हाथरस कांड में UP पुलिस ने मुसलमान पत्रकार के रूप में ढूंढ़ा बलि का बकरा, मीडिया की आजादी पर उठ रहे सवाल
मलयालम पत्रकार सिद्धिक कप्पन को यूपी पुलिस ने यूपी दंगों के साजिशकर्ता के बतौर किया है गिरफ्तार
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण
जो निरंकुश शासक होता है वह लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्र मीडिया को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता है। इसी का परिणाम है कि अपने देश में पिछले छह सालों से चल रही उग्र हिन्दुत्व की सरकार ने एक तरफ मीडिया के तमाम स्वरूपों को गोद में बैठाकर ऐसी गोदी मीडिया का झुंड तैयार किया है जो सिर्फ उसके लिए भोंपू की भूमिका निभा सकती है। दूसरी तरफ जो गिने-चुने स्वतंत्र पत्रकार निर्भीकता के साथ आम लोगों के पक्ष में काम कर रहे हैं उनको दुश्मन मान कर उनके साथ शत्रुवत बर्ताव किया जा रहा है।
अगर पत्रकार मुसलमान है तो उसे सीधे तौर पर देशद्रोही घोषित कर दंडित किया जा रहा है। क्रूरता को ही राजधर्म समझने वाले उत्तर प्रदेश के सीएम योगी हाथरस गैंगरेप से हुई अपनी बदनामी को छिपाने के लिए लीपापोती करने के खेल में जुट गए हैं और मुसलमान पत्रकार के रूप में उनकी पुलिस ने बलि का बकरा भी ढूंढ लिया है।
मलयालम समाचार आउटलेट के साथ काम कर रहे दिल्ली के एक 41 वर्षीय पत्रकार और तीन अन्य लोगों के साथ काम कर रहे थे, को बुधवार को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया है और पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और इसके छात्र संगठन कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) के साथ उनके कथित संबंधों के लिए देशद्रोह का आरोप लगाया गया है।
उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस ने सोमवार दोपहर को मथुरा के एक टोल प्लाजा से हिरासत में ले लिया, जबकि वे हाथरस में मृत दलित युवती के परिजनों से मिलने के लिए जा रहे थे, जिसके साथ पिछले महीने चार सवर्णों ने कथित रूप से क्रूरतापूर्वक मारपीट की थी और गैंगरेप किया था।
पत्रकार की पहचान केरलिक यूनियन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (केयूडब्ल्यूजे) के सचिव सिद्दीक कप्पन के रूप में की गई, जो अझिमुखम डॉट कॉम जैसी मलयालम समाचार वेबसाइटों के लिए लिखते हैं। वह वर्तमान में मथुरा पुलिस की निवारक हिरासत में है। कप्पन के अलावा सीएफआई के पदाधिकारी अतीक-उर-रहमान और मसूद अहमद को आलम के रूप में पहचाने गए एक अन्य व्यक्ति के साथ हिरासत में लिया गया है।
यूएपीए मुख्य रूप से एक आतंकवाद विरोधी कानून है - जिसका उद्देश्य 'व्यक्तियों और संगठनों की कुछ गैरकानूनी गतिविधियों की अधिक प्रभावी रोकथाम और आतंकवादी गतिविधियों से निपटना' है।
कप्पन केरल के रहने वाले हैं और वर्षों से दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाके में रह रहे हैं। रहमान मुजफ्फरनगर निवासी हैं। अहमद बहराइच निवासी हैं और आलम रामपुर के रहने वाले हैं।
मथुरा के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, 'पूछताछ के दौरान इन लोगों ने कहा कि वे पीड़ित परिवार से मिलने के लिए दिल्ली से हाथरस की यात्रा कर रहे थे, और परिवार की आवाज़ उठाना चाहते थे और उन्हें न्याय दिलाना चाहते थे।'
एसएसपी मथुरा गौरव ग्रोवर ने बताया, 'सोमवार सुबह मंट टोल प्लाजा पर एक जांच के दौरान हमें एक स्विफ्ट डिजायर कार की गतिविधि संदिग्ध लगी। हमने चार व्यक्तियों से पूछताछ की और उन्हें सीआरपीसी धारा 151 के तहत प्रतिबंधात्मक गिरफ्तारी में लिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि वे हाथरस की ओर जा रहे थे। जबकि उनके खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है। पूछताछ के दौरान उन्होने कहा कि वे पीएफआई और सीएफआई से संबंधित हैं।'
मथुरा पुलिस ने लैपटॉप, फोन और साथ ही विरोध से संबंधित साहित्य जब्त करने का दावा किया है जो क्षेत्र में कानून और व्यवस्था को प्रभावित कर सकता है।
