लोकसभा चुनाव से सालभर पहले सर्वेक्षणों के सच होने की दावेदारी, पार्टियों के पक्ष में मीडिया द्वारा माहौल बनाने की तैयारी
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अंजनी कुमार की टिप्पणी
अभी लोकसभा चुनाव होने में लगभग सालभर का समय है। इसके पहले कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने हैं, लेकिन अभी से इन राज्यों में होने वाले चुनाव के साथ साथ लोकसभा चुनाव में जीत और हार की भविष्यवाणी शुरू हो गई है। यहां तक कि प्रधानमंत्री पद के लिए जनता किसे ज्यादा और किसे कम पसंद कर रही है, उसका भी सर्वेक्षण आ रहा है। भारत में अन्य भविष्यवाणियों की तरह इस तरह के अनुमान आधारित भविष्यवाणियों को भी खूब पढ़ा जाता है। इस सर्वे को भी खूब पढ़ा जाता है। इससे जरूर ही माहौल बनता है, इस या उसके पक्ष में गोलबंदी भी होती है।
अक्सर समूहों से निकाले गये निष्कर्षों में पाठक अपनी इच्छा को तलाशता हुआ दिखता है और अनुकूल राय न मिलने पर उसे निराशा भी होती है। हालांकि वह पाठक इस राजनीतिक हालातों से वाकिफ होता है और उसमें अपनी भूमिका भी तलाश रहा होता है। ऐसे में उसे ऐसे सर्वे से अपने अनुकूल निर्णय न मिलने पर उसकी बेचैनी उसे कहां ले जाएगी, कहना मुश्किल है। लेकिन, ऐसे पाठक जरूर ही आगामी माहौल बनने, हवा बदलने आदि के बवंडरों से जरूर ही प्रभावित होता है।
ये सर्वे एक खास तरह के संकेतक और समूहों का चुनाव कर व्यक्तियों की बातचीत को आधार बनाते हैं। वे और भी तरीके जरूर अपनाते हैं, लेकिन उसके बारे में खबरों को देते समय स्पष्ट नहीं करते हैं। इससे सर्वे के शीर्षक तो स्पष्ट अर्थों में पढ़ा जा सकता है, लेकिन इसके लिए उपयोग में लाई सामग्रियों को देखना, उससे आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन करते हुए निष्कर्ष निकालना पाठकों के दायरे से बाहर होता है। यह ठीक है कि खाना परोसते समय भोजन पकाने के बर्तन भी मेज पर नहीं रखा जाता है, लेकिन यदि भोजन का स्वाद पहले वाले भोजन से बदला हुआ दिखे, तो खाने वाला यह जरूर पूछता है कि ऐसा क्या है जिससे भोजन इतना स्वादिष्ट हुआ!
एक ऐसा ही सर्वे 28 जुलाई, 2023 को एबीपी के डिजिटल पेज पर दिखाई दिया। इसकी खबर के अनुसार टाइम्स नाउ और इटीजी के अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का सर्वे का निष्कर्ष इस तरह थाः ‘बीजेपी के नेतृत्व वाली गठबंधन एनडीए को कुल 545 लोकसभी सीटों में 285 से 325 सीटें मिलने का अनुमान है। वहीं देश की सबसे पुरानी पार्टी की बात करें तो कांग्रेस को 111 से 149 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है।’
इसके बाद वोट शेयर के आंकड़े हैंः ‘बीजेपी 38.08 फीसदी/कांग्रेस 28.82 प्रतिशत/अन्य 33.1 फीसदी’ इस सर्वे में जो अन्य के हिस्से 33.1 प्रतिशत वोट गया है; वे ‘अन्य’ कौन हैं। और, वे किस वर्गीकरण में आते हैं, स्पष्ट नहीं है। यह 2014 और 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में इस ‘अन्य श्रेणी’ में आने वालों को जो वोट प्रतिशत है उसके वोट पैटर्न के हिसाब से दोगुना है। गठबंधनों के बाद बच रहे कौन सी पार्टियां या व्यक्तिगत प्रतिनिधि हैं, जिनके हिस्से कांग्रेस से अधिक और भाजपा से थोड़ा ही कम वोट हासिल हो रहा है? इस बारे में सर्वे का जो रिपोर्ट छापा गया है, उससे पता नहीं चलता है।
दूसरी समस्या, भाजपा के पिछले चुनाव के मुकाबले वोट प्रतिशत में गिरावट हुई, लेकिन सीटों की जीत कोई खास कमी होते हुए नहीं दिख रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 45 प्रतिशत और भाजपा का वोट प्रतिशत 37.76 प्रतिशत था। यदि सर्वे केवल भाजपा को वोट बताता तब तो यह माना जा सकता है कि वोट में थोड़ी बढ़ोत्तरी हो रही है, इसलिए सीटों की संख्या बढ़ सकती है। इसी तरह कांग्रेस का वोट प्रतिशत में यह साफ नहीं है कि इसमें कांग्रेस की हिस्सेदारी कितनी है।
