Punjab Climate Change: अगले 17 साल में सूख जाएगा पंजाब की जमीन के नीचे का पानी, आंकड़े बड़े डरावने हैं
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सौमित्र रॉय की रिपोर्ट
Punjab Climate Change: ग़ालिब का एक मशहूर शेर है- आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक। जलवायु परिवर्तन की बात छिड़ते ही भारत में लोगों का रवैया कुछ इसी तरह का होता है। वह तो इस साल मार्च में 122 साल का रिकॉर्ड तोड़ने वाली गर्मी ने गेहूं की फ़सल क्या चौपट की तो अब फिर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर बात हो रही है। बात है सिर पर खड़ी आफ़त की। चेन्नई में जमीन के भीतर का पानी सूख गया है। एनजीटी ने हाल में चेताया है कि पंजाब में भूजल केवल 17 साल के लिए ही बचा है।
भूजल की अंधाधुंध लूट
उधर, संयुक्त राष्ट्र की वॉटर डेवलपमेंट रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली के भूमिगत जल में जहरीले रसायन घुल गए हैं, जिसकी वजह बिना सोच-समझे यहां-वहां इकट्ठा किए गए कूड़े के पहाड़ हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा भूमिगत जल का दोहन एशिया महाद्वीप में किया जाता है और वह भी खेती के लिए। भारत इस अंधाधुंध लूट में सबसे आगे है। भारत में हर साल दो करोड़ कुंओं से 2510 खरब लीटर पानी जमीन से निकाला जा रहा है, जो कि दुनियाभर में भूजल खपत का 26 % है। अगर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की बात करें तो केंद्रीय भूजल सर्वेक्षण बोर्ड के मुताबिक हाल के अरसे में नोएडा की जमीन के नीचे पानी का स्तर 110 मीटर से भी नीचे चला गया है। दो दशक पहले नोएडा में जमीन के 30-40 मीटर नीचे पानी मिल जाता था।
क्यों सूखी चेन्नई?
चेन्नई शहर रातों-रात नहीं सूखा। पहले तो लगातार सूखे के चलते शहर के जलाशय सूखे। शहर को रोजाना 830 मिलियन लीटर पानी चाहिए, लेकिन मिल रहा था केवल 520 मिलियन लीटर। यह पानी भी जमीन से खींचा जा रहा था। धरती से लगातार पानी लिया गया, लेकिन उसे उतना पानी लौटाया नहीं गया। लिहाजा चेन्नई सूख गई। पंजाब का भी यही हाल है। पिछले साल पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की एक स्टडी जुलाई में आई थी। इसमें पाया गया था कि राज्य के 22 में से 18 जिलों में भूमिगत जल सालाना 1 मीटर की दर से नीचे चला जा रहा है। अब राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) की निगरानी समिति ने बताया है कि सूबे में केवल 17 साल तक के उपयोग का ही पानी बचा है। इस समिति में अध्यक्ष जस्टिस जसबीर सिंह (रिटा.) के अलावा पर्यावरणविद् बलबीर सिंह सीचेवाल भी शामिल हैं, जिन्हें आम आदमी पार्टी की सरकार ने पिछले दिनों राज्यसभा के लिए नामांकित किया है।
पंजाब का सूखना क्यों चिंताजनक है?
पंजाब देश का अन्नदाता राज्य है। पिछले दो दशकों में भूमिगत जल 30 मीटर तक नीचे खिसक चुका है, जो कि पहले 3 से 10 मीटर की गहराई में आसानी से मिल जाता था। फिलहाल स्थिति यह है कि फरीदकोट, फिरोजपुर, गुरदासपुर और मुक्तसर के अलावा होशियारपुर, मानसा और नवांशहर के कुछ इलाकों को छोड़कर बाकी जिलों में भूमिगत जल का बेतरतीबी से दोहन किया जा रहा है। स्टडी के अनुसार, हालात 2012 से तब खराब होने शुरू हुए, जब राज्य के किसानों ने सिंचाई के लिए नहरों की जगह ट्यूबवेल का पानी इस्तेमाल करना शुरू किया। यही वही दौर था, जब पंजाब सरकार ने फसल विविधता का अभियान छेड़ा हुआ था। इस अभियान का लक्ष्य तो हासिल नहीं हुआ, पर भूमिगत पानी का लेवल नीचे चला गया। पंजाब में 22 मुख्य और लिंक नहरें हैं, जिनसे सिंचित फसल का राज्य की जीडीपी में योगदान 28% है और राज्य की 50% से ज्यादा श्रमिक आबादी कृषि पर ही निर्भर है। हालांकि, पंजाब की 72% से ज्यादा कृषि भूमि सिंचाई के लिए अभी भी भूमिगत जल पर निर्भर है और समस्या की जड़ यहीं पर है।
सीएम मान की चिंता और लाचार नियम-कानून
दो दिन पहले सीचेवाल में एक कार्यक्रम के दौरान पंजाब के सीएम भगवंत मान ने बताया कि राज्य के सभी जनपदों में भूमिगत जल सूख चुका है, क्योंकि किसान अब ऐसे हाई पावर पंप से पानी खींचने लगा हैं, जो जमीन की गहराई से तेल खींचने के काम आते हैं। उन्होंने कहा कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की जरूरत है। अलबत्ता, उनका कहना तब तक कारगर नहीं होगा, जब तक सरकार भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगाने वाले सख्त कानून नहीं बनाती। केंद्र सरकार की 2012 में बनी राष्ट्रीय जल नीति में भी तकरीबन वही माबत कही गई है, जो भगवंत मान ने कही, लेकिन अगर बात जमीन पर अमल की हो तो राजस्थान सरकार की मुख्यमंत्री जल स्वाभिमान योजना एक मिसाल है, जिससे राज्य के 21 में से 16 जिलों में भूमिगत जल का स्तर 1.4 मीटर ऊपर आया है। इस योजना के तहत राजस्थान सरकार ने सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाओं, पानी के विभिन्न ढांचों और स्टॉप और चेक डैम के अलावा बड़ी संख्या में वृक्षारोपण भी किया है।
यानी साफ है कि लोगों पर केवल सख्त कानून थोपने से ही काम नहीं चलेगा, जनभागीदारी और व्यवहार परिवर्तन की भी जरूरत है। पानी समाज का विषय है- यह बात पानी को लेकर सरकार पर निर्भर रहने के बजाय जब लोग खुद स्वीकारेंगे, तभी समाज पानीदार होगा। दिक्कत यह है कि सरकारें अभी भी पानी पर नियंत्रण रखना चाहती है, ताकि बाजार के हित पूरे हों। सबसे बड़ी चिंता का विषय तो यही है।