भारतीय समाज और आरएसएस के एकीकरण की परियोजना का दूसरा चरण 5 अगस्त को शुरू हो चुका है!
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'
बीते 5 अगस्त को राम मंदिर भूमि पूजन के बाद जिस किसी से भी बात हुई, सबके मन में एक ही सवाल था कि अब आगे क्या। भाजपा की पैदाइश के बाद से उसके घोषणापत्र में शामिल तीन में से दो मुद्दे तो निपट गये। अनुच्छेद 370 को हटाने और मंदिर बनाने का जो सबसे जटिल वादा था, उसे तो इतनी आसानी से निभा दिया गया। बच गया कॉमन सिविल कोड, वो भी सुप्रीम कोर्ट के रास्ते देर सवेर आ ही जाएगा। फिर आरएसएस और भाजपा करेंगे क्या?
बिलकुल यही सवाल आज से 33 साल पहले तत्कालीन संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस के सामने आ खड़ा हुआ था जब राम मंदिर निर्माण के लिए सभी पक्षकारों और कांग्रेस सरकार के बीच सहमति बनने की ख़बर पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र में छप गयी थी। 27 दिसंबर, 1987 के पांचजन्य के मुखपृष्ठ पर विश्व हिंदू परिषद के मुखिया अशोक सिंहल की बड़ी सी तस्वीर के साथ राम मंदिर आंदोलन की विजय सम्बंधी छपी खबर का पता जब देवरस को लगा, तो उन्होंने दिल्ली स्थित झण्डेवालान के संघ कार्यालय में सिंहल को तलब कर लिया और उन पर 'आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने का आरोप लगाया'।
यह प्रसंग फ़ैज़ाबाद में के.एम. चीनी मिल के मालिक और विहिप नेता विष्णुहरि डालमिया के रिश्तेदार लक्ष्मीकांत झुनझुनवाला के हवाले से शीतला सिंह ने अयोध्या पर अपनी पुस्तक में छापा है। वे बालासाहेब देवरस के बारे में लिखते हैं, 'उन्होंने सबसे पहले अशोक सिंहल को तलब कर के पूछा कि तुम इतने पुराने स्वयंसेवक हो, तुमने इस योजना का समर्थन कैसे कर दिया? सिंहल ने कहा कि हमारा आंदोलन तो राम मंदिर के लिए ही था, यदि वह स्वीकार होता है तो समर्थन करना ही चाहिए। इस पर देवरस जी उन पर बिफर गये और कहा कि तुम्हारी अक्ली घास चरने चली गयी है। इस देश में राम के 800 राममंदिर विद्यमान हैं, एक और बन जाए तो 801वां होगा। लेकिन यह आंदोलन जनता के बीच लोकप्रिय हो रहा था। उसका समर्थन बढ़ रहा था, जिसके बल पर हम दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति तक पहुंचते। तुमने इसका स्वागत करके वास्तव में आंदोलन की पीठ में छुरा भोंका है... इससे बाहर निकलो, क्योंकि यह हमारे उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक होगा।'
(अयोध्या : रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच, शीतला सिंह, पृष्ठ. 110)
आज जब मंदिर का शिलान्यास कोर्ट के माध्यम से हो चुका है, तब पीछे मुड़कर देवरस के इस बयान पर गौर करिए। जो मुद्दा 33 साल पहले सुलझ चुका था, उसे इसलिए सुलगाये रखा गया ताकि दिल्ली में संघ की सरकार कायम हो सके। क्या कोई सोच सकता था उस वक्त कि संघ और भाजपा के 'उद्देश्यों' की पूर्ति में खुद राम मंदिर ही 'बाधक' है? उस वक्त के लोकप्रिय हिंदू नेता अशोक सिंहल भी देवरस के सामने नादान बालक नज़र आते हैं जिनकी नज़र केवल राम मंदिर तक जाकर खत्म हो जाती है। देवरस 1987 में जो सोच रहे थे, वह 1998 में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन वाली सरकार के रूप में साकार हुआ लेकिन पूरे 27 साल बाद 2014 में जाकर बहुमत के साथ मुकम्मल हो सका।
वाल्टर एंडर्सन और श्रीधर दामले (आरएसएस: ए व्यू टु द इनसाइड, पेंग्विन) ऐसे ही नहीं कहते हैं कि 'संघ को समझ पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उसे गलत समझ लेना बहुत आसान है।'
देवरस का सिंहल को गिनाया उद्देश्य 2014 में पूरा हुआ। 2019 में और पुष्ट' हुआ। इसी पुष्ट उद्देश्य के साथ मंदिर की नींव रखने की खानापूर्ति बीते बुधवार को कर दी गयी। खानापूर्ति इसलिए, क्योंकि 1987 से लेकर अब तक उद्देश्य मंदिर नहीं था। वह साधन था। इस साधन के आयोजन की तरह-तरह से विद्वतापूर्ण व्याख्याएं हो रही हैं। बीते तीन दिन में लाखों शब्द खर्च किए जा चुके हैं लेकिन भविष्य का सूत्र उस तथ्य में छुपा है जिस पर न अलग से लिखा गया, न बोला गया। वह तथ्य क्या है?