यहां इतना स्पष्ट करना जरूरी है कि 2019 में कांग्रेस को 19.49 प्रतिशत वोट मिला था, जिससे उसे 52 सीटों पर जीत मिली थी। 2014 में उसे 19.31 प्रतिशत वोट मिला था और उसे 44 सीटों पर जीत मिली थी। इस आंकड़े में महज 0.18 प्रतिशत वोट की बढ़ोत्तरी कांग्रेस को चार सीटों पर बढ़त दिला दिया। इसी तरह, यदि हम भाजपा के 2014 के वोट प्रतिशत पर नजर डालें, तब मात्र 31 प्रतिशत वोट की बदौलत 282 सीटा पर जीत दर्ज किया था। ऐसे में वोट प्रतिशत का बदलना, खासकर विपक्ष के संदर्भ में तेजी से सीटों की जीत में बदलते हुए देखा जा सकता है। खुद भाजपा के चुनाव नतीजों के इतिहास को देखें तब वहां थोड़े से वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी भाजपा के सीटों तिव्र बढ़ोत्तरी को दिखाता है। ऐसे में, या तो सर्वे के लिए चुने गये समूहों में कहीं खामी का अनुमान लगता है या इससे निकाले गये निष्कर्ष समस्याग्रस्त हैं।
यहां यह बात ध्यान में रखनी होगी कि कई बार संकेतकों का चुनाव भी गलत निष्कर्षों तक ले जा सकते हैं। यदि हम उत्तर-प्रदेश में सर्वे करते समय शांति जैसे संकेतकों का प्रयोग करें तब निश्चय ही निष्कर्ष भाजपा के पक्ष में जाएगा, क्योंकि आंकड़े और बहुसंख्यक आबादी की सांख्यिकी से इस निष्कर्ष तक पहुंचन के लिए कोई बाधा नहीं है। लेकिन यदि हम शिक्षा, रोजगार, आय और कानूनी सुरक्षा को संकेतक बना लें तब निष्कर्ष अलग निकलेंगे।
उत्तर-प्रदेश में सारे दावों के बाद भी शिक्षा, खासकर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति संतोषजनक नहीं है। प्रदेश के भीतर और प्रदेश से बाहर जाने वाले प्रवासी मजदूरों की कुल संख्या लगभग 7 करोड़ तक पहुंच चुकी है। शहरों के विकास की वृद्धि दर और कुल सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि पिछले वर्षों के अनुपात में कम रह रहा है। जितने बड़े पैमाने पर निवेश दिख रहा है उस अनुपात में श्रम भागीदारी नहीं दिख रही है। ये वे संकेतक हैं, जिनसे परिवार और व्यक्ति की अर्थव्यवस्था में स्थिरता और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की संभावना प्रबल होती है।
ये संकेतक वोट सर्वेक्षण में कई बार अपनी प्रभावशीलता दिखा चुके हैं। यदि हम उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव 2007 और 2012 के चुनाव परिणामों को देखें तब हम बसपा को 206 सीट से नीचे गिरकर 80 सीट पर सिमटते हुए देख सकते हैं। इस हार को लेकर कई सारे सर्वेक्षण और बाद में हुए शोध बताते हैं कि दलित और ओबीसी समुदाय की बसपा से नाराजगी उपरोक्त संकेतकों को लेकर थी। उसे विशाल डा. आंबेडकर पार्को, मूर्तियों और बहुजन संस्कृति आधारित उद्यानों से अधिक रोजगार और बच्चों की सुनिश्चतता की जरूरत थी।
बहुत हद इस तरह के प्रभावों को शाईनिंग इंडिया को लेकर भाजपा द्वारा बहुप्रचारित कार्यक्रम को वोट के मोर्चे पर ध्वस्त होने में देखा जा सकता है। आज एक तरफ प्रधानमंत्री देश को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का दावा भले ही कर लें। लेकिन, जब महिला और बाल कल्याण केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी जब लोकसभा को बताती है कि देश की कुल महिला आबादी(15-49 साल) का 57 प्रतिशत हिस्सा खून की कमी और पांच साल तक के बच्चों का 33.8 प्रतिशत हिस्से का सामान्य विकास नहीं हो पा रहा है। तब वह सच्चाई सामने आने लगती है जो विशाल वृक्ष की छाया में बैठे 80 प्रतिशत लोग सूरज की रोशनी का इंतजार कर रहे हैं।
आगामी चुनाव में भाजपा के हिस्से धर्म, संस्कृति, राष्ट्रवाद, एकीकरण जैसे चिन्ह हैं। आगामी चुनाव में उसके बाद विकास का बहुप्रचारित ‘गुजरात मॉडल’ नहीं है। अनाज का वितरण, कृषि सम्मान निधि जैसी परियोजनाएं रोजगार की स्थिरता प्रदान नहीं कर रही हैं। पेंशन नहीं होने से कर्मचारियों में असुरक्षा की भावना बढ़ रही है। मध्यवर्ग मुद्रास्फित और मंहगाई में अपनी आय गंवाते हुए क्षरित हो रहा है और अपनी कुल संख्या में कम हो रहा है।
भारतीय संसदीय राजनीति का वोट पैटर्न सांस्कृति, धार्मिक संकेतकों से निश्चित ही प्रभावित होता है। इसका प्रयोग भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही किया है, लेकिन इन प्रयोगों की बारम्बारता बेहद कम है। लोकसभा में इसकी बारम्बारता ऐसे में एक अंक में ही दिखती है। राज्य का अतिशय प्रयोग से चुनाव जीतने का इतिहास लोकसभा के चुनाव में एक भी नहीं दिखता है। इतिहास, इतिहास है, आगे यह कैसे बढ़ेगा इसका हम अनुमान ही लगा सकते हैं। लेकिन, कभी भी ऐसा नहीं हो सकता कि यह अपने परिमाणों से अतिरिक्त कोई नया परिणाम ला दे। यदि ऐसा होता है तब या तो वह क्रांति होगी या चरम तानाशाही का राज्य होगा। बहरहाल, संकेतक बता रहे हैं कि वोट का पैटर्न पिछले के मुकाबले अलग तरह का होगा और परिणाम भी बेहद अलग दिखेगा।