कोरोना काल मे महिलाओं की मौत का तीसरा सबसे बड़ा कारण असुरक्षित गर्भपात, लेकिन लगातार बढ़ रहे मामले
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
भारत में गर्भवती महिलाओं की मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण असुरक्षित गर्भपात है और इस कोरोना काल में ऐसे गर्भपातों की संख्या लगातार बढ़ रही है। फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज इंडिया नामक संस्था के अनुसार कोविड 19 के दौर में लॉकडाउन के कारण आवागमन के सारे साधन बंद हो गए, प्राइवेट क्लिनिक बंद हो गए और दवा की दुकानें भी बंद हो गईं, तब देश में असुरक्षित गर्भपात के मामले में तेजी से बढ़ोत्तरी दर्ज की गई।
लॉकडाउन का असर लगभग 2.56 करोड़ दम्पत्तियों पर पड़ा और ये गर्भ-निरोधक साधनों से वंचित रह गए। फाउंडेशन का दावा है कि इस दौरान लगभग 23 लाख अवांछित गर्भ धारण के मामले आये और इसमें से 8 लाख का असुरक्षित गर्भपात कराया गया। लॉकडाउन लगाने की प्रक्रिया इतने असंवेदनशील तरीके से लागू की गई थी कि बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य को भी आवश्यक सेवाओं से बाहर कर दिया गया था।
इसके बाद अनेक संगठनों के आवाज उठाने के बाद इन सेवाओं को 14 अप्रैल के बाद आवश्यक सेवाओं में शामिल किया गया लेकिन अधिकतर अस्पतालों को विशेष कोविड अस्पताल में तब्दील कर दिया गया, जिससे अन्य सेवायें ठप्प हो गईं, आवागमन के सभी साधन बंद थे और लगभग 9 लाख सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को अपने सामान्य काम से हटा कर कोविड 19 से जुड़े काम में लगा दिया गया है।
यदि हिम्मत कर कोई महिला किसी क्लिनिक या हॉस्पिटल जाने के लिए निकलती भी है, तब भी पुलिस बैरीकेड पर पुलिस वालों को कारण बताने से महिलायें बचतीं हैं। इसलिए अधिकतर महिलायें तमाम परेशानियों के बाद भी घर में ही रहीं और बिना किसी डॉक्टर की सलाह लिए गर्भपात के तरीके ढूंढती रहीं। इस प्रक्रिया में अनेक महिलाओं की मौत भी हो गई। अनेक महिलाओं का आंशिक गर्भपात हुआ और गर्भ का एक हिस्सा लम्बे समय तक अन्दर ही रह गया।
परिवार सेवा संस्थान नामक संस्था के देश भर में 31 क्लिनिक हैं जो विशेष तौर पर महिलाओं और शिशुओं के लिए विशेष तौर पर बनाए गए हैं। अब ये सभी क्लिनिक खुलने लगे हैं और यहाँ आने वाले कुल मामलों में से 60 प्रतिशत से अधिक असुरक्षित गर्भपात के बाद की परेशानियों से सम्बंधित हैं।
भारत में 20 सप्ताह तक के गर्भपात को कानूनी मान्यता मिली है और कुछ विशेष परिस्थितियों में इसे 24 सप्ताह भे किया जा सकता है। सरकारी अस्पतालों या क्लिनिक में महिलाओं को इसकी सलाह और गर्भ रोकने की सलाह मुफ्त में दी जाती है और बड़ी संक्या में महिलायें इसका लाभ भी उठाती हैं, पर कोरोना काल में सबकुछ बंद हो गया है।
एशिया और पैसिफिक के जेंडर इन ह्युमैनिटेरियन एक्शन नामक संस्था के अनुसार किसी भी महामारी के समय समाज के महिलाओं पर बोझ बहुत बढ़ जाता है। सबसे पहले तो घर में बीमारों और बुजुर्गों की देखभाल का अवैतनिक कार्य ही बढ़ता है। स्कूलों में छुट्टियां किये जाने पर कम उम्र की लड़कियों को भी बुजुर्गों और बच्चों की देखभाल में शामिल कर दिया जाता है। घर के बाहर भी देखें तो महामारी के समय स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ कई गुना बढ़ जाता है, और इसका बोझ भी महिलाएं ही उठातीं हैं।
दुनियाभर में स्वास्थ्य सेवाओं और इससे जुड़े सामाजिक संस्थाओं में कुल रोजगार प्राप्त लोगों में से 70 प्रतिशत महिलायें हैं, फिर भी इस क्षेत्र में वेतन में लैंगिक असमानता 28 प्रतिशत से अधिक है। ऐसी महिलाओं की सबसे बड़ी दिक्कत पर्याप्त समय निकालना और अपने नाप के सुरक्षा उपकरण खोज पाना है क्योंकि ये उपकरण केवल पुरुषों को ध्यान में रखकर डिजाइन किये जाते हैं।
महामारी के समय समाज में फैले तनाव का खामियाजा भी महिलायें ही भुगततीं हैं और बड़ी संख्या में घरेलू हिंसा का शिकार होतीं हैं। बड़े पैमाने पर महिलाओं की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। एबोला वायरस के विस्तार के समय किये गए अध्ययन में देखा गया की विशेष तौर पर असंगठित क्षेत्र में कम करने वाली महिलायें पुरुषों के अपेक्षा अधिक प्रभावित होतीं हैं और उनकी सुरक्षा भी दांव पर लगी होती है।
एबोला और जिका वायरस के विस्तार के समय किये गए दूसरे अध्ययन से स्पष्ट होता है कि महामारी के समय महिलाओं का सामान्य स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है क्योंकि उस समय स्वास्थ्य सेवायें सामान्य समस्याओं को नजरअंदाज करतीं हैं। जेंडर इन ह्युमैनिटेरियन एक्शन के अनुसार किसी भी आपदा या महामारी में महिलाओं की व्यापक भूमिका के बाद भी इससे सम्बंधित योजना बनाने वाले या नीति निर्धारण करने वाले समूह में उच्च स्तर पर महिलाओं की भागीदारी नहीं रहती।