2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने कभी सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ मंच साझा नहीं किया था। कभी नहीं। चाहे वह सरकारी आयोजन रहा हो या गैर-सरकारी। यह पहली बार था जब अयोध्या में सरसंघचालक और प्रधान सेवक एक ही मंच पर एक साथ थे। इससे भी बड़ी बात ध्यान देने की यह है कि भागवत का भाषण प्रधानमंत्री से पहले हुआ। ज़ाहिर है, संघ के प्रचारक से बड़ा सरसंघचालक है। बीजेपी से बड़ी आरएसएस है। यह सरकार बीजेपी की नहीं, आरएसएस की सरकार है। इस घटना के क्या निहितार्थ हैं? इस पर आने से पहले आइए, संघ के ही एक वरिष्ठ पदाधिकारी सुनील अम्बेककर के लिखे पर एक नज़र डालते हैं।
बीते 17 साल से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (आरएसएस से सम्बद्ध) के राष्ट्रीय संगठन सचिव और संघ के प्रमुख प्रचारकों में एक सुनील अम्बेकर की पिछले साल एक किताब आयी थी जिस पर बहुत चर्चा नहीं हो सकी। 'दि आरएसएस रोडमैप्स ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चुरी'' नामक इस किताब का परिचय ही आंख खोलने वाला है। अम्बेकर लिखते हैं कि उनके दिमाग में यह सवाल घूम रहा था कि आखिर स्वतंत्रता के 100 साल पूरे होने पर सन् 2047 में भारत की स्थिति क्या होगी। दूसरे ही पैरा में वे इसका जवाब देते हैं, 'संघ को भारतीय समाज से अलग कर के पहचानना असंभव हो जाएगा। संघ और भारतीय समाज का विलय इतना पूर्ण हो जाएगा जैसे कि दूध में चीनी। जिस तरह दूध को हिलाने पर वह चीनी के गुण दिखाने लगता है, वैसे ही भारतीय समाज अपनी समग्रता में संघ के विचारों को प्रदर्शित करने लगेगा। इस तरह संघ, भारतीय समाज का पर्याय बन जाएगा और उसके स्वतंत्र अस्तित्व की ज़रूरत अपने आप समाप्त हो जाएगी।'
संघ और भारतीय समाज के एक हो जाने का प्रभाव प्रशासनिक संरचना के स्तर पर कैसे दिखेगा, यह समझना बहुत ज़रूरी है क्योंकि 2047 में अब केवल 27 साल बचे हैं। याद रखिए, देवरस ने भी 2014 में संघ की सरकार बनने के 27 साल पहले (1987) ही अशोक सिंहल को गुरुज्ञान दिया था। अम्बेकर के वक्तव्य के संदर्भ में हमें अव्वल तो अयोध्या के मंच पर मोदी और भागवत के पहली बार साथ आने (2014 के बाद) का दृश्य याद रखना होगा। दूसरे, पिछले साल सितम्बर में दिल्ली में मोहन भागवत द्वारा विदेशी पत्रकारों के साथ हुई एक अनौपचारिक चर्चा (संघ के इतिहास में पहली) में सरसंघचालक के कहे को सुनना होगा।
संघ हमेशा से गोपनीय कार्यप्रणाली में विश्वास करता रहा, लेकिन सत्ता करीब आते देख संघ ने अपना कलेवर पहली बार 2013 में बदला जब कलकत्ता में उसने देशभर के संपादकों और पत्रकारों को बुलाकर तीन दिन का एक अनौपचारिक सत्र दिया था। तब से लेकर 2019 तक संघ ने मीडिया से बात नहीं की थी। विदेशी मीडिया में जब मोदी सरकार की छवि बिगड़ने लगी, तो सरसंघचालक को खुद मैदान में उतरना पड़ा और सितम्बर 2019 में उन्होंने चुनिंदा विदेशी मीडिया के साथ दिल्ली में एक सत्र रखा। वहां उन्होंने बड़े मार्के की एक बात कही, 'संघ अनेकता में एकता वाले मुहावरे को नहीं मानता। संघ एकता में अनेकता की बात करता है।'
अब सरसंघचालक के इस बयान, अयोध्या के मंच और अम्बेकर के वक्तव्य को मिलाकर देखें, तो एकीकरण का एक सूत्र हाथ लगता है। सरसंघचालक भी एकता की बात कर रहे हैं, 5 अगस्त को अयोध्या के मंच पर पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार और उसे चलाने वाली एक अपंजीकृत 'सांस्कृतिक' संस्था की एकता दिखती है और अम्बेकर इस संस्था व समाज के एकीकरण की बात लम्बी दौड़ में कर रहे हैं। तो सवाल उठता है कि भागवत और मोदी का एक मंच पर एक साथ आना निकट भविष्य में किन एकताओं का बायस बनेगा?
