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Janjwar Ground Report: बनारस के साड़ी इंडस्ट्री पर ड्रैगन का हमला, सिमटा बाजार तो हाशिए पर आ गए बुनकर
पीलीकोठ में पावरलूम मशीन पर चाइनीज रेशमी धागे से बनारसी साड़ी बुनता कारीगर।
उपेद्र प्रताप की रिपोर्ट
Ground Report : बनारस की खास पहचान रखने वाली बनारसी साड़ी इंडस्ट्री पर चीन के लगातार हमले से अब इसकी सांसें उखड़ने लगी हैं। समंदर के रास्ते हर महीने कई टन चीन से भारत आने वाले सस्ते रेशम के धागे बनारसी बुनकरों और कारोबारियों के लिए मुसीबत बन गए हैं। आलम यह है कि बनारस का बाजार में चीनी रेशम और चाइना सिल्क की साड़ियों से पट गया है। अपने देश में डबल इंजन की सरकार सिर्फ तमाशे देख रही है और बुनकरों के घरों के चूल्हें बुझते जा रहे हैं। नतीजा मोदी की काशी में ही उनके लोकल फार वोकल का दिवाला पिट रहा है।
बनारस के दजर्न भर मोहल्ले बुनकरों के मरकज सरीखे रहे हैं। लेकिन अब ये इलाके उनकी बर्बादी, लाचारी, बेबसी और असमय मौत का चलता-फिरता दस्तावेज हैं। बुनकर बस्तियों की कच्ची-पक्की गंदगी भरी गलियों और दड़बेनुमा घरों में उनकी बिनकारी का दम घुट रहा है। एक ओर चीन का हमला तो दूसरी ओर गद्दीदारों द्वारा किए जा रहे शोषण से बुनकरों की फनकारी तबाह हो रही है। चीन ने बनारसी साड़ी कारोबार को इस कदर रगड़ दिया है कि जिंदगी चलाने के लिए बुनकर और उनके परिवारों के करीब दो लाख लोग पलायन कर चुके हैं और सिलसिला जारी है।
बनारसी साड़ी का कारोबार (पहले)
- हथकरघा व पावरलूम ऑपरेट - 5255 यूनिट्स
- रोजगार - 10 लाख
- बनारसी साड़ी का कारोबार - 1000 करोड़ प्रतिवर्ष
- बिजली की दर - 71।50 पैसे, पर पावरलूम
- कच्चा माल- चीन से आयात और लोकल
- भुगतान- व्यवहारी और उधारी
- जीएसटी- नहीं थी।
बनारसी साड़ी का कारोबार (अब)
- हथकरघा व पावरलूम ऑपरेट -2300 यूनिट्स
- हथकरघा व पावरलूम बंद - 1800
- रोजगार - चार लाख
- बनारसी साड़ी का कारोबार - 350 करोड़ प्रतिवर्ष
- बिजली की दर - 1500 रुपये, पर पावरलूम
- कच्चा माल- चीन से आयात और लोकल
- जीएसटी- 12 फीसदी
- भुगतान- नगद जीएसटी के साथ
आंसू बन गया है बुनकरों का दर्द
बनारस में बुनकरों का दर्द आंसू बनकर रह गया है। कटेहर वार्ड के पार्षद अफजल अंसारी कहते हैं, -"हमारे इलाके में सबसे अधिक बुनकरों की आबादी है। शासन के अधिकारी और आला जनप्रतिनिधि इनके बार्ड से साथ सौतेला व्यवहार करते हैं। बुनकरों को शासन सहयोग और योजना का लाभ दिलाने के लिए आंदोलन करने पर जेल में बंद करने की धमकी दी जाती है। कंट्रोल वाले रुपए लेकर अपात्रों को योजना का लाभ देते हैं। इसकी जांच हो और पात्र बुनकरों को हथकरघा, पावरलूम और राशन समेत सभी योजनाओं के लाभ दिए जाए, जिनके वे पात्र हैं। तभी बनारस में हुनरमंद कारीगरी बुनकरी को बचाया जा सकता है।"
पीलीकोठी के कटेहर वार्ड में दिल्ली गड़ही मोहल्ले के बुनकर कई दशकों से हथकरघे पर बनारसी साड़ी की बुनाई करते हैं। इनके कारखाने में तीन हथकरघे पर अब्दुल कलाम व इनके बेटे समेत आठ लोग बुनाई करते हैं। रविवार को भगवान बुद्ध को चढ़ाए जाने वाले बनारसी शॉल-दुपट्ट की बुनाई करते मिले। अब्दुल बताते हैं, "बाजार के प्रतिस्पर्धा में गद्दीदारों का दबाव बढ़ता जा रहा है। बड़ी मुश्किल से महीने भर लगातार 10 से 12 घंटे मेहनत कर 3.5 से चार हजार एक बुनकर कमा पाता है। चीनी माल के बाजार में उतरने से बनारसी साड़ी की धाक और चमक फीकी पड़ती जा रही है। बनारसी साड़ी के बाजार में चाइना के धागे और नकली साडिय़ों के थोक में उतरने से बुनकरों को अब रोजी-रोटी पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हमें और आसपास के करीब एक दर्जन लोगों के राशन कार्ड नहीं होने से बीते छह सालों से केंद्र