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विमर्श

पूंजीवादी व्यवस्था ने समाज के साथ बदल डाला हर तरह की सत्ता को, ज्यादातर श्रमिक बन चुके हैं अधिकारविहीन गुलाम

Janjwar Desk
5 Nov 2023 3:15 PM GMT
पूंजीवादी व्यवस्था ने समाज के साथ बदल डाला हर तरह की सत्ता को, ज्यादातर श्रमिक बन चुके हैं अधिकारविहीन गुलाम
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दुनिया के सबसे अमीर पूंजीपति एलन मस्क कहते हैं, समाज ऐसी अवस्था में पहुँच जाएगा, जहाँ किसी को कोई काम करने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि हरेक संभावित कार्य आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा किया जाने लगेगा, वहीं भारत में इनफ़ोसिस के सह-संस्थापक अरबपति एन आर नारायण मूर्ति कहते हैं, देश को तेजी से आगे बढाने का काम अकेले सरकारें नहीं कर सकती हैं, इसके लिए देश के युवाओं को हरेक सप्ताह कम से कम 70 घंटे का श्रम करना होगा...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Capitalist society is ready to replace human labour with robots and artificial intelligence. हाल में ही यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के साथ मुलाक़ात में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति एलोन मस्क ने आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते वर्चस्व के सम्बन्ध में कहा कि जल्दी ही समाज ऐसी अवस्था में पहुँच जाएगा, जहाँ किसी को कोई काम करने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि हरेक संभावित कार्य आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा किया जाने लगेगा। एलोन मस्क के इस वक्तव्य से कुछ दिन पहले ही भारत में इनफ़ोसिस के सह-संस्थापक अरबपति एन आर नारायण मूर्ति ने यूट्यूब पर दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि देश को तेजी से आगे बढाने का काम अकेले सरकारें नहीं कर सकती हैं, इसके लिए देश के युवाओं को हरेक सप्ताह कम से कम 70 घंटे का श्रम करना होगा। उन्होंने आगे कहा कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और जापान के युवाओं ने ऐसा ही किया था।

ये दोनों ही वक्तव्य दुनिया के बड़े पूंजीपतियों द्वारा दिए गए हैं, और दोनों ही मानव श्रम से जुड़े हैं – इन दोनों वक्तव्यों से मानव श्रम के बारे में पूंजीवादी सोच उजागर होती है। इन वक्तव्यों को समझने के लिए पूंजीवाद में श्रमिकों की भूमिका पर विचार करना जरूरी है। औद्योगिकीकरण के शुरुआत में हरेक उद्योगपति को भारी संख्या में श्रमिकों की जरूरत पड़ती थी। शुरुआत में अधिकतर पूंजीपतियों ने श्रमिकों को गुलामों के समतुल्य समझा और वैसा ही बर्ताव किया। श्रमिकों को गुलाम बनाकर एक देश से दूसरे देश इतनी बड़ी संख्या में भेजा गया कि अनेक देशों में समाज का समीकरण ही बदल गया।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ से आने देशों के कानूनों में श्रमिकों को अधिकार दिए गए, जिससे उनकी स्थिति, काम करने की स्थितियां, सुविधाओं और वेतन बेहतर होने लगे। इसके बाद श्रमिक पूंजीपतियों का गुलाम नहीं बल्कि एक कर्मचारी हो गया। जाहिर है, इस दौर में पूंजीवाद पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया, क्योंकि उद्योग या दूसरे कामों में बड़ी संख्या में रोजगार मिलने लगा, और समाज का जीवनस्तर बेहतर होने लगा, पर पूंजीवादी संस्कृति का आधार चंद व्यक्तियों के हाथों में ही शक्ति और पूंजी का केन्द्रीकरण है, जाहिर है पूंजीवादी समाज श्रमिकों के अधिकारों और संपत्ति के वितरण को खतम करने के तरीके ढूंढ रहा था। इस काम में उन्हें पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों का भरपूर साथ मिला।

