सुन्दरलाल बहुगुणा: भारतीय पर्यावरणवाद के एक युग का अंत
(सुन्दरलाल बहुगुणा ने न केवल पर्यावरण अनुकूल जीवन की वकालत की बल्कि उन्होंने ऐसा जीवन जिया भी। तस्वीर- राजीव नयन बहुगुणा।)
वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी का विश्लेषण
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।
यह नारा सत्तर के दशक से हिमालय की वादियों में गूंज रहा है। एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित करने वाली इन पंक्तियों की रचना तो कुंवर प्रसून ने की है पर इन्हें लोकप्रिय बनाने में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा बड़ी भूमिका रही है। वही बहुगुणा जो विश्व स्तर पर चिपको जैसे आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए विख्यात हैं।
कोविड-19 संक्रमण की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), ऋषिकेश में इलाज करा रहे बहुगुणा ने 21 मई, 2021 को अपनी अंतिम सांसे लीं और इस तरह देश ने एक बेहतरीन पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और देश की स्वतंत्रता- सेनानी को खो दिया। आपकी आयु 94 वर्ष थी।
बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को उत्तराखंड के टिहरी तहसील के मारुदा गांव में हुआ था। उन दिनों देश के आजादी की लड़ाई उफान पर थी। लोग टिहरी के राजा की दमनकारी नीतियों के खिलाफ थे। 30 मई 1930 को राजा ने अपने सैनिकों को निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने के आदेश दिए। बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए और उनकी लाशें नदी में बहा दी गयी।
उस वक्त बहुगुणा मात्र तीन वर्ष के थे। दस वर्ष बाद यानी 13 वर्ष की अवस्था में उसी राजा के खिलाफ चल रहे आंदोलन में शिरकत करते हुए बहुगुणा ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की।
उन्होंने लाहौर से स्नातक की पढ़ाई की और वाराणसी से स्नातकोत्तर की शिक्षा ली। फिर पढ़ाई छोड़ आजादी के आंदोलन में कूद गए। जेल जाना भी हुआ। यहीं से जन आंदोलन की इनकी यात्रा की शुरुआत हुई।
"अधिकतर लोग बहुगुणा को चिपको आंदोलन से जानते हैं जो कि 1970 दशक के आखिर में हुआ था। पर सच्चाई यह है कि तब तक उन्होंने जन आंदोलनों में अपना 25 वर्ष खपा दिया था। महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उन्होंने छुआछूत के खिलाफ मुहिम छेड़ी। इसको अपने जीवन में उतारते हुए उन्होंने एक ही छत के नीचे दलितों के साथ रहना और खाना शुरू किया। दलित उस वक्त अस्पृश्यता के शिकार थे," कहते हैं हर्ष डोभाल जो वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इन्होंने बहुगुणा के आंदोलनों को काफी करीब से देखा और उसपर कलम चलाई है।
चिपको आंदोलन की शुरुआत चमोली जिले से हुई थी जब महिलाओं के नेतृत्व में लोग पेड़-पौधों से चिपक जाते थी ताकि ठेकेदार इन्हें काट न सकें।
मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में डोभाल ने कहा कि बहुगुणा ने महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के लिए भी काम किया। "यह सब उनके युवा अवस्था की बात है। साठ के दशक में शराब के खिलाफ चले आंदोलन में भी हिस्सा लिया। सर्वोदय आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका को कैसे भुलाया जा सकता है," वह कहते हैं।
सर्वोदय अभियान महात्मा गांधी द्वारा चलाया एक अभियान था जो ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषण मुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले।
कमजोर लोगों की आवाज बने सुन्दरलाल बहुगुणा
मशहूर भूविज्ञानी खड्ग सिंह वल्दिया ने बहुगुणा की जीवनी लिखी है। वल्दिया ने बहुगुणा को हिमालय में महात्मा गांधी के सिपाही का दर्जा दिया था। पुस्तक का नाम भी उन्होंने यही रखा- हिमालय में महात्मा गांधी के सिपाही सुंदरलाल बहुगुणा।
