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विमर्श

दंगा-फसाद भड़काने और उसे संरक्षण देने वाले बनते जा रहे आदरणीय और माननीय

Janjwar Desk
23 Aug 2020 10:42 AM IST
दंगा-फसाद भड़काने और उसे संरक्षण देने वाले बनते जा रहे आदरणीय और माननीय
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जब आशा कार्यकर्ता प्रदर्शन करती हैं तब पुलिस को सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान आता है और एफ़आईआर दर्ज कर दी जाती है, और इसी पुलिस को राजनीतिक कार्यक्रमों में गले मिलते, एक दूसरे पर गिरते-पड़ते लोगों से कोई परेशानी नहीं होती...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

20 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ के सामने मानवाधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा तथाकथित न्यायालय के अवमानना के मामले में सजा पर चर्चा के बीच में न्यायाधीश मिश्रा ने कहा, अभिव्यक्ति की आजादी मौलिक अधिकार है, पर लक्षणरेखा को याद रखना भी आवश्यक है।

इसके बाद रवीश कुमार ने अपने कार्यक्रम प्राइमटाइम में लगभग 10 मिनट तक लक्ष्मणरेखा के पौराणिक वृत्तान्त से से लेकर आज के सन्दर्भ तक इसकी चर्चा की। रामचरित मानस से लिए गए शब्दों में सम्भवतः लक्षणरेखा बोलचाल की भाषा से लेकर हिंदी साहित्य में सर्वाधिक उपयोग वाला शब्द होगा।

लक्ष्मणरेखा का उपयोग अपनी हद या फिर अपनी सीमा के सन्दर्भ में किया जाता है, क्योंकि रामचरित मानस के अनुसार लक्ष्मण ने सीता की कुटी के बाहर चारों-तरफ एक लकीर खींची थी और इसे किसी भी कीमत पर नहीं लांघने का निर्देश दिया था।

इसी कारण हद या सीमा के लिए लक्ष्मणरेखा का भी उपयोग होता है। पर, यह एक अस्थाई प्रबंध था, इस तथ्य को भुला दिया गया। बाद में इसे मर्यादा से जोड़ दिया गया, पर लक्ष्मण ने सीता की मर्यादा के लिए नहीं बल्कि रक्षा के लिए इसे खींचा था।

जाहिर है, राम और लक्ष्मण के वापस आते ही इस रेखा को मिटा दिया जाता, पर इससे पहले ही रावण ने सीता को इसे लांघने को बाध्य कर दिया। पूरे रामचरित मानस में राम और रावण के बीच प्रतिद्वंदिता भी यहीं से शुरू होती है, जिसका अंत राम द्वारा रावण वध से होता है, जिसे हम हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत कहते हैं।

जाहिर है, किसी बड़े उद्देश्य के लिए लक्ष्मणरेखा लांघनी ही पड़ती है। आज के दौर में देश की जो स्थिति है, उसमें सरकार ने गोपनीय तरीके से बीजेपी समर्थक और सामान्य जन के लिए अलग-अलग लक्ष्मणरेखा खींची है। सामान्य जन में भी कुछ समुदाय विशेष के लिए यह और भी अलग है।

वर्ष 2014 से लगातार इन अलग रेखाओं को जनता देखती जा रही है, भुगतती जा रही है। हाल में ही अयोध्या के समारोह में कोरोना की दवा का झूठा दावा करने वाले रामदेव इत्मीनान से बिना किसी मास्क या गमछे के ही शुरू से आखिर तक बैठे रहे, यह उनके लिए लक्ष्मणरेखा तय की गई है।

दूसरी तरफ 21 अगस्त को उत्तर प्रदेश के ही बलिया में मास्क लगाए लोगों पर भी पुलिस पूरी मुस्तैदी से लाठियां बरसाती रही, यह इनकी लक्ष्मणरेखा थी। समाजसेवी डॉ कफील खान एक निहायत ही शिष्ट भाषण देकर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बना दिए जाते हैं और बीजेपी के कपिल मिश्रा सरेआम बीच चौराहे पर पुलिस संरक्षण में एक वर्ग को धमकाने वाला भाषण देते हैं, और पुलिस प्रशासन उनकी वाहवाही करने लगता है।

जब आशा कार्यकर्ता प्रदर्शन करती हैं तब पुलिस को सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान आता है और एफ़आईआर दर्ज कर दी जाती है, और इसी पुलिस को राजनीतिक कार्यक्रमों में गले मिलते, एक दूसरे पर गिरते-पड़ते लोगों से कोई परेशानी नहीं होती।

एक ऐसा देश जहां लक्ष्मण रेखाएँ भी पार्टी, जाति, लिंगभेद, आर्थिक स्तर और क्षेत्रवाद के अनुसार खींच दी जाएँ, उस देश को आगे बढ़ाने के लिए और स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपरा कायम करने के लिए नागरिकों को अपनी रेखाओं को लांघना ही पड़ता है, वरना सरकारें रेखाओं का दायरा और छोटा करती जातीं हैं।

वैसे भी सरकार ने पुलिस, प्रशासन, मीडिया, सोशल मीडिया और न्यायालयों के माध्यम से लक्ष्मणरेखा का दायरा लगातार छोटा किया है और इसी बलबूते पर बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी, रसातल तक पहुँची अर्थव्यवस्था, प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन और पूंजीपतियों के हाथ बिकते देश में भी रामराज्य की चर्चा करते नहीं थकते।

दंगे और सरेआम हिंसा भड़काने वाले लोग आदरणीय हो जाते हैं और सत्ता तक पहुँच जाते हैं, जबकि हिंसा और दंगों में प्रताड़ित जनता जेलों में ठूंस दी जाती है। यदि यह सब जनता की नजर में रामराज्य है, तब तो लक्ष्मणरेखा ठीक है, वरना इसे लांघना ही पड़ेगा और तभी रावण का वध संभव हो पायेगा। प्रशांत भूषण ने तो इस तथाकथित रेखा को कम से कम न्यायालय की नजर में तो लांघ लिया, अब हमारी बारी है।

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