विमर्श

कश्मीर की डॉमिसाइल नीति बदलने से वहां के मूलवासियों की बेदखली का बढ़ा खतरा

Janjwar Desk
6 Aug 2020 3:52 AM GMT
कश्मीर की डॉमिसाइल नीति बदलने से वहां के मूलवासियों की बेदखली का बढ़ा खतरा
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भारत शासित कश्मीर में एक गैरचुनी नौकरशाही सरकार द्वारा भारतीय नागरिकों को डॉमिसाइल प्रमाणपत्र देना शुरू करने के साथ, कश्मीरी लोगों का प्रतिस्थापन शुरू हो चुका है...

मिर्ज़ा साइब बेग का विश्लेषण

26 जून को नवीन चौधरी, एक सरकारी अधिकारी, भारत प्रशासित कश्मीर के "डॉमिसाइल" के रूप में प्रमाणित होने वाले 25000 लोगों के बैच में पहला भारतीय बन गया। बिहार में जन्मे और अब इस 'केंद्र शासित प्रदेश' के डॉमिसाइल के रूप में पहचाने जाने वाले चौधरी कई सालों से जम्मू कश्मीर सरकार में कार्य कर रहे हैं। यह पिछले साल तक अर्ध-स्वायत्त राज्य माने जाने वाले राज्य में भारत सरकार द्वारा उठाए कई अवैध और असंवैधानिक परिवर्तनों की श्रंखला के बाद अपेक्षित ही था।

पिछले साल भारत द्वारा एकतरफा कश्मीर की आंशिक स्वायत्तता समाप्त करने और क्षेत्र पर एक तरह से कब्ज़ा करने के बाद, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वह एक 'नया' जम्मू कश्मीर बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। यहां वह उस नारे की नकल कर रहे थे जो कश्मीर में सामंतवाद के खिलाफ मुक्ति का विचार था, और भारत के अस्तित्व में आने से भी पहले जन्मा था। पिछले कुछ महीनों ने स्थापित कर दिया है कि मोदी का नया कश्मीर केवल और केवल कश्मीरियों का अशक्तीकरण करेगा।

अशक्तीकरण का यह सिलसिला मोदी के साथ नहीं शुरू हुआ, पर लिबरल भारतीय ऐसा मानते हैं कि कोविड-19 से भी खराब बीमारी ने भारत को जकड़ लिया है और देश को पूरी तरह से बदल रहा है। गहराई से देखें तो मोदी ने भारत को नहीं बदला, उन्होंने बस इसे बेनकाब किया है। कश्मीर में अधिकारों का योजनाबद्ध हनन नया नहीं है। कश्मीरियों को दबाने और नीचा दिखाने का भारतीयों ने हमेशा उत्सव मनाया है, जो दिखाता है कि मोदी ने भारत को नहीं बनाया, बल्कि बात इससे उलट है। 'नया कश्मीर' का नारा जो की कश्मीर के इतिहास का एक बुनियादी पल है, का मोदी द्वारा हथियाए जाने का उद्देश्य सिर्फ ज़ख्मों पर नमक छिड़कना है। पर बात यहां ख़तम नहीं होती।

पिछले महीने कश्मीर की गैर चुनी, नौकरशाही सरकार ने कश्मीरी अधिवास (डॉमिसाइल) प्रमाणपत्र भारतीय नागरिकों को जारी करने के लिए प्रक्रियागत नियमों को अधिसूचित किया। अब कश्मीरी लोगों का प्रतिस्थापन शुरू हो चुका है। कहें तो, 'कानूनी मान्यता-प्राप्त कश्मीरियों' के नये वर्गों की – नये कश्मीरी – की रचना। नये नियमों के अनुसार इन 'कश्मीरियों' के बच्चे भी कश्मीरी अधिवासी माने जा सकते हैं, भले वह कश्मीर में कभी नहीं रहे हों। इसी के साथ जो मूल कश्मीरी कत्लेआम से बचने के लिए भागे थे, को लौटने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जम्मू एंड कश्मीर ग्रांट ऑफ परमिट ऑफ रीसेटलमेंट एक्ट, 1982 निरस्त हो चुका है।