अपने जीवन के शुरुआती दिनों में बहुगुणा की मुलाकात गांधीवादी श्रीदेव सुमन से हुई। बाद में श्रीदेव सुमन ने टिहरी के राजा के जुल्मों के खिलाफ 84 दिनों का लंबा आमरण अनशन किया और इस दौरान उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने युवा बहुगुणा के मन पर गहरी छाप छोड़ी और उनकी राजनीतिक और सामाजिक समझ की दिशा तय होने लगी।
बहुगुणा ने जीवनपर्यंत अहिंसक तरीके से कमजोर लोगों के लिए काम करने की ठानी और अपनी सीख को खुद के जीवन में उतारने का संकल्प लिया।
"मैं चावल नहीं खाता क्योंकि धान की खेती में बहुत पानी की खपत होती है। मुझे पता नहीं कि इससे पर्यावरण संरक्षण की कोशिश कितनी मजबूत होगी लेकिन मैं प्रकृति के साथ सहजीविता के भाव के साथ जीना चाहता हूं," उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान रिपोर्टर से कहा था।
"हमारे पैतृक गांव सिलयारा में उन्होंने जब आश्रम बनाया था तब केवल एक ही मिस्त्री को काम पर लगाया था। आश्रम बनने के दौरान उन्होंने बाकी के काम खुद किये जिसमें पत्थर, लकड़ी और निर्माण सामग्री उठाने का कार्य शामिल था," बहुगुणा के पुत्र राजीव नयन बहुगुणा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
बहुगुणा एक और गांधीवादी नेता विनोबा भावे से काफी प्रभावित थे। विनोबा भावे ने पचास के दशक में भूदान आंदोलन चलाया था। समाजसेवी सरला बहन के साथ काम करते हुए बहुगुणा की मुलाकात विमला नौटियाल से हुई, जो कि एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता थीं। विमला नौटियाल के भाई विद्यासागर नौटियाल प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता थे। बहुगुणा और विमला नौटियाल ने परिणय-सूत्र में बंधने का फैसला किया।
विमला ही थीं जिसकी प्रेरणा से बहुगुणा ने संसदीय राजनीति छोड़ने का फैसला किया। वे कांग्रेस पार्टी के जिला अध्यक्ष हुआ करते थे। संसदीय राजनीति छोड़ने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा में समर्पित कर दिया। दोनो ने मिलकर 'परिवर्तन नवजीवन मंडल' की स्थापना की जिसका उद्देश्य दलितों और गरीबों की शिक्षा के लिए काम करना था। जीवन भर वह इस बात का जिक्र करते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी किया है वह उनकी पत्नी के सहयोग के बिना संभव नहीं था।
वन और मानवाधिकार को बचाने के लिए हिमालय क्षेत्र में दशकों से कई आंदोलन चल रहे थे। चिपको आंदोलन इन्हीं सारे आंदोलनों की सामूहिक परिणति थी। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में सोशलिस्ट ऐसे आंदोलन चला रहे थी वहीं गढ़वाल क्षेत्र कम्युनिस्ट के नेतृत्व में आंदोलन चल रहा था। चिपको आंदोलन से कई प्रखर नेता निकले जिनमें गोविंद सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट, विपिन त्रिपाठी, विद्यासागर नौटियाल और गोविंद सिंह नेगी जैसे कई दिग्गज नाम शामिल हैं।
"आजादी के बाद से ही हिमालय क्षेत्र में कई वन आंदोलन चल रहे थे। चिपको को उन आंदोलनों की सामूहिक परिणति कह सकते हैं। इसमें बहुगुणा की भूमिका इसलिए भी खास है क्योंकि उन्होंने इस आंदोलन को संगठित किया और एक चेहरा देकर इसे प्रसिद्धि दिलाई। उन्होंने जमीनी सच्चाई को उजागर किया और व्यवहारिक तरीका अपनाने पर बल दिया। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और लोगों की बात सुननी पड़ी," लेखिका और समाजसेवी चारू तिवारी कहते हैं।
बहुगुणा का मानना था कि संपूर्ण हिमालय क्षेत्र के लिए एक सामूहिक और संगठित संरक्षण नीति की जरूरत है। अपने इसी विश्वास के साथ उन्होंने पैदल ही जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर से लेकर पूर्वोत्तर स्थित कोहिमा तक की 5,000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की। वर्ष 1981 से 1983 के बीच।
चिपको की सफलता के बाद बहुगुणा को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। नब्बे के दशक के शुरुआती सालों में उन्होंने 'हिमालय बचाओ' अभियान की शुरुआत की और टिहरी बांध के खिलाफ आंदोलन का आरंभ किया। टिहरी के खिलाफ पहली बार वकील वीरेंद्र दत्त सकलानी ने आवाज उठाई थी और मामले को 1960 में सुप्रीम कोर्ट तक लेकर गए थे। अस्सी के दशक आते-आते सकलानी बीमार रहने लगे और फिर उन्होंने यह जिम्मेदारी बहुगुणा को सौंप दी।