इसके बाद तमाम उद्योगों में मानव श्रम को कम करने के लिए मशीनों का सहारा लिया गया। इसके बाद कंप्यूटर आया, स्वचालित मशीनें लगने लगीं, इन्टरनेट आया, तमाम सेंसर का विकास हुआ जिसकी मदद से कहीं से भी किसी भी मशीने को नियंत्रित किया जा सकता है, रोबोट्स आये और अब आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का दौर आ गया। इसमें से हरेक विकास के साथ तमाम उद्योगों और दूसरे कार्यों से मानव श्रम को चरणबद्ध तरीके से हटाया जाता रहा, जिसे पूंजीवादी समाज में श्रमिकों की छटनी कहा जाता है। धीरे-धीरे रोजगार के अवसर कम हो गए, पर पूंजीवाद मशीनों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बल पर पहले से भी अधिक बड़ा होता जा रहा है। जाहिर है, धीरे-धीरे पूंजीवादी व्यवस्था में मानव श्रम एक भार जैसा बंटा जा रहा है, दूसरी तरफ श्रमिकों की संख्या और रोजगार के अवसर कम होने के कारण श्रमिकों की आवाज को दबाना आसान हो गया है।

पूंजीवादी व्यवस्था ने समाज के साथ ही सत्ता को भी बदल डाला है – आज के दौर में दक्षिणपंथी, वामपंथी, समाजवादी, साम्यवादी, निरंकुश या तानाशाही कैसी भी सत्ता हो, पर सभी पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में खड़े रहते हैं। पूंजीवाद ने मुक्त व्यापार के नाम पर श्रमिकों के सारे अधिकार ख़त्म करा दिए और आज के दौर में अधिकतर श्रमिक अधिकार विहीन गुलाम बन बैठे हैं।

नारायण मूर्ति ने युवाओं को 70 घंटे काम करने की सलाह दी – यह श्रमिकों को गुलाम समझने और कट्टर पूंजीवादी सोच से अधिक कुछ नहीं है। उन्होंने कह कि हमारे देश में मानव श्रम की उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है, पर दूसरी तरफ इसी उत्पादकता के भरोसे बड़ी बहु-राष्ट्रीय कम्पनियां देश में कारोबार बढ़ा रही हैं। यदि आप हमारे देश में श्रमिकों की स्थितियां और उनके वेतन के सन्दर्भ में देखें तो उनकी उत्पादकता किसी भी देश से अधिक नजर आयेगी। इन सबके बारे में नारायण मूर्ति ने कभी कुछ नहीं कहा। दूसरी तरफ देश में करोड़ों युवा बेरोजगार है, या फिर उनका रोजगार उनकी योग्यता और दक्षता के अनुरूप नहीं है।

नारायण मूर्ति द्वारा सुझाए गए सप्ताह में 70 घंटे काम, यानी हरेक दिन 10 घंटे लगातार काम, या फिर एक साप्ताहिक अवकाश के बाद शेष 6 दिनों में हरेक दिन 11 घंटे 45 मिनट काम। देश में 48 प्रतिशत से अधिक महिलायें हैं, जिनमें से अधिकतर हरेक दिन 14-15 घंटे अपने ही घरों में अवैतनिक काम करती हैं, जिनके योगदान की हमेशा उपेक्षा की जाती है। देश में केंद्र सरकार 81 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज से जिन्दा रखती है, जाहिर है इतनी बड़ी आबादी के पास कोई निश्चित रोजगार नहीं है।

देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी किसान, खेतिहर मजदूर या फिर दिहाड़ी श्रमिक है और यह आबादी सप्ताह में हरेक दिन काम के उपलब्धता के आधार पर काम करती है, और इनके काम की कोई निश्चित अवधि नहीं रहती है। इसके अतिरिक्त जो सरकारी या निजी संस्थानों में आम करते हैं, उनके कार्य की अवधि 40-45 घंटे प्रति सप्ताह है। इतने समय के आधार पर ही उनका वेतन निर्धारित किया जाता है। इनमें से अधिकतर कार्यालयों या संस्थानों में हरेक दिन हरेक कर्मचारी के लिए 8 घंटे का भी पर्याप्त काम नहीं रहता।