मोदी से इशारा लेकर भारत के हिंदू वर्चस्ववादियों ने 'एक राष्ट्र, एक लोक, एक संस्कृति' का राग अलापना फिर से शुरू किया है। कश्मीर में नये अधिवासी नियम इस एकरूपता की परियोजना का हिस्सा हैं, जिनका लक्ष्य एक तरह की समस्याओं और इच्छाओं-आकांक्षाओं वाले लोगों के समूह को रचना है। वह लोग जिनकी समस्याएं और इच्छाएं-आकांक्षाएं इनके जैसी नहीं हैं, वह इस समूह का हिस्सा नहीं हैं इसलिए 'दूसरे' हैं, अलग हैं। पिछले 72 सालों में कश्मीरियों को नियमित रूप से उनके इस संयुक्त 'दूसरेपन' की याद दिलाई जाती रही है।

ब्रिटिश भारत में, रियासतें प्रत्यक्ष अंग्रेजी शासन के अधीन नहीं थीं। उन्हें स्वायत्तता थी और उनके स्थानीय शासक हुआ करते थे। जम्मू एवं कश्मीर इन रियासतों में सबसे बड़ा था और भारत में शामिल होने से पहले इसके डोगरा हिंदू शासक महाराजा हरि सिंह ने क्षेत्र के लिए कानून बनाये। 1927 में उन्होंने 'नागरिक अधिसूचना' पारित की थी जिसमें राज्य के नागरिकों को कुछ विशेषाधिकार थे।

भारत में संदेहास्पद परिस्थितियों में शामिल किए जाने के बाद, कश्मीरी लोग जो एक संप्रभु सत्ता के नागरिक थे, को भारतीय प्रशासन के तहत आने वाले एक स्वायत्त राज्य के "स्थायी निवासी" (परमानेंट रेज़िडेंट' बनाया गया, जनमत संग्रह (प्लेबिसाइट) कराये जाने तक और आज कश्मीरियों को बिना उनकी मंज़ूरी के नई दिल्ली के सीधे शासन के तहत एक केंद्र शासित प्रदेश के 'डॉमिसाइल' बना दिया गया है।

निवासी कानूनों में हाल में किये गये यह परिवर्तन भारत से स्वतंत्र रियासत कश्मीर के इतिहास को मिटाने जैसा है – यह एकरूपता रचने की परियोजना है ताकि एक कश्मीरी और एक भारतीय नागरिक में कोई कानूनी फर्क न रहे।


अब आगे क्या होगा?

भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम की तरह ही, जो एक तरह से भारतीय मुस्लिमों को नागरिकता से वंचित कर देता है, कश्मीर में लाए गए अधिवासी नियम कश्मीर की मूल आबादी के कमज़ोर तबकों जैसे गुज्जर-बकरवाल, प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोग आदि को हानि पहुंचाएगी, जिनके पास नये नियमों के तहत डॉमिसाइल के रूप में पहचाने जाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों तक पहुंच नहीं है।

डॉमिसाइल प्रमाणपत्र जम्मू एवं कश्मीर में रोज़गार और शिक्षा के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। यह कश्मीर की मूल आबादी को बेदख़ली, बेरोज़गारी और अंतत: विस्थापन के खतरे में डाल देगा अगर वह डॉमिसाइल की नयी दस्तावेज़ी कसौटी पर पूरे नहीं उतरते, चाहे हेर-फेर से या फिर कानून की योजना के तहत। आबादियों के ऐसे स्थानांतरिण को रोम स्टेचूट ऑफ इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के तहत युद्ध अपराध और चौथी जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन माना जा सकता है।

अधिवासी या डॉमिसाइल की उपाधि एक क्षेत्र में स्थायी निवासी होने की पहचान है। जम्मू एवं कश्मीर का 'स्थायी निवासी प्रमाणपत्र' (परमानेंट रेज़िडेंट सर्टिफिकेट) निवास के लिए इस कानूनी मान्यता को पहले से ही स्थापित कर चुका है। इसका कोई तुक नहीं है कि पहले से स्थायी निवासियों के रूप में पहचाने लोगों से अब अधिवासी प्रमाणपत्र (डॉमिसाइल सर्टिफिकेट) प्राप्त करने को कहा जाएं। यह स्थायी निवासियों की पुन:पुष्टि की गोलमोल प्रक्रिया नज़र आती है, जो कई मायने में भारत के विवादास्पद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और सीएए के जैसी ही है, जिसने अभी से लाखों लोगों को दस्तावेज़ीकरण की कसौटी को संतुष्ट न कर पाने के कारण राज्यविहीन करार दिया गया है।