समाचार पोर्टल अझिमुखम डॉट कॉम के संपादक के एन अशोक ने कहा है, 'कप्पन जनवरी से दिल्ली-एनसीआर में हमारे लिए लिख रहे हैं। सोमवार को उन्होंने मुझे यह कहते हुए मैसेज भेजा कि वह एक रिपोर्ट के लिए हाथरस जा रहे हैं। मुझे नहीं पता कि उनके साथ तीन लोग कौन हैं। हमने कल शाम उनको फोन करने की कोशिश की, लेकिन हम बात नहीं कर पाए। बाद में हमें पता चला कि उन्हें मथुरा पुलिस ने हिरासत में लिया है।'
केयूडब्ल्यूजे के पूर्व सचिव, पत्रकार मणिकंतन ने कहा कि कप्पन को दोपहर 2 बजे टोल प्लाजा से हिरासत में लिया गया। मणिकंतन ने कहा, 'कप्पन ने इस साल अझिमुखम डॉट कॉम के लिए लिखना शुरू किया। उनका पीएफआई से कोई जुड़ाव नहीं है। इससे पहले वह थेज के लिए लिखते थे, जो पीएफआई का मुखपत्र है। यह वित्तीय संकट के कारण 2018 में बंद हो गया और उन्होने अपनी नौकरी खो दी। फिर उन्होंने थलसमयम नामक एक अन्य समाचार पत्र के लिए काम करना शुरू कर दिया, जो कि पिछले साल बंद हो गया था।'
इस बीच केयूडब्ल्यूजे की दिल्ली इकाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कप्पन की नजरबंदी के विरोध में एक पत्र लिखा है। संघ की दिल्ली इकाई ने कहा, 'हमने एक पत्रकार की अवैध हिरासत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की है जो अपना काम कर रहा था। हमारे देश का संविधान प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। कप्पन की गिरफ्तारी संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन है।'
केयूडब्ल्यूजे के अध्यक्ष मिजी जोस द्वारा हस्ताक्षरित उत्तर प्रदेश सीएम के नाम लिखे पत्र में कहा गया है, 'वह केयूडब्ल्यूजे के सचिव है और सोमवार सुबह हाथरस गए थे ताकि क्षेत्र की वर्तमान स्थिति को कवर किया जा सके। हम समझते हैं कि उन्हें हाथरस टोल प्लाजा से यूपी पुलिस ने हिरासत में लिया था। हम और दिल्ली स्थित कुछ अधिवक्ता उनसे संपर्क करने के प्रयास में सफल नहीं हुए हैं।'
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने भी एक बयान जारी कर कहा, 'कप्पन को बिना देरी किए रिहा किया जाना चाहिए। यह हमारी आशंका है कि योगी आदित्यनाथ सरकार त्रासद हाथरस घटना की लीपापोती करने के लिए अपने स्पष्ट रूप से कथित षड्यंत्र सिद्धांत के साथ पुलिस और प्रशासन के कई संदिग्ध, संभवतः आपराधिक कार्यों और हाथरस त्रासदी पर राजनीतिक नेतृत्व की चुप्पी से ध्यान हटाने के लिए डायवर्सन रणनीति अपनाएगी।'
बहराइच में एडिशनल एसपी के. ज्ञानंजय सिंह ने कहा: 'मसूद अहमद (23) के रूप में पहचाना गया युवक जारवाल इलाके का निवासी है। पीएफआई, सीएफआई और एसडीपीआई जैसे संगठन धार्मिक तनाव को उकसाने की समान विचारधारा पर काम करते हैं, दंगों को उकसाते हैं, शांति को बाधित करते हैं। इस व्यक्ति को मथुरा में हिरासत में लिया गया है। पूर्व में भी हमने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भूमि पूजन के दौरान दंगे शुरू करने की कोशिश के लिए पीएफआई और एसडीपीआई से जुड़े लोगों को जारवाल इलाके से गिरफ्तार किया हैं।'
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की 180 मजबूत देशों की सूची में भारत तीन पायदान फिसलकर 136 वें स्थान पर आ गया है। इससे पहले भारत 133 वे स्थान पर था। पिछले सात सालों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो भारत में स्थिति चिंताजनक है। साल 2012 में 74, 2013 में 73 2014 में 61, 2015 में 73 , 2016 में 48, 2017 में 46 और 2018 में अब तक 14 पत्रकारों ने काम के वक्त अपनी जान गंवाई है। पिछसे सात सालों में 389 पत्रकारों की जान केवल भारत में गई है।
बड़े शहरों से इतर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में पत्रकारों की जान पर अधिक जोखिम है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के आंकड़ों मुताबिक साल 2015 से लेकर अब तक करीब 142 पत्रकार हमलों का शिकार हो चुके हैं। वहीं साल 1992 से लेकर 2016 के बीच करीब 70 पत्रकार मारे गए थे। इनमें से अधिकतर स्वतंत्र पत्रकार थे जिनकी हत्या इनके घर या दफ्तर के पास की गई।