इसका सूत्र संघ के संचालन में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले 'एकै चालकानुवर्तिता' के मंत्र में छुपा है मने चालक एक हो, बाकी सब कंडक्टर, खलासी या सवारी। सबकी भूमिका में परस्पर बदलाव चलेगा। ड्राइवर वही रहेगा। ईसाइयत में इसे कहते हैं 'लॉर्ड इज़ माइ शेफर्ड' यानी हम सब भेड़ें हैं और ईश्वर हमारा चरवाहा। चरवाहे को क्या चाहिए, एक बांसुरी और ढेर सारी भेड़ें, जिन्हें वह जब चाहे हुर्र कर सके।
मौजूदा सरकार के प्रत्यक्षत: दो चालक हैं: एक सरसंघचालक और दूसरा उसकी राजनीतिक पार्टी बीजेपी का मुखौटा यानी प्रचारक व प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी। याद कीजिए कि कैसे संघ को जानने का दावा करने वाले विद्वान लगातार बीते पांच वर्षों के दौरान संघ और मोदी के बीच नूराकुश्ती को असली टकराव के रूप में दिखाकर खुद को राहत देते आये हैं। हकीकत यह है कि संघ को राजनीतिक सत्ता चाहिए थी जो बीजेपी के माध्यम से मिली। अब संघ को मंदिर भी मिल गया है। एक राजनीतिक मुखौटे के रूप में भाजपा की ज़रूरत अब धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही है, सिवाय इसके कि अब भी इस देश में राजनीतिक पार्टी को चुनाव आयोग से पंजीकृत होने की अनिवार्यता है। इस लिहाज से मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी का एक सार्वजनिक मंच पर पहली बार आना भाजपा चालित सरकार और संघ के एकीकरण का पहला संकेत है। दो चालक एक साथ नहीं रह सकते। चालक एक ही होगा। बहुत मुमकिन है कि आने वाले वर्षों में, जब समान आचार संहिता से लेकर संवैधानिक बदलाव जैसे काम विधायी और कानूनी रास्ते से पूरे कर लिए जाएं, तब प्रधान सेवक और सरसंघचालक का औपचारिक विलय हो जाए।
इसमें आश्चर्य हो रहा हो तो पड़ोसी चीन पर नजर घुमा लीजिए। वहां सुप्रीम नेता एक ही है। वही सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी का लीडर है। वही राष्ट्राध्यक्ष भी है। वही सेनाओं का प्रमुख भी है। भारत में तुलना बैठाने के लिए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के भाजपा सरकार द्वारा बनाये गये नये पद पर ध्यान दीजिएगा, तो बात शायद पकड़ में आवे। चीन में पार्टी और राष्ट्राध्यक्ष का विलय काफी पहले हो चुका था, अब समाज और पार्टी का विलय चल रहा है। अम्बेकर के मुताबिक यही काम यहां 27 साल बाद पूरा होगा- शुरू और पहले हो जाएगा। इसे चीन का मॉडल समझना हो तो समझ लीजिए, लेकिन किसी भी अधिनायकवादी संगठन का मॉडल यही होता है।
यह जो एकता बनेगी लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार और संघ की, उसके बाद सांस्कृतिक आधारों पर समाज को एक करने का प्रयास ज़ोर पकड़ेगा। इसकी शुरुआत अयोध्या से हो चुकी है, जहां राम मंदिर को प्रधानमंत्री ने आधुनिक संस्कृति का प्रतीक बताया है। इसी मसले पर बोलते हुए संघ के बड़े नेता डॉ. कृष्णगोपाल ने बड़ी सफाई से एक वीडियो में कहा है कि कैसे भारतीय समाज के एकीकरण का सांस्कृतिक सूत्र अयोध्या में बनने वाला राम का मंदिर होगा। मोहन भागवत भी यही कह रहे हैं। मिले सुर मेरा तुम्हारा। कहीं कोई दिक्कत नहीं है। सब कोरस में है।