यदि नारायण मूर्ति को कार्य उत्पादकता का इतना ही ख्याल है तो उन्हें सरकार को सुझाव देना चाहिए कि हरेक कार्यालय कम से कम दो शिफ्टों में चलाया जाए, इससे बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक दूर करने में मदद मिलेगी। दुनिया में अनेक अध्ययन यह जानने के लिए किये गए हैं कि मनुष्य को कितनी देर तक आम करना चाहिए। लगभग सभी अध्ययनों के निष्कर्ष यही है कि हरेक दिन 8 घंटे काम करना सबसे अच्छा है और इससे लम्बे समय तक काम करने से कार्य उत्पादकता बढ़ती नहीं, बल्कि घटती जाती है।

दूसरी तरफ एलोन मस्क तो मानव श्रम को पूरी तरह से ख़त्म करने की वकालत कर रहे हैं। यह सोच पूंजीवाद की चरम विचारधारा है, जहाँ श्रमिक और कर्मचारियों की कोई जरूरत ही नहीं है। जाहिर है ऐसे दौर में पूंजीवाद पहले से भी अधिक सशक्त होगा और पूरी दुनिया पर इसका ही वर्चस्व रहेगा। अब तो यह बहस छिड़ गयी है कि वह समाज कैसा होगा, जिसमें किसी के पास रोजगार नहीं होगा, जाहिर है आय का साधन भी नहीं होगा।

अधिकतर सामाजशास्त्री मानते हैं कि श्रमिकों और श्रम को केवल बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है, इससे हरेक स्तर पर असमानता बढ़ती है। अब समय आ गया है कि श्रमिकों को भी हरेक स्तर पर नीति निर्धारण में शामिल किया जाए, और उन्हें अपने जीवन और भविष्य को निर्धारित करने का मौका दिया जाए। इससे पूरे श्रमिक समुदाय के लिए सम्मान का जीवन सुनिश्चित किया जा सकेगा। श्रमिक भी एक इंसान होता है, पर पूंजीवाद ने अपनी सुविधा से इसे “मानव संसाधन” का दर्जा दिया है। पूंजीवाद जब संसाधन शब्द का उपयोग करता है तब, इसका परिणाम सभी देख रहे हैं। पूंजीवाद के लिए पूरा पर्यावरण एक संसाधन है, और पर्यावरण के हरेक अवयव हरेक तरीके से बर्बाद करता जा रहा है। प्रजातंत्र में असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है, पर दुखद तथ्य यह है कि हरेक तरीके की असमानता समाज में लगातार बढ़ रही है। मालिक और श्रमिक के बीच पूंजी का बंटवारा नहीं होता, मालिक पहले से अधिक धनवान होता जाता है और श्रमिक पहले से अधिक गरीब।

जिस तरह से 1980 के दशक से लैंगिक समानता पर चर्चा करते करते अब महिलायें देशों को संभालने लगी हैं और बड़ी कंपनियों और बैंकों को संभाल रही हैं, वैसा ही अब हमें श्रमिकों के बारे में सोचना पड़ेगा। दुनियाभर में श्रमिक संगठन खड़े हो गए हैं, पर कहीं भी ये अपने हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पूंजीवाद और सरकार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। इससे श्रमिकों की समस्याएं और पर्यावरण का दोहन – दोनों ही बढ़ गया है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीवन से जुड़े मामलों को किसी भी हालात में बाजार के हवाले नहीं किया जाना चाहिए और दूसरी तरफ हरेक श्रमिक के लिए रोजगार गारंटी की व्यवस्था की जानी चाहिए।

दुखद यही यह है कि सरकारें एक ही भाषण में लोकल को बढ़ावा देती हैं और दूसरी तरफ एफडीआई बढाने की बात करती हैं। एक तरफ जनता को राहत देने की बात करती हैं और दूसरी तरफ हरेक क्षेत्र को पूंजीपतियों की झोली में डाल देती हैं। एक तरफ वसुधैव कुटुम्बकम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ अपने देश के ही करोड़ों श्रमिक सड़कों पर नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर किये जाते हैं। एक तरफ सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बातें की जाती हैं तो दूसरी तरफ देश की केवल एक प्रतिशत आबादी विकास करने लगती है। एक तरफ तो बहु-राष्ट्रीय स्मार्टफोन फैक्ट्री और शोरूम का इतराते हुए उदघाटन किया जाता है तो दूसरी तरफ स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया जाता है। दरअसल, हम पूंजीवाद में इतना रम गए हैं कि श्रमिकों की बस्ती के आगे दीवार खड़ी कर उन्हें अदृश्य कर देते हैं।

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