियम और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन हैं। मुसलिम समुदाय के सदस्य न केवल भेदभावपूर्ण कानून का विरोध कर रहे थे, बल्कि इस बात का भी विरोध कर रहे थे कि इस तरह के कानून को पारित करने से पहले लोगों से परामर्श नहीं किया गया था। जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अत्यधिक बल का उपयोग करने वाले पुलिस के वीडियो यह दिखाने के लिए स्पष्ट थे कि राज्य असहमति को दबाने के लिए बल प्रयोग में पीछे नहीं है।
अनुच्छेद (19) (1) बी हथियारों के बिना शांति पूर्वक ढंग से प्रत्येक नागरिक को इकट्ठा होने के अधिकार की गारंटी देता है। यह उचित प्रतिबंधों के तहत है, जो भारत की संप्रभुता और अखंडता से संबंधित हैं। और, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, अधिकारियों को इस अधिकार को विनियमित करने की शक्ति दी जाती है। पूरे भारत में प्राधिकारियों को इस अधिकार को रेगुलेट यानी नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया है।
2012 के दिल्ली गैंगरेप पर विरोध प्रदर्शन और सामूहिक गुस्से की वजह से कानून में बदलाव को कोई नहीं भूल सकता। भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में महत्वपूर्ण धाराएं जोड़ी गईं। सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के नेतृत्व में नर्मदा बचाओ आंदोलन और आदिवासियों, किसानों, पर्यावरणविदों के नेतृत्व में आजीविका के अधिकार, जीवन के अधिकार के मुद्दों को सामने लाया गया। बलात्कार की शिकार भंवरी देवी द्वारा यौन उत्पीड़न कानूनों के लिए विरोध और बाद में आंदोलन के कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशाखा दिशा-निर्देशों को लागू किया गया, जो अब यौन उत्पीड़न विरोधी कानून के रूप में आकार ले चुका है।
पत्रकार अम्मू जेसेफ कहती हैं, 'मैं वास्तव में ऐसा सोच नहीं सकती कि पिछले कुछ दशकों में कोई ऐसा कानून, नीतियां या विकास के बारे में फैसले लिए गए हों जिनमें समाज के वंचित तबके के अधिकारों एवं हितों को बिना किसी लोकतांत्रिक संघर्ष के शामिल किया गया हो। वे कहती हैं कि हर कोई औपनिवेशिक शासन एवं इमरजेंसी के खिलाफ संघर्ष के बारे में जानता है। वे कहती हैं, महिला अधिकार, लैंगिक समानता जैसे कानून स्वर्ग से नहीं गिरे हैं। न ही अन्य दूसरे कानून जैसे आरटीआइ, शिक्षा, काम, भोजन आदि के अधिकार इस तरह प्राप्त हुए हैं। वे कहती हैं कि जामिया व अलीगढ यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पीटा गया और भाजपा नेताओं ने उन्हें राष्ट्रविरोधी बताया, लेकिन अपने निधन से पहले तक मोदी सरकार के सबसे प्रभावी मंत्रियों में शामिल रहे अरुण जेटली जेपी आंदोलन में छात्र के विरोध प्रदर्शन के समर्थक थे। वे गुजरात व बिहार में आंदोलन का समर्थन कर रहे थे'।
चेन्नई में 2017 के जल्लीकट्टू विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे वहां के एक वकील एलिजाबेथ शेषाद्रि कहते हैं, 'इस तरह के सिस्टम आत्मविश्वास को कैसे प्रेरित कर सकते हैं? तमिलनाडु में पुलिस ने स्पष्ट रूप से कहा था कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को अनुमति नहीं दी जाएगी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के बजाय, यह स्पष्ट है कि यह शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने के मौलिक अधिकार को रोकने का एक तरीका है'।
डोरेस्वामी कहते हैं, 'सरकारें दमनकारी हो सकती हैं। विरोध के अधिकार को छोटा करने का प्रयास किया गया है। उदाहरण के लिए बेंगलुरु में विरोध प्रदर्शन केवल फ्रीडम पार्क और मौर्य सर्कल दो जहों पर आयोजित किया जा सकता है। वे कहते हैं, सार्वजनिक स्थान लोगों के हैं, पार्क और सड़कों की तरह। वहां प्रतिबंध लगाकर सरकार के पास अनुमति नहीं देने का बहाना है, क्योंकि खाली स्थान कम हैं। वे कहते हैं कि अगर तय स्थान पर विरोध होना चाहिए तो सरकार को विरोध प्रदर्शन के लिए अधिक स्थान आवंटित करना चाहिए। उन्होंने (सत्ताधारी दल के लोग) अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया है। अब ये वही लोग हैं जो बहुत अप्रत्यक्ष ढंग से विरोध के अधिकार पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं'।
(संयुक्ता धर्माधिकारी की यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में पहले न्यूज मिनट्स में प्रकाशित)