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विमर्श

नरसंहार की तरह पर्यावरण संहार पर भी हो सख्त सजा, पर्यावरणविदों ने उठायी आवाज

Janjwar Desk
1 July 2021 12:59 PM IST
नरसंहार की तरह पर्यावरण संहार पर भी हो सख्त सजा, पर्यावरणविदों ने उठायी आवाज
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(इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट का मुख्यालय नीदरलैंड के शहर द हेग में है। इसी शहर में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस भी स्थित है, जो दो देशों के बीच के मतभेदों को सुलझाता है।)

इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट फिलहाल नरसंहार, मानवता के प्रति अपराध, युद्ध अपराध और दूसरे देशों पर बेवजह चढ़ाई को ही जुर्म मानता है....

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। पिछले 6 महीनों से दुनियाभर के चुनिन्दा क़ानून विशेषज्ञ और पर्यावरणविद स्टॉप एकोसाइड फाउंडेशन (Stop Ecocide Foundation) के तहत नरसंहार की तर्ज पर पर्यावरण संहार (Environmental Genocide) की परिभाषा तैयार करने में लगे थे। हाल में यह परिभाषा तैयार की गयी है और अब इसे इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (International Criminal Court) के तहत पर्यावरण संहार के एक अंतर्राष्ट्रीय जुर्म के तौर पर शामिल करने की है। इस परिभाषा के अनुसार ऐसी कोई भी गतिविधि जिसके बारे में पता है कि इससे पर्यावरण या पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर और दीर्घकालीन नुकसान होगा या इसकी संभावना है, को पर्यावरण संहार के अंतर्गत रखा जाएगा।

स्टॉप स्टॉप एकोसाइड फाउंडेशन इस परिभाषा के साथ पर्यावरण संहार को इन्टरनॅशनल क्रिमिनल कोर्ट में पांचवें जुर्म के तौर पर शामिल कराने को प्रयासरत है। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट फिलहाल नरसंहार, मानवता के प्रति अपराध (crimes against humanity), युद्ध अपराध (war crimes) और दूसरे देशों पर बेवजह चढ़ाई (Unprovoked Attacks On Other Countries) को ही जुर्म मानता है। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट एक स्थाई न्यायिक संस्थान है, जिसकी स्थापना वर्ष 1998 के रोम अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत की गई है।

इसका मुख्यालय नीदरलैंड के शहर द हेग में है। इसी शहर में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस भी स्थित है, जो दो देशों के बीच के मतभेदों को सुलझाता है। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की स्थापना एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत की गई है, जिसका काम उन व्यक्तियों को सजा देना या उनके विरुद्ध निर्णय देना है जो नरसंहार, युद्ध अपराध या मानवता के विरुद्ध अपराधों से जुड़े हैं।

इस न्यायालय में दो देशों के बीच मतभेद नहीं सुलझाए जाते बल्कि व्यक्तियों पर मुक़दमा चलता है। इस समझौते पर लगभग 120 देशों ने हामी भरी थी और 1 जुलाई 2002 तक इसपर 60 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए थे। समझौते के तहत इसी तारीख से इस कोर्ट का कामकाज शुरू किया गया, और यह न्यायालय 1 जुलाई 2002 के बाद के ही सामूहिक हिंसा या नरसंहार की सुनवाई कर सकता है।

इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट, उन सामूहिक नरसंहार या मानवता के विरुद्ध अपराध करने वालों के विरुद्ध मुक़दमा दायर करने का आख़िरी पड़ाव है, जिनपर सम्बंधित देशों की सरकारें कार्यवाही नहीं करतीं। इस कोर्ट में समझौते में शामिल सभी देशों के विरुद्ध या फिर गैर-सदस्य देशों के उन नागरिको पर मुक़दमा दर्ज करने का अधिकार है, जो सदस्य देशों द्वारा किये गए अपराधों में शामिल हैं। इसका उदाहरण अमेरिकी सेना और अधिकारियों के विरुद्ध अफगानिस्तान में नरसंहार का मामला है। अमेरिका रोम समझौते से अलग हो चुका है, पर अफगानिस्तान इसका सदस्य है, इसलिए इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका से भी पूछताछ करने को स्वतंत्र है।

यदि पर्यावरण संहार को मान्यता मिल जाती है तब यह क़ानून वर्ष 1940 के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शामिल किया जाने वाला पहला नया क़ानून होगा। पर्यावरण संहार की परिभाषा तैयार करने से सम्बंधित पैनल के सदस्य प्रोफेसर फिलिप सैंड्स के अनुसार अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जितने भी क़ानून है, सभी के केंद्र में व्यक्ति है। पर, यह पहले ऐसा क़ानून होगा जिसके केंद्र में व्यक्ति नहीं, बल्कि पर्यावरण है। हालांकि पर्यावरण विनाश को रोककर हम अपने आपको ही बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यह क़ानून अन्य कानूनों से अधिक मौलिक और अभिनव होगा। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए राजनीतिक और वैज्ञानिक उपायों के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक कानूनी विकल्प भी मौजूद रहेगा।

पर्यावरण संहार कोई नया शब्द नहीं है और ना ही इसका पहली बार इस्तेमाल किया जा रहा है। 1972 के बहुचर्चित स्टॉकहोम सम्मलेन के दौरान इसका उपयोग स्वीडन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे ने किया था। वर्ष 1998 में इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की स्थापना से सम्बंधित रोम सम्मलेन में भी इसका जिक्र किया गया था, पर बाद में इसे अजेंडा से बाहर कर दिया गया था। स्कॉटलैंड की बैरिस्टर पौली हिग्गिंस ने पर्यावरण संहार के सन्दर्भ में एक मुहीम चलाई थी।

पर्यावरण संहार को कानूनी मान्यता दिलवाने में सबसे मजबूती से फ्रांस के राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन खड़े हैं और अनेक दूसरे यूरोपीय देश और प्रशांत महासागर के देश इसका व्यापक समर्थन कर रहे हैं। अनेक मौकों पर पोप ने भी ऐसे क़ानून का समर्थन किया है।

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