कई मामलों में पत्रकारों पर होने वाले हमलों की रिपोर्ट इसलिए भी नहीं होती क्योंकि उन्हें स्थानीय नेता, पुलिस या रसूखदार लोगों से धमकियां मिलती हैं। हाईप्रोफाइल पत्रकार गौरी लंकेश की बेंगलूरु में हुई हत्या ने देश में प्रेस की आजादी से जुड़े सवालों को फिर उठा दिया। लंकेश की हत्या पर तमाम बातें और बहसें हुईं लेकिन जमीनी स्तर पर अब तक कुछ नहीं बदला है।
लंकेश की मौत के बाद भी पत्रकारों पर हमले कम नहीं हुए। इसके बाद केरल के पत्रकार संजीव गोपालन को कथित तौर पर पुलिस वालों ने न केवल पीटा बल्कि पत्नी और बेटी के सामने उनके कपड़े उतार दिए। कहा जा रहा था कि पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में कुछ ऐसा लिखा था जिससे पुलिस असहज हो गई थी। इसके बाद एक अन्य मामले में बांग्ला भाषा में पत्रकारिता करने वाले संदीप दत्त भौमिक को त्रिपुरा में गोली मार दी गई थी।
माओवाद प्रभावित छ्त्तीसगढ़ और विवादों में रहने वाले कश्मीर में, सरकार के खिलाफ आवाज उठाना खतरनाक साबित हो सकता है। सोमरु नाग और संतोष यादव नाम के दो पत्रकारों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। छत्तीसगढ़ के एक स्थानीय अखबार में काम करने वाले इन पत्रकारों को राजद्रोह के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस का आरोप था कि ये पत्रकार माओवादियों के दूत के रूप में काम करते हैं और उनके पक्ष में रिपोर्ट छापते हैं। इस मामले को यादव को 18 महीने जेल में बिताने पड़े और फिर उन्हें छोड़ा गया।
पत्रकारों के लिए ऐसी गिरफ्तारी आम हो गई है। कश्मीर के फोटो जर्नलिस्ट कामरान यूसुफ को छह महीने जेल में बिताने के बाद जमानत पर रिहा किया। इन पर भारत के खिलाफ युद्ध भड़काने और पत्थरबाजी का आरोप था। द इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का कहना है कि कश्मीर में काम करने वाले पत्रकार डर और जोखिम के बीच काम करते हैं क्योंकि इस इलाके में सक्रिय तमाम पार्टी उन्हें धमकियां देती रहतीं हैं।
कट्टर हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ एक मुखर और मजबूत आवाज पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या ने देश और दुनिया को भयभीत कर दिया। इससे इस आशंका की पुष्ट हो गई कि निर्भीक पत्रकारिता करना खतरों से भरा है। पत्रकारों को न सिर्फ सत्ता माफियाओं से खतरा है बल्कि प्रभुत्वशाली सत्ताधारियों के अंधभक्तों से भी उतना ही खतरा है। बलात्कारी बाबा राम रहीम को सजा सुनाए जाने के बाद उग्र भीड़ ने एक पत्रकार का सिर फोड़ दिया, कई चैनलों की ओबी वैन खाक कर दी, एक का पैर तोड़ दिया।
मीडिया एवं पत्रकारों की स्वतंत्रता पर निगरानी रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा बहस के जरिये देशप्रेम के मानक तय करने की कोशिश के कारण मुख्यधारा के मीडिया में सेल्फ-सेंसरशिप की प्रवृत्ति बढ़ रही है। रपट में कहा गया कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों ने पत्रकारों को लक्षित करके बार-बार ऐसी धमकी दी है। रपट में गौरी लंकेश और शांतनु भौमिक की हत्या का संदर्भ देते हुए कहा गया है कि यह धमकियां कई बार मौत में भी तब्दील हो गईं।
रपट में मोदी सरकार से आग्रह किया गया है कि उसे लक्षित पत्रकारों के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करना चाहिए और इस प्रकार के नफरत संदेशों की स्पष्ट रूप से निंदा करना चाहिए। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरडब्ल्यूबी) द्वारा 'मोदी के राष्ट्रवाद से ख़तरा' शीर्षक से जारी एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्ववादियों द्वारा 'देशद्रोह' की बहस के चलते मुख्यधारा के मीडिया में सेल्फ-सेंसरशिप बढ़ रही है। प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संस्था की ओर से किए गए अध्ययन में कहा गया कि 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है।