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दुनिया

'प्लीज मेरे लिए दुआ करें' : तालिबान से भयभीत अफगान महिला पत्रकार ने बताई अपनी दर्दनाक कहानी

Janjwar Desk
17 Aug 2021 11:44 AM GMT
प्लीज मेरे लिए दुआ करें :  तालिबान से भयभीत अफगान महिला पत्रकार ने बताई अपनी दर्दनाक कहानी
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(तालिबान पहले ही उन लोगों की तलाश में निकल पड़ा है, जो उसके निशाने पर हैं। प्रतीकात्मक तस्वीर)

एक युवा महिला पत्रकार ने अफ़ग़ानिस्तान के शहरों में छिपने के लिए मजबूर होने व तालिबान से घबराहट और डर का वर्णन किया है.....

जनज्वार। दो दिन पहले अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर में स्थित अपना घर और जीवन छोड़ कर मुझे तब भागना पड़ा, जब तालिबान ने मेरे शहर पर कब्जा कर लिया। मैं अभी भी भाग ही रही हूँ और मेरे पास ऐसी कोई सुरक्षित जगह नहीं है, जहां मैं जा सकूँ।

पिछले हफ्ते तक मैं एक पत्रकार थी। अब मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती और न यह बता सकती हूं कि मैं कहाँ हूं या कहाँ से हूं। कुछ ही दिनों में मेरी जिदंगी तबाह कर दी गयी है।

मैं बेहद भयभीत हूं और मुझे नहीं मालूम कि मेरे साथ क्या होने वाला है। क्या मैं कभी घर लौट सकूँगी ? क्या मैं दोबारा अपने माता-पिता को देख सकूँगी ? मैं कहां जाऊंगी ? हाइवे दोनों ही दिशाओं में ब्लॉक किया जा चुका है। मैं कैसे जिंदा रह पाउंगी ?

अपने घर और शांत जीवन को छोड़ने का मेरा फैसला, कोई योजना बनाकर नहीं लिया गया। ऐसा अचानक ही हो पड़ा। पिछले दिनों मेरा पूरा प्रांत तालिबान के कब्जे में आ गया। हवाई अड्डा और कतिपय पुलिस के जिला कार्यालय ही मात्र वो कुछ जगहें हैं, जो अभी भी सरकार के नियंत्रण में बची हैं। मैं सुरक्षित नहीं हूं क्यूंकि मैं 22 साल की युवती हूं और तालिबान लोगों पर दबाव डाल रहा है कि वे अपनी बेटियों को, पत्नियों के रूप में उनके लड़ाकों को सौंप दे। मैं इसलिए भी सुरक्षित नहीं हूं क्यूंकि मैं एक पत्रकार हूं और मैं जानती हूं कि तालिबान मेरे और मेरे सहकर्मियों की तलाश में जरूर आएगा।

तालिबान पहले ही उन लोगों की तलाश में निकल पड़ा है, जो उसके निशाने पर हैं। सप्ताहांत पर मेरे मैनेजर ने मुझे फोन करके कहा कि मैं किसी अंजान नंबर से आने वाले फोन का जवाब न दूं। उन्होंने कहा कि हमें, खासतौर पर महिलाओं को छुप जाना चाहिए और यदि संभव हो तो शहर से बच कर निकल जाना चाहिए।

अपना सामान बांधते समय भी गोलियों और रॉकेटों की आवाज़ें लगातार मेरे कानों में पड़ रही थी। हवाई जहाज़ और हेलीकाप्टर इतना नीचे उड़ रहे थे कि वे हमारे सिरों से कुछ ही ऊपर थे। मेरे अंकल ने कहा कि वे सुरक्षित जगह जाने में मेरी मदद कर सकते हैं। अतः मैंने अपना फोन और चादरी (सिर से पाँव तक को ढकने वाला अफ़ग़ानी बुर्का) उठाया और निकल पड़ी।

हमारा घर एकदम लड़ाई के मोर्चे की अग्रिम पंक्ति में आ चुका था पर फिर भी मेरे माता-पिता घर छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। जब रॉकेटों के हमले तीव्र होने लगे तो उन्होंने मुझसे लगभग मिन्नत करते हुए कहा कि मैं तुरंत निकल जाऊँ क्यूंकि वे समझ रहे थे कि कुछ ही देर में शहर के रास्ते बंद हो जाएंगे। इसलिए मैं उन्हें छोड़कर अपने अंकल के साथ वहाँ से निकल पड़ी। घर से निकलने के बाद मैं, उनसे बात भी नहीं कर सकी क्यूंकि अब शहर में फोन काम नहीं कर रहे हैं।