ऐसा इसलिए नहीं कि वह गैरकानूनी निवासी हैं। अधिकांश कई दशकों से भारत में रह रहे हैं और कई तो भारत में ही पैदा हुए हैं। पर अधिकांश गरीबों और कमज़ोर, बेघर, भुखमरी के शिकार लोगों के लिए अपनी नागरिकता साबित करने के दस्तावेज़ रख पाना भी बेहद मुश्किल है।

कानून और संविधान

स्थायी और गैर-स्थायी निवासियों के बीच फर्क करने की ज़रूरत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि दशकों पुरानी है। कश्मीरी पंडितों ने राज्य प्रशासन में पंजाबियों को लाने के खिलाफ आंदोलन किया था, जिसके कारण 1927 में हरि सिंह ने कानून बनाया। इसके तहत स्थायी निवासियों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे, खासकर रियासत में ज़मीन खरीदने और रोज़गार के संबंध में।

यह सुरक्षा कवच मुख्य रूप से क्षेत्र के गैर-मुस्लिम लोगों के लिए था क्योंकि सुधार की आम कल्पना में मुस्लिम शामिल नहीं थे। डोगरा राज ने एक हिंदू राज्य स्थापित किया था जहां शासन की प्रकृति और सुधार मुख्य रूप से ब्राह्मणवादी थे।

1954 में, राष्ट्रपति के एक आदेश से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए ने कश्मीर विधायिका को अपने स्थायी निवासी परिभाषित करने को अधिकृत किया। सभी चिन्हित निवासियों को स्थायी निवासी प्रमाणपत्र दिया गया जो उन्हें रोज़गार, छात्रवृत्ति, अन्य विशेषाधिकार देता था। पर स्थायी निवासियों के लिए सबसे बड़ा लाभ था कि केवल उन्हीं के पास राज्य में ज़मीन का मालिकाना अधिकार, अर्थात संपत्ति खरीदने का अधिकार था। सभी नागरिक और वह लोग जो 14 मई 1954 से दस साल पूर्व से राज्य में रह रहे थे, कानून के अस्तित्व में आने के बाद स्थायी निवासी माने गये।

जब जम्मू एवं कश्मीर का संविधान पारित हुआ, भाग III सेक्शन 6 ने स्थायी निवासियों को परिभाषित करने का अधिकार राज्य के पास ही रखा। यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा भारतीय संविधान या भारत सरकार की मंज़ूरी से नहीं बनी थी। यह राज्य ने खुद, दोनों से स्वतंत्र होकर, बनाई थी, कश्मीर के प्रथम प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सलाह पर महाराजा की 1 मई 1951 की घोषणा के तहत।

भारतीय संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके तहत जम्मू कश्मीर का संविधान समाप्त हो जाए, यह राज्य की संविधान सभा की मंज़ूरी और सहमति से ही हो सकता है। इस तरह, कानूनी रूप से सेक्शन 6 लागू रहेगा ही, भले ही भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35ए न रहे, क्योंकि सेक्शन 6 अपनी मान्यता अनुच्छेद 35ए से नहीं लेता। (अनुच्छेद 370, जो कश्मीर को आंशिक स्वायत्तता देता था, की तरह अनुच्छेद 35ए कश्मीर और भारत की सरकारों के बीच करार का प्रतिनिधि है। अनुच्छेद 370 परिग्रहण का साधन था और अनुच्छेद 35ए दिल्ली समझौते का प्रतिनिधित्व करता है।)

सवाल यह है: भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35ए के होने का औचित्य क्या है जब इस पहलू को पहले से जम्मू एवं कश्मीर के संविधान के सेक्शन 6 में कवर किया जा चुका है? जवाब है: अनुच्छेद 35ए जम्मू कश्मीर के संविधान में दिए अधिकारों को किसी भारतीय अदालत में चुनौती दिए जाने से बचाव के लिए था। उस अर्थ में अनुच्छेद 35ए भारत की कानूनी मशीनरी को उस अधिकार में दखल करने से रोकने के लिए था, जो कश्मीर के संविधान ने खुद अपने राज्य के हाथ में रखा था।

