महत्वपूर्ण लेख : भारत में MSP को वैधानिक मान्यता देना ही एकमात्र विकल्प
देविंदर शर्मा का आलेख
वह 2003 का साल था, जब चार पश्चिमी और मध्य अफ्रीकी देशों - बेनिन, बुर्किना फासो, चाड और माली के राष्ट्राध्यक्षों ने विश्व व्यापार संगठन को एक संयुक्त प्रस्ताव लिख कर दिया और इसमें अमेरिका व यूरोपीय यूनियन समर्थिक कपास सब्सिडी को हटाने को कहा गया, क्योंकि वह वैश्विक कीमतों को कम करता है। उसी समय न्यूयाॅर्क टाइम्स में प्रकाशित एक हस्ताक्षरित पत्र में इन नेताओं ने कहा कि आपकी सब्सिडी हमारे किसानों का हत्या करती है। इससे एक अंतरराष्ट्रीय विवाद उत्पन्न हुआ और अंततः यह कैंकम डब्ल्यूटीओ कान्फ्रेंस के पतन का कारण बना।
यह एक विशिष्ट घटना कई मायनों में ऐतिहासिक है। यह मौजूदा दौर में चल रही बहस कि किसानों को दिए जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य - एमएसपी अंतरराष्ट्रीय कीमतों से बहुत अधिक है से सीखने के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है। इसके अतिरिक्त यह हमें यह समझने का मौका देता है कि अंतरराष्ट्रीय कीमतों को लेकर कुछ भी पवित्र नहीं है। जैसा कि कपास की सब्सिडी के विवादस्पद मुद्दे पर समृद्ध विकसित देशों के लिए पश्चिमी अफ्रीकी चुनौती ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया कि दुनिया के दूसरे हिस्से में किसानों की आजीविका को प्रभावित करने वाले बाजार मूल्यों को कितनी आसानी से जोड़ दिया गया है।
कई अध्ययनों, जिसमें आॅक्सफेम इंटरनेशनल, इंटरनेशनल फूड पाॅलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट एवं कैथोलिक सोशल जस्टिस ऑर्गेनाइजेशन - सीआइडीएसइ शामिल हैं के अध्ययनों ने इस मुद्दे का गहराई से विश्लेषण किया है। इसके अनुसार, अमेरिका ने 1998 से 2002 के बीच केवल चार सालों में 14.8 बिलियन डाॅलर 21.6 बिलियन डाॅलर मूल्य के कपास के सब्सिडी के लिए खर्च किया गया था। कुछ अन्य न्यूज रिपोर्टाें में दिखाया गया है कि कैसे कपास खरीदने के लिए हर साल 1.7 बिलियन डाॅलर सब्सिडी कपास के लिए दी जाती है ताकि टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज सब्सिडाइस्ड कपास खरीद सकें। इसने कपास की वैश्विक कीमतों में कमी लायी और पश्चिमी अफ्रीका के कपास किसानों को आर्थिक नुकसान झेलने को विवश किया।
अध्ययनों से पता चला कि यदि इस कपास सब्सिडी को हटा दिया गया होता तो अमेरिका में लगभग 25 हजार कपास उत्पादकों को प्रति एकड़ 871 डाॅलर का औसत नुकसान होता। वहीं दूसरी ओर, चार पश्चिम अफ्रिकी देशों (जिन्हें काॅटन - 4 के नाम से जाना जाता है) में हुए आर्थिक नुकसान की कल्पना करें, जहां वैश्विक कपास उत्पादक भूमि का मात्र 4 प्रतिशत है लेकिन वे निर्यात पर काफी अधिक निर्भर हैं। कम अंतरराष्ट्रीय कीमतों का मतलब अफ्रीकी कपास उत्पादकों के लिए कम कीमत की प्राप्ति थी। विकासशील और कम विकासशील देशों के कपास उत्पादकों पर कृत्रिम रूप से कम अंतरराष्ट्रीय कीमतों का क्या प्रभाव पड़ता है, यह विश्व बैंक के एक अन्य अध्ययन द्वारा बताया गया है जिसमें कहा गया है कि कपास की कीमत में 40 प्रतिशत की गिरावट से कृषि आय में 21 प्रतिशत की कमी आती है। कृषि आय में कमी से गरीबी में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
इसके बाद ब्राजील द्वारा अमेरिकी कपास सब्सिडी के खिलाफ केस फाइल किए जाने के बाद इस मामले में डब्ल्यूटीओ के विवाद निबटारा पैनल ने 2005 में यह स्वीकार किया कि कपास की कुछ सब्सिडियां वास्तव में कपास की वैश्विक कीमतें कम करती हैं।