This is a mesmerising speech by Sh Krishna Gopalji, RSS Sahsarkaryavah on RJB. A must-listen by everybody: Shri Ram Janmabhoomi: The Future Vision https://t.co/s28r1VamsO
— Ram Madhav (@rammadhavbjp) August 4, 2020
इस एकीकरण प्रोजेक्ट/ का पहला हमला उन हिंदुओं पर होगा जो दिल से तो पारंपरिक हिंदू हैं लेकिन संघ और भाजपा से राजनीतिक दूरी बनाये रखते हैं। इसी में जय सियाराम का नारा काम आएगा। अब जय श्रीराम की जरूरत समाप्त हो चुकी है। समाज ठंडा पड़ा हुआ है। उसे गरमाना नहीं है। और ठंडा करना है। इसे ऐसे समझें कि दूध उबल चुका है, अब उसे फूंक फूंक कर ठंडा किया जाना है ताकि सतह पर छाली जमे और उसे काटा जा सके। इस दूध से जो छाली काट कर निकाली जाएगी, वह समाज पर राज करने वाले उच्च वर्ण और उच्च वर्ग का प्रतिनिधि होगा। उसका ट्रीटमेंट अलग होगा, लेकिन बाकी दूध में अब चीनी घोलने का काम शुरू होगा- अम्बेकर की बतायी चीनी यानी संघ। इस तरह मोहन भागवत की बतायी एकता की प्रक्रिया चलेगी।
यह एकता मिलिटैंट राम के सहारे नहीं, उदार राम के सहारे बनेगी। जिस राम और हनुमान की अभय मुद्रा का हवाला दे देकर उदारवादी लोग संघ की आलोचना करते रहे हैं, संघ अब वापस उसी छवि पर आ गया है। लिबरलों के तरकश खाली होने वाले हैं। अब उदार हिंदू, परंपरागत हिंदू, करुणामय भगवान, तैंतीस करोड़ भगवान वाला मुहावरा फंस गया है। यही वजह है कि इससे पहले कांग्रेस की कभी इतनी आलोचना नहीं हुई जितनी 5 अगस्त को प्रियंका गांधी की चिट्ठी पर हुई। राहुल गांधी पहले भी मंदिर गये हैं, वेद पुराण की बात किये हैं लेकिन तब यह उदार हिंदू मुहावरा कुछ काम का जान पड़ता था। अयोध्या में मोदी के सौ रामायण वाले अतिउदार और समावेशी भाषण के बाद कांग्रेस का उदार हिंदू सिक्का अचानक खोटा हो गया, जिसकी खीझ उसी दिन समूचे लिबरल तबके ने प्रियंका और राहुल पर निकाली। अब लिबरल तबके के पास संघ से लड़ने के लिए कोई उपाय नहीं सूझ रहा, तो वो इसी में दिमाग खपाये पड़ा है कि आगे संघ की रणनीति क्या होगी।
RSS Sah Sarkaryavah Dattatreya Hosabale Ji's Interaction with Journalists of foreign media houses.https://t.co/iLUA5eVAFe pic.twitter.com/lL564vzzE0
— RSS (@RSSorg) May 6, 2020
संघ की रणनीति बहुत साफ़ है। संघ को अब डाइल्यूट होने की प्रक्रिया में जाना है। बीती 6 मई को एक बार फिर विदेशी पत्रकारों के साथ संघ ने बैठक की। इस बार दत्तात्रेय होसबोले ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये आधे घंटे तक संघ के काम और विचार और दृष्टि पर विदेशी पत्रकारों को लेक्चर दिया। कोरोना के बीच यह खबर कहीं नहीं आयी। संघ अब घोषित रूप से अपने खोल से बाहर आ चुका है। वह सांस्कृतिक संगठन नहीं रहा। कुछ लोग इसकी संघ के भ्रष्ट और समाप्त हो जाने के रूप में व्याख्या करते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि संघ की मुक्ति उसके फ़ना हो जाने में ही है। यह फ़ना होना दरअसल देह बदलने जैसा है, जिसे हम परकाया प्रवेश कहते हैं।
संघ और मौजूदा सरकार के खिलाफ कोई भी संघर्ष इस बिंदु को समझे बगैर अगर किया जाता है, तो वह कटे कबंध तलवार भांजने के अलावा कुछ भी साबित नहीं होगा।