वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
हांगकांग में लम्बे समय से आन्दोलन चल रहे हैं और अब चीन द्वारा नए सुरक्षा क़ानून थोपे जाने से इनमें तेजी आ गई है। दुनियाभर के मानवाधिकार संगठन इसकी आलोचना कर रहे हैं, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और इंग्लैंड समेत अनेक यूरोपीय देश एकजुट होकर चीन की मानवाधिकार हनन के सम्बन्ध में भर्त्सना कर रहे हैं। दूसरी तरफ हमारे देश में लगातार सबकुछ वही किया जा रहा है, जो चीन हांगकांग में कर रहा है फिर भी दुनिया खामोश है। हांगकांग में लिबर्टी शब्द को प्रतिबंधित कर दिया, कुछ समय पहले मुख्यमंत्री योगी आजादी शब्द से चिढने लगे थे।
हांगकांग में किसी भी आन्दोलनकारी को बिना कारण बताये भी लम्बे समय तक जेल में बंद किया जा सकता है, हमारे देश में तो अब यही परंपरा है। फिर भी चीन एक मामले में भारत से पीछे है – हांगकांग में पुलिस ही न्यायाधीश नहीं बनती और अपना फैसला नहीं सुनाती, पर भारत में तो यह खुले आम किया जा रहा है। कानपुर के विकास दुबे इस फैसले की नई कड़ी हैं, पर यह श्रंखला बहुत लम्बी है और पूरे देश में फ़ैली है। पिछले वर्ष के अंत में हैदराबाद की पुलिस ने चार तथाकथित बलात्कारियों के साथ न्याय कर दिया था, अभी कुछ दिनों पहले ही तुतिकोरिन में पुलिस ने एक पिता और उसके बेटे का इन्साफ किया था।
पुलिस और सरकारें तो हमारे देश में इतनी सक्षम हो गयी हैं कि आप जैसे ही सरकार की नीतियों की आलोचना में एक शब्द बोलेंगें या लिखेंगे, वह खुद ही राष्ट्रद्रोही नारों वाली वीडियो तैयार कर लेगी और सबूत गढ़ लेगी। जाहिर है हमारी क़ानून व्यवस्था बदबूदार तरीके से सड़ चुकी है और भविष्य में भी कोई एक न्यायोचित व्यवस्था बहाल होगी इसकी संभावना नहीं दिखती। हमारे देश की जो क़ानून व्यवस्था है, वह विश्व में सबसे पारदर्शी है – किस मुकदमें में क्या फैसला आएगा या फिर पुलिस किसके साथ क्या करने वाली है, इसका सटीक अनुमान लोग पहले ही लगा लेते हैं और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर शेयर भी कर देते हैं।
विकास दुबे का एनकाउंटर होगा, यह सोशल मीडिया पर एक दिन पहले से ही बताया जा रहा था। दिल्ली दंगों को कौन करवाएगा, किसका नाम चार्जशीट में नहीं होगा और किसका होगा, यह पहले से ही लोगों को पता था, जामिया में पुलिस की बर्बरता के बाद भी उसे कुछ नहीं होगा और शांतिपूर्ण आन्दोलन में शरीक छात्र नेता पुलिस और सरकार के गढ़े आरोपों में जेल भेजे जायेंगे, यह भी सबको पता था। हमारे प्रधानमंत्री जी जैसे कपडे देखकर लोगों को पहचानते है, वैसे ही जनता भी न्यूज़ चैनलों पर हिंसक भीड़ के कपडे का रंग देखकर ही समझ जाती है कि इस हिंसा पर पुलिस कैसा इन्साफ करेगी।
वाशिंगटन डीसी स्थित वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट हरेक वर्ष देशों की क़ानून व्यवस्था से आधारित रूल ऑफ़ लॉ इंडेक्स प्रकाशित करता है। इस वर्ष के इंडेक्स में कुल 128 देशों की सूची में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का स्थान 69वां है। पिछले वर्ष भी यही स्थान था। आज तक भारत का स्थान 50वें या उससे नीचे नहीं रहा है। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता और भाजपा के प्रवक्ता आश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत की थी।