नन प्राफिट इंस्टीट्यूट फोर एग्रीकल्चर एंड ट्रेड पाॅलिसी - आइएटीपी के सोफिया मर्ली और करने हेंसन कुह्न ने एक अन्य दिलचस्प अध्ययन कृषि वस्तुओं की वैश्विक बाजार में डंपिंग पर आने वाले लागत पर किया, जिनमें गेहूं, मकई, सोयाबीन, चावल और काॅटन शामिल हैं और जिनका निर्यात अमेरिका ने किया था। आइएटीपी के संस्थापक मार्क रिची द्वारा शुरू की गयी इस शोध परियोजना ने निश्चित रूप से यह समझने में महत्वपूर्ण योगदान किया कि डंपिंग वैश्विक व्यापार को कैसे प्रभावित करता है।
इसके अनुसार, 2017 में अमेरिका एक ऐसे मूल्य पर गेहूं का निर्यात कर रहा था जो उसके वास्तविक उत्पादन मूल्य से 38 प्रतिशत कम था। इसी प्रकार वह कपास का निर्यात लागत मूल्य से 12 प्रतिशत कम पर कर रहा था। मकई का निर्यात मूल्य लागत से नौ प्रतिशत कम और सोयाबीन का चार प्रतिशत कम था। शोधकर्ताओं ने इसमें एक सुसंगत पैटर्न भी देखा कि बीच के कुछ सालों को छोड़ कर अमेरिका ने इन वस्तुओं को ढाई दशक से अधिक समय तक डंप किया।
जितना डंपिंग का आकार होता है, उससे उनमें सब्सिडी की भूमिका भी स्पष्ट होती है जो अक्सर छिपी होती है व अंतरराष्ट्रीय कीमतों को कम करती है। 2018 में ओइसीडी देशों में जिसमें सबसे अमीर व्यापारिक गुट शामिल थे ने 246 बिलियन डाॅलर की सब्सिडी प्रदान की। अनुचित व्यापार प्रथाओं के साथ इन सब्सिडी ने मूल्य अस्थिरता को लेकर विकसित देशों के किसानों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभायी है। इसमें कपास एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
अभी हाल में आइएटीपी के एक अध्ययन 'मेकिंग द प्लेनेट' में व्याख्यायित किया गया है कि कैसे प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए यूरोपीय डेयरी निगम सस्ते डेयरी उत्पादों को डंप कर रहे हैं और बदले में विकासशील देशों के छोटे डेयरी फार्माें को कारोबार से बाहर कर रहे हैं। यूरोपीय संघ के साथ अमेरिका भी दूध और दूध उत्पादों पर भारी सब्सिडी दे रहा है। 2017 में विश्व व्यापार संगठन के सामने भारत और चीन ने कहा डेयरी साथ ही चीनी उत्पादों को एक दशक से अधिक समय से उच्च उत्पाद समर्थन जारी है। इसी तरह यूरोपीय संघ मक्खन के उत्पादन के लिए 71 प्रतिशत और स्कीम्ड मिल्क पाउडर के लिए 67 प्रतिशत मूल्य उत्पाद विशिष्ट सब्सिडी का समर्थन प्रदान करता है जिससे वैश्विक कीमतों में गिरावट आ रही है।
वास्तव में बड़े पैमाने पर सब्सिडी को छिपाने वाली छद्म कीमतें अमेरिका में दी जा रही गेहूं सब्सिडी पर सावधानीपूर्वक नजर डालती है। गैर लाभकारी पर्यावरणीय कार्य समूह - EWG के अनुसार, अमेरिका ने 1995 से 2019 के बीच गेहूं उत्पादकों को 47.8 बिलियन की सब्सिडी दी है। ये सब्सिडी वास्तव में उत्पादन को प्रोत्साहित करती हैं जिससे बाजार की कीमतें कम होती हैं। बड़ी व्यापारिक एजेंसियां इस प्रक्रिया में लाभ कमाती हैं। इसके अलावा इस बात को समझने की आवश्यकता है कि अगर बाजार अमेरिका में गेहूं उत्पादकों को अधिक कीमत दे रहा तो मैं इसमें कोई वजह नहीं दिखती है कि अमेरिका को वर्षाें गेहूं उत्पादकों को इतनी बड़ी सब्सिडी प्रदान करनी चाहिए।
यदि अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, कनाडा और बड़े उत्पादक कृषि वस्तुओं के निर्यात को सब्सिडी दे सकते हैं या लागत मूल्य से कम कीमत पर उसे निर्यात कर सकते हैं तो भारतीय किसानों को इसके लिए दंडित क्यों किया जाना चाहिए? इसलिए अंतरराष्ट्रीय कीमतों को घरेलू किसानों के लिए एमएसपी तय करने के लिए एक बेंचमार्क के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वैश्विक कीमतों की परवाह किए बिना घरेलू कृषि आय समाज के अन्य वर्गाें के समान अनुपात में बढे। इसकी शुरुआत किसानों के लिए एमएसपी को वैधानिक अधिकार बनाकर की जा सकती है, जिसकी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने पहले ही सिफारिश की थी। और आय में कमी को डायरेक्ट इनकम सपोर्ट बढाकर पूरा करे ताकि आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार किया जा सके।