व राज्य सरकार के अनाज योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है।" कटेहर वार्ड के शेख शहीद मोहल्ले में रहने वाले छह परिवार सिस्टम और सरकारी उदासीनता के शिकार हैं। वह कहते हैं, "बनारसी साड़ी को चमक देने वाले हुनरमंद बुनकरों का ताना-बाना बिगड़ गया है। छह सालों से राशन कार्ड बनवाने के लिए दर-दर भटक कर थक चुके हैं। हमारी उम्मीद भी मर चुकी है। समझ में नहीं आ रहा कि हमारे जीवन में कब सवेरा होगा और कब सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा। छह साल से गुरबत और गरीबी में बुनाई से हुई आमदनी में परिवार का भरण पोषण मुश्किल से हो रहा है। पीडि़त अब्दुल कलाम जनज्वार से अपनी पीड़ी की दास्तां कहते सिसक उठते हैं।"
कैसे होगी बेटी की शादी
अब्दुल बताते हैं, "इन छह सालों में सबसे बुरा दौर तब आया जब पहली कोरोना की लहर में पूरे शहर में लाकडाउन लगा हुआ था। बनारसी साड़ी का धंधा भी बंद हो चुका था। जैसे-तैसे कर परिवार को दो जून की रोटी का इंतजाम कर डेढ़ साल का लंबे व1त को काटा। इसी दरमियान केंद्र और राज्य सरकार से मिलने वाली राशन योजना से हमें वंचित कर दिया गया। क्या हम इस बनारस के नहीं हैं? आखिर हमारा कूसुर क्या है? हम अब बदहाली के कगार आ पहुंचे हैं। कोरोना और बुनकरी के धंधे पर हाशिए पर जाने से मेरे बेटे की पढ़ाई छूट गई। वह अब परिवार के खर्चों के लिए साड़ी की बुनाई में हाथ बंटाता है। बेटी भी बहुत नहीं पढ़ सकी और भविष्य की राहें रोशन करने वाले स्कूल-कॉलेज से उसका नाता टूट चुका है। अब उसके हाथ पीले करने की जिम्मेदारी के बारे में सोचकर जबतब मन भींग जाता है।"
कोई नहीं दर्द बांटने वाला
कटेहर के जिआउल रहमान, कलीमुद्दीन, हाफिज, मो. सकलैन, मोजाम्मिन हसन, टीपू सुल्तान, सगीर, हसीन अहमद, वसीम, अबुजर, समेत सैकड़ों सरकारी उदासीनता के दस्तावेज में शामिल हैं। इनकी नाराजगी इस बात से हैं कि सरकार इनके जिंदगी को आसान बनाने को तैयार नहीं है। वाराणसी नगर निगम के एडिश्नल कमिश्नर दुष्यंत मौर्य कहते हैं, "कोविड और फिलवक्त में सभी इंडस्ट्री की चुनौतियां पहले से बढ़ गई है। फिर भी विभागीय स्तर से मानिटरिंग की जा रही है। बनारसी साड़ी के आधार बुनकर ही हैं। इनके बारीक कारीगरी की वजह से वैश्विक पटल पर बनारस की छवि को मजबूती मिलती है। इनके लिए हर आवश्यक कोशिश की जाएगी।"
अपने ही करघे पर मजदूरी
कज्जाकपुरा के सरैया मोहल्ले में अधिकांश बस्तियां हुनरमंद बुनकरों की है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी बनारसी साड़ी के बुनाई का काम करते आ रहे हैं। चाइनीज बनारसी माल और सिल्क साड़ी के हस्तक्षेप से अब इस इलाके में गिनती के हथकरघे और पावरलूम बनारसी साड़ी के ताने-बाने पर काम कर रहे हैं। इसी घनी बस्ती के तंग दोराहे पर एक छोटी सी दुकान के बाहर बैठे उस्मान पहलवान ने बताया, "सबकुछ ठीक है। थोड़ी देर बातचीत के बाद वे अपने को संभाल नहीं सके। अचानक से आंखे नम हो गई और गला रूध गया। उस्मान ने कहा कि साथियों और मेरे कई पावरलूम बंद हो गए। इस कला को जीवित रखने के लिए लाख घाटा सहने के बाद भी लगे हुए हैं। लॉकडाउन से पहले सरैया के जुनैद के पास 14 करघे थे। जो कोविड की फस्र्ट व सेकेंड वेब में धीरे-धीरे बिकते चले गए। अभी हालत यह है कि जुनैद अपने ही मकान में दूसरों के करघे पर बनारसी साड़ी बुनते हैं।"
साड़ी की वेरायटी पर आंच
गोदौलिया में बनारसी साड़ी के बिक्रेता सूर्यकांत बताते हैं कि अब भी ब्रोकेड, जरदोजी, जरी मेटल, गुलाबी, मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी और रियल जड़ी की बनारसी साड़ी की डिमांड है। लेकिन, अब चाइना सिल्क की सस्ती साडिय़ों से चुनौती मिल रही है। हम लोगों को समझ नहीं आ रहा कि हम करें भी तो क्या?