इसमें कहा गया था कि भारत सरकार को निर्देश दिया जाए कि इस इंडेक्स के शुरू के 20 देशों के क़ानून व्यवस्था का विस्तृत अध्ययन कर यह पता किया जाए कि उन देशों की व्यवस्था हमसे बेहतर क्यों है और फिर कोशिश की जाए कि हमारा देश इस इंडेक्स में ऊपर के क्रम में शामिल हो। हालां कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया पर जून के महीने में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि इस याचिका को एक रीप्रिसेंटेशन की तरह लें और एक कमेटी का गठन कर 6 महीने के भीतर इस इंडेक्स में भारत को अच्छे स्थान पर पहुचाने का प्रयास करें।
अश्विनी उपाध्याय के अनुसार इस इंडेक्स में आज तक हम 50वें स्थान पर भी नहीं पहुंचे, पर किसी भी सरकार ने इसपर ध्यान नहीं दिया। खराब क़ानून व्यवस्था जीवन, आजादी, आर्थिक समानता, भाईचारा, आत्मसम्मान और राष्ट्रीय एकता में बाधक है। वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट के अनुसार क़ानून व्यवस्था के चार मूलभूत और सार्वभौमिक सिद्धांत हैं-
1. सरकार और अधिकारी समाज की हरेक समस्या के लिए कानूनन उत्तरदाई होंगे;
2. क़ानून स्पष्ट, निष्पक्ष, मौलिक अधिकारों के रक्षक, नागरिकों और संपत्ति के रक्षक हों और इनका व्यापक प्रचार किया जाये;
3. क़ानून व्यवस्था सबकी पहुँच में, प्रभावी, सुगम और निष्पक्ष हो; और,
4. न्याय देने वाले योग्य, प्रबुद्ध, मानवतावादी, नैतिक, स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रतिनिधि हों, जिनकी संख्या पर्याप्त हो, संसाधन पर्याप्त हों और इनकी संरचना सामाजिक ढाँचे के अनुरूप हो।
रूल ऑफ़ लॉ इंडेक्स के लिए विभिन्न देशों के क़ानून व्यवस्था से सम्बंधित कुल 8 पहलू का अध्ययन किया जाता हैं – सरकारी पर दबाव, भ्रष्टाचार, स्वतंत्र सरकार, मौलिक अधिकार, क़ानून व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था, नागरिक न्याय और आपराधिक न्याय। पूरे इंडेक्स के अनुसार भारत कुल 128 देशों में 69वें स्थान पर है। पर, भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में हम 85वें, मौलिक अधिकार के सन्दर्भ में 84वें, क़ानून व्यवस्था के सन्दर्भ में 114वें, न्यायिक व्यवस्था के सन्दर्भ में 74वें, नागरिक न्याय के सन्दर्भ में 98वें और आपराधिक न्याय के सन्दर्भ में 78वें स्थान पर हैं।
इस इंडेक्स में सबसे ऊपर के दस देश क्रम से हैं – डेनमार्क, नोर्वे, फ़िनलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड्स, जर्मनी, न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रिया, कनाडा और एस्तोनिया। सबसे नीचे के स्थान पर काबिज 10 देश हैं – वेनेज़ुएला, कम्बोडिया, कांगो, ईजिप्ट, कैमरून, मॉरिटानिया, अफ़ग़ानिस्तान, बोलीविया, पाकिस्तान और जिम्बाम्बे। इस इंडेक्स में अमेरिका 21वें, इंग्लैंड 13वें, ब्राज़ील 67वें, ऑस्ट्रेलिया 11वें, जापान 15वें और चीन 88वें स्थान पर है। भारत के पड़ोसी देशों में नेपाल और श्रीलंका क्रमशः 61वें और 66वें स्थान पर हैं और भारत से आगे हैं। शेष पड़ोसी देश भारत से बहुत पीछे हैं – बांग्लादेश 115वें, म्यांमार 112वें, पाकिस्तान 120वें और अफ़ग़ानिस्तान 122वें स्थान पर है।
रूल ऑफ़ लॉ इंडेक्स 2020 के अनुसार जितने देश अपने पिछले वर्ष के स्थान से आगे बढे हैं, उससे अधिक संख्या में देशों का स्थान पहले से और नीचे पहुँच गया है। ऐसा लगातार तीन वर्षों से हो रहा है, इसका सीधा सा मतलब है कि देशों की क़ानून व्यवस्था पहले की तुलना में बिगड़ती जा रही है। इंडेक्स में सबसे तरक्की इथियोपिया और मलेशिया ने दर्ज की है, जबकि सबसे बड़ी गिरावट कैमरून और ईरान में देखी गई है।
सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता आश्विनी उपाध्याय स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता और सत्ताधारी बीजेपी के प्रवक्ता भी हैं। जाहिर है, वे देश की क़ानून व्यवस्था के साथ साथ वर्तमान सरकार के इस सन्दर्भ में रुख से भलीभांति परिचित होंगें। इस नाते उन्हें देश की क़ानून व्यवस्था पर चार मूलभूत और सार्वभौमिक सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में एक श्वेतपत्र जारी करना चाहिए, जिससे देश की जनता भी क़ानून व्यवस्था के बारे में जान सके। वैसे आश्विनी जी ने अपने कुछ फेसबुक पोस्ट पर जाने-अनजाने अपनी सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया है।
एक पोस्ट में लिखते हैं, "राजनीति का अपराधीकरण हुआ या अपराध का राजनीतिकरण? जितनी चर्चा आज विकास दुबे की हो रही है उससे ज्यादा 2016 में रामबृक्ष यादव की हुइ थी लेकिन व्यवस्था नहीं बदली, इसलिए समस्या बरकरार है। चुनाव आयोग के 50 सुझाव, विधि आयोग के 250 सुझाव और वेंकटचेलैया आयोग के 225 सुझाव वर्षों से लंबित हैं"।
एक दूसरी पोस्ट में वे साम्यवाद और समाजवाद को भी वंशवाद के समकक्ष रखते हुए सत्ता प्राप्ति का मुख्य उद्देश्य भी बताते हैं, "जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, अगडावाद, पिछड़ावाद, सवर्णवाद, दलितवाद, समाजवाद, अम्बेडकरवाद, अल्पसंख्यकवाद, माओवाद, नक्सलवाद, वंशवाद, परिवारवाद का मूल उद्देश्य सत्ता है और सत्ता प्राप्ति का मुख्य उद्देश्य कालाधन, बेनामी संपत्ति और आय से अधिक संपत्ति इकट्ठा करना है"।
हमारे देश की क़ानून व्यवस्था की स्थिति जानने के लिए किसी इंडेक्स की जरूरत नहीं है – यहाँ गुंडे, अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी और गैंगस्टर देश और समाज के लिए खतरा नहीं होते बल्कि उन्हें पूरी व्यवस्था संरक्षण देती है। हम जिस समाज में रहते हैं वहां अपराध और अपराधी की परिभाषा ही बदल चुकी है। यहाँ अपराधी, गुंडा, राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा, अर्बन नक्सल, टुकडेटुकडे गैंग का सदस्य उन्हें माना जाता है जो मानवाधिकार की आवाज उठाते हैं। क़ानून व्यवस्था के जो चार मूलभूत सिद्धांत हैं, क्या किसी एक पर भी हम खरे उतरते हैं?
वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट के संस्थापक विलियम एच नयूकोम के अनुसार यह इंडेक्स केवल न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों के लिए नहीं है, बल्कि यह सरकार, नीति निर्धारकों, विद्यार्थियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए भी उतनी ही उपयोगी है। इस इंडेक्स से दुनिया में लोकतंत्र की दिशा और दशा का पता तो चलता ही है।
हमारे देश की क़ानून व्यवस्था के साथ केवल यही समस्या नहीं है कि यह व्यवस्था विलुप्त हो गई है, पर इससे भी बड़ी समस्या यह है कि धीरे-धीरे जनता की मानसिकता भी बदलने लगी है। अब एक बड़ी आबादी इसका समर्थन करने लगी है, और इसे ही इन्साफ समझ रही है। हैदराबाद में जब चार निहत्थे तथाकथित बलात्कारियों का एनकाउंटर किया गया तब बहुत से संसद सदस्यों के साथ साथ जनता से भी बहुत लोगों ने इसे पूरा इन्साफ माना था। अब, विकास दुबे के मामले में भी यही हो रहा है।
कन्हैया कुमार पर जब न्यायालय परिसर में मारपीट हुई थी, तब भी एक बड़ी आबादी की ऐसी ही प्रतिक्रिया थी। पुलिस, न्यायालय और सरकारें भले ही क़ानून व्यवस्था स्थापित करने में फिसड्डी रही हों पर मेनस्ट्रीम मीडिया के साथ मिलकर इस सड़ी-गली बदबूदार व्यवस्था को भी जनता के मस्तिष्क में इन्साफ के तौर पर स्थापित करने में सफल रहीं है, और यही हमारे समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है।