बहुगुणा संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में बड़े बांधों और बिजली परियोजना के निर्माण के खिलाफ थे क्योंकि इससे बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापन झेलना पड़ता। पहाड़ी क्षेत्र में वैसे ही खेती-गृहस्थी के लिए सीमित संसाधन होते हैं। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन को एक पर्वतारोही और नौकरशाह एनडी जयाल ने पुरजोर समर्थन दिया था और दिल्ली में इस मुद्दे के पैरोकार बने रहे।
"सुन्दरलाल जी की सबसे बड़ी खूबी थी कि वे जब पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई बात रखते तो बड़ी बुद्धिमता के साथ कठिन विज्ञान और अपनी जमीनी समझ को मिलाकर बात करते। उनकी आवाज नरम और कोमल थी, लेकिन उनकी बातें काफी दृढ़ रहती थीं। यह खूबियां उन्हें एक बड़ा वक्ता बनाती थीं। उनकी एक और खूबी थी। वे न सिर्फ लोगों को प्रेरित करते थे बल्कि उत्तराखंड के जन आंदोलनों में आम लोग विशेषकर महिलाओं से बहुत कुछ सीखते भी थे। उत्तराखंड के जनांदोलनों में महिलाओं की महती भूमिका रही है," कहते हैं आशीष कोठारी जो गैर-लाभकारी संस्था कल्पवृक्ष और 'विकल्प संगम' से जुड़े हैं।
टिहरी परियोजना के विरोध करते हुए बहुगुणा ने भागीरथी नदी के किनारे ही अपना ठिकाना बना लिया। वर्ष 1995 में उन्होंने 45 दिन लंबा उपवास रखा जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने हस्तक्षेप कर समाप्त करवाया। वर्ष। वर्ष 2001 में वे पुनः 74 दिनों के लिए दिल्ली के राजघाट पर उपवास पर बैठे। यद्यपि वे टिहरी बांध को बनने से रोक नहीं पाए पर उनका संघर्ष पूरी तरह से व्यर्थ भी नहीं गया।
"हमने देखा है कि कैसे बड़ी कंपनियां गरीबों की जमीन बिना उचित मुआवजा दिए ही ले लेती है। हालांकि बहुगुणा टिहरी बांध को रोकने में सफल नहीं हो पाए पर उनके द्वारा उठाए गए सवालों ने ऐसी तथाकथित विकास परियोजनाओं के अमानवीय चेहरे को उजागर कर दिया। सत्ता में बैठे लोगों ने भी इस बात पर गौर किया और उचित मुआवजा दिलाया। यह एक बड़ी उपलब्धि थी," कांग्रेसी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता किशोर उपाध्याय कहते हैं।
अपने 50 वर्ष के लंबे संघर्ष से भरे सामाजिक जीवन में सुन्दरलाल बहुगुणा ने कई लोगों को पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों को लेकर प्रेरित किया। उनसे प्रेरणा लेकर कई लोगों ने अपना जीवन प्रकृति को बचाने के लिए समर्पित कर दिया। मशहूर पर्यावरण पत्रकार और संपादक बिट्टू सहगल और गायक राहुल राम ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा था कि कैसे सुंदरलाल बहुगुणा ने उन्हें प्रभावित किया है।
कवि घनश्याम सैलानी, पत्रकार कुंवर प्रसून, दलित कार्यकर्ता भवानी भाई और धूम सिंह नेगी इनसे काफी प्रभावित थे। चिपको आंदोलन की तर्ज पर पांडुरंग हेगड़े ने अप्पिको आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन की शुरुआत कर्नाटक के पश्चिमी घाट में उत्तर कन्नड़ जिले में जंगल बचाने के लिए किया गया था।
हिमालय में विजय जरधारी ने धान, राजमा और कई अन्य स्थानीय बीज बचाने के लिए बीज बचाओ आंदोलन की शुरुआत की। जरधारी कहते हैं कि जैव विविधता और स्थानीय प्रजाति को बचाने के लिए चलाया जा रहा यह आंदोलन, चिपको का ही विस्तार है।
"मेरे काम के पीछे जो दर्शन है वह बहुगुणा जी द्वारा चलाया गया चिपको आंदोलन ही है। अगर हम चिपको में भाग नहीं लिए होते तो बीज बचाओ आंदोलन भी नहीं जन्मा होता। उनके बिना हम जमीन, पानी और पर्यावरण का महत्व कैसे समझ पाते? हम जब भी गांवों में जाते पता चलता कि स्थानीय प्रजाति खत्म हो रही है। हमें तब समझ आया कि विषैले रसायन और उर्वरक से खेती और जैव विविधता खत्म हो रही है। हमने तब बीज बचाओ आंदोलन की शुरुआत की," जरधारी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
साभार: मोंगाबे हिंदी