इसके अलावा, सेक्शन 6 जम्मू कश्मीर के संविधान की सबसे ज़रूरी विशेषताओं का हिस्सा है क्योंकि यह परिभाषित करता है कि कौन जम्मू कश्मीर राज्य का हिस्सा बनने योग्य है। इस तरह से इसे संविधान की "बुनियादी विशेषता" करार दिया जा सकता है। यह प्रासंगिक क्यों है?

photo : the polis project

जस्टिस हंस राज खन्ना के केशवानंद भारती विरुद्ध केरल राज्य मामले में महत्वपूर्ण फैसले में कहा गया था कि कोई चुनी हुई संस्था भी भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे को समाप्त नहीं कर सकती, संविधान की उस बुनियादी विशेषता को नष्ट करने का तो सवाल ही नहीं है जो भारतीय है भी नहीं। मोदी के नया जम्मू कश्मीर में, जम्मू एवं कश्मीर के संविधान की बुनियादी विशेषता को एक गैर-चुनी अफसरशाही के बनाये नियमों से नष्ट किया जा रहा है।

नेहरू का भारत हो या वाजपेयी का, कश्मीरियों के खिलाफ हमेशा आक्रामकता की एक आंच सी सुलगती रही है। मोदी के तहत यह ऐसे गुस्से में बदल चुकी है जो सामंतवाद के खिलाफ दशकों के संघर्ष के बाद हासिल कश्मीरियों के अधिकार छीन लेना चाहता है। कोविड-19 महामारी का दुरुपयोग कश्मीर के अधिवासी कानून में बदलाव के लिए करने का मोदी का अवसरवादी अधिनायकवाद, कश्मीरियों को इस कानूनी बदलाव के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का अधिकार भी नहीं देता।

यह कश्मीर के लोगों के लिए संदेश है कि कुछ भी, एक महामारी भी नहीं, भारत को उनके साथ वह करने से नहीं रोक सकती, जो वह करना चाहें। भारत की प्राथमिकताएं उजागर हो जाती हैं जब यह परिवर्तन अभूतपूर्व आर्थिक संकट के समय में किया जा रहा है, जब थके-हारे और भूख से मर रहे प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा ने भारतीय उदासीनता का चेहरा उजागर किया।

1952 में जब भारत ने इंस्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन का उल्लंघन कर आगे बढ़ने की कोशिश की तो अब्दुल्ला ने संवैधानिक सभा से इस्तीफे की धमकी दी और भारत के साथ एकीकरण के विचार को 'अवास्तविक, बचकाना और पागलपन' करार दिया। अगले साल उन्हें बर्खास्त किया गया और जेल में डाला गया।

उसके बाद एक दशक में नेहरू ने महसूस किया कि एकीकरण के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता और अब्दुल्ला को जेल से रिहा किया। नेहरू के मिस्एडवेंचर से सीखने के बजाय बाद के भारतीय नेताओं ने पिछले सात दशक से कश्मीर का सजावटी कार्यों से धीरे-धीरे 'एकीकरण' किया है और जबरन एक मृत उद्देश्य को हासिल करने की कोशिश की है। हालांकि अब्दुल्ला ने भी आखिरकार उसे अपनाया जिसे वह पागलपन कहते थे। इस दौरान कश्मीर का निडर प्रतिरोध कभी नहीं खत्म हुआ। नेहरू ने जो 1964 में महसूस किया, उसे मोदी के यह 'नये कश्मीरी' महसूस करें, उसमें कितना वक़्त बाकी है?

(मिर्ज़ा साइब बेग कश्मीरी वकील हैं जो वीडेनफेल्ड-हॉफमैन स्कॉलर हैं और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में ब्लावटनिक स्कूल ऑफ गर्वन्मेंट में पब्लिक पॉलिसी में मास्टर्स कर रहे हैं। उनका ट्विटर हैंडल @M_S_Beg है। यह लेख 27 जून 2020 को 'द पोलिस प्रोजेक्ट' में छपा था, उनकी अनुमति के साथ इसका हिंदी अनुवाद कश्मीर ख़बर ने किया है।)

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