घर के बाहर एकदम अराजकता का माहौल था। अपने मोहल्ले में, मैं आखिरी युवती थी, जो भाग निकलने की कोशिश कर रही थी। मैं अपने घर के ऐन बाहर, गली में तालिबान के लड़ाकों को देख सकती थी। वे चारों तरफ थे। ईश्वर का शुक्र है कि मैं चादरी ओढ़ हुए थी, हालांकि मैं फिर भी डर रही थी कि वे कहीं मुझ रोक न लें या पहचान न लें। मैं चलते समय काँप रही थी, पर कोशिश कर रही थी कि मैं डरी हुई न लगूँ।

जैसे ही हम निकले, एक रॉकेट हमारे बिल्कुल बगल में गिरा। मुझे याद है कि चीखते-चिल्लाते महिलाएं और बच्चे हर तरफ भाग रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे हम एक नाव में फंसे हुए हैं और हमारे चारों तरफ भीषण तूफान है।

हम बड़ी मुश्किल से अंकल की कार तक पहुंचे और उनके घर की तरफ के लिए चल पड़े, जो कि शहर से बाहर करीब आधे घंटे की दूरी पर है। रास्ते में हम तालिबान चेकपॉइंट पर रोके गए। यह मेरे जीवन का सबसे डरावना पल था। मैं चादरी के अंदर थी, इसलिए उन्होंने मुझे पर ध्यान नहीं दिया और मेरे अंकल से पूछताछ कि वो कहां जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम शहर में एक स्वास्थ्य केंद्र गए थे और अब घर वापस जा रहे हैं। जब वे, उनसे सवाल-जवाब कर रहे थे, तब भी रॉकेट दागे जा रहे थे और चेकपॉइंट के काफी करीब गिर रहे थे। आखिरकार उन्होंने, हमें जाने दिया।

जब हम अंकल के गाँव पहुँच गए तब भी मैं बहुत सुरक्षित नहीं थी। उनका गाँव तालिबान के नियंत्रण में है और कई परिवार तालिबान से सहानुभूति रखते हैं। हमारे पहुँचने के कुछ ही घंटे बाद पता चला कि कुछ पड़ोसी जान गए हैं कि अंकल ने मुझे यहां छुपाया है, इसलिए हमें निकलना पड़ेगा- उन्होंने कहा कि तालिबान को पता चल चुका है कि मुझे शहर से बाहर ले जाया गया है और अगर मैं, उन्हें गाँव में मिली तो वे सबको मार डालेंगे।

हमने छुपने के लिए एक दूसरी जगह खोजी, यह मेरे एक दूर के रिश्तेदार का घर था। हमें घंटों पैदल चलना पड़ा, मैं अभी भी चादरी ओढ़े हुए थे और उन सारी मुख्य सड़कों से बच कर चल रही थी, जहां तालिबान हो सकता है।

ये जगह जहां मैं अभी हूं, एक ग्रामीण इलाका, जहां कुछ नहीं है। यहां पानी नहीं है, ना ही बिजली है। यहां बमुश्किल कोई फोन का सिग्नल है और मैं पूरी दुनिया से कटी हुई हूं।

ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां, जिन्हें मैं जानती हूं, वे भी शहर से भाग चुकी हैं और सुरक्षित जगह की तलाश में हैं। मैं अपने दोस्तों, पड़ोसियों, सहपाठियों, अफ़ग़ानिस्तान की सभी महिलाओं के बारे में सोचना और चिंता करना नहीं छोड़ पा रही हूं।

मीडिया की मेरी सभी महिला सहकर्मी आतंकित हैं। अधिकांश शहर से भागने में सफल रही हैं और प्रांत से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रही हैं, पर हम पूरी तरह घिरे हुए हैं। हम सबने ही तालिबान के खिलाफ बोला और अपनी पत्रकारिता के जरिये हमने उनकी नाराज़गी मोल ली है।

अभी सब कुछ तनावपूर्ण है। मैं यदि कुछ कर सकती हूं तो वह है निरंतर भागना और यह उम्मीद कि प्रांत जल्द ही खुले। मेरे लिए दुआ कीजिये।

(नोट : अफगानी महिला पत्रकार की यह व्यथा मूलत: ब्रिटिश समाचार पत्र द गार्जियन में प्रकाशित हुई है। गार्जियन के लिए इसका अनुवाद व संपादन रुचि कुमार ने किया है। जबकि इसका हिंदी अनुवाद सामाजिक कार्यकर्ता इन्द्रेश मैखुरी ने किया है। यह आलेख इन्द्रेश मैखुरी के ब्लॉग नुक्ता-ए-नजर से साभार लिया गया है।)

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