पेंचीदी होती जिंदगी में पलायन बना विकल्प
बनारस के चार दर्जन से अधिक इलाकों में बनारसी साड़ी हथकरघे और पावरलूम से तैयार किए जाते हैं। कच्चे माल, तकनीकी सामानों के नहीं मिलने, बिजली की आकाश छूती महंगाई और जीएसटी के पेंच में बुनाई इंटस्ट्री उलझ गई। इस उलझन ने बनारसी साड़ी इंडस्ट्री को बर्बादी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। साल दर साल गुजरते गए। इधर, सुधार और आमदनी की आस लगाए बुनकरों को निराशा ही हाथ लगी। लिहाजा, रोजी-रोटी की तलाश में करीब पांच लाख से अधिक हुनरमंद बुनकरों ने परदेस के फैक्ट्रियों में नौकरी शुरू कर दी है।
बुनकरों की मजदूरी साल 2017 से बाद से बढ़ी नहीं। हथकरघा से बुनाई कर तीन से चार हजार रुपए महीने कमाने वाले बुनकरों को इससे भी हाथ धोने डर सताने लगा है। बाजार में बढ़ते चीनी सिल्क और रेशम ने गद्दीदारों के होश उड़ा दिए हैं। अब व्यापारी सस्ते चीनी सिल्क और साडिय़ों का हवाला देकर गद्दीदारों को कम कम से कम रुपयोंमें बनारसी साड़ी को तैयार करवाने का दबाव बनाते हैं। लिहाजा, बाजार के प्रतिस्पर्धा का डायरेक्ट असर हुनरमंद बुनकरों पर पड़ता है। बदलते दौर और आसमान छूती महंगाई ने इनके परिवार के ताने-बाने को तोडऩा शुरू कर दिया है। गुरबत और तंगहाली में बुनकरों के बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट रही है।
आंदोलनों को नहीं मिली धार
अधिकांश परिवारों में इनकी बेटियां 12वीं दर्जे से अधिक की तालीम नहीं हासिल कर पा रही हैं। इनके हाथ पीले करने की जद्दोजहद में बनकरों का जीवन कर्ज और एहसान के मर्ज तले दबता ही जा रहा है। बजरडीही के बुनकर फरमान बातचीत में जनज्वार से बताते हैं कि दर्द जब हद से गुरता है तो व्यापारी-बुनकर सड़क पर उतर आते हैं। कुछ दिनों महीने ही सरैया, मंडुआडीह, पीलीकोठी, जैतपुरा क्षेत्र के बड़ी बाजार बुनकर और साड़ी कारोबार से जुड़े इलाके में व्यापारियों और बुनकरों ने भारी विरोध किया। इस दौरान आक्रोश के साथ चाइनीज रेशम से बनी बनारसी साड़ी और चाइना सिल्क को आग के हवाले कर प्रशासन से यह मांग भी रखी कि चीन से आयातित रेशमी धागे पर पाबंदी लगाई जाए।
साड़ी में मिलावट खेल
रेशम के धागों से हथकरघे पर बनी साड़ी ही बनारसी साड़ी कही जाती है। जिसकी चमक-दमक और स्मूथली इस्तेमाल की वजह से दुनिया भर में पहचान है। एक्सपर्ट बताते हैं, "अब चीनी रेशमी धागों से बनारस में साडिय़ां तैयार की जा रही है, जो मानक के अनुरूप नहीं है। ऐसे साडिय़ों को पावरलूम यूनिट्स में बुना जाता है। इन्हें नकली बनारसी साड़ी के नाम से जाना जाता है। यदि किसी को पहली बार बनारसी साड़ी खरीदना हो तो प्रबल संभावना है कि दुकानदार उसे नकली बनारसी साड़ी थमा देगा।"
हथकरघा व पावरलूम विभागीय आंकड़ों के मुताबिक बनारसी साड़ी का कारोबार प्रतिवर्ष एक हजार करोड़ रुपये का होता था। इसमें से तीन-चार सौ करोड़ का माल यूरोपीय देशों को एक्सपोर्ट किया जाता था। ये वर्ष 2018-19 और 2019-20 में सिमट कर महज दो सौ से ढाई सौ करोड़ पर आ गया है। विदेशों से आने वाली साडिय़ों की डिमांड न के बराबर है। बनारस में पावरलूम और हथकरघे से डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रूप से करीब 15 लाख से अधिक बुनकर जुड़े हैं। महंगाई और जीएसटी की पेंचदगी में फंसकर हथकरघे व पावरलूम की आधी से अधिक यूनिट्स ने दम तोड़ दिया। समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। चीनी रेशम और आयात सिल्क की साडिय़ों के सडऩे से व्यापारी भी परेशान है। बनारसी साड़ी से गोदाम या शॉप में डंप होने की वजह से चीनी धागे सडऩे लग रहे हैं। यह मामला कई बार संसद में गुंज चुका है। लेकिन हालात सुधरने की बजाय दिनों-दिन बिगड़ते ही जा रहे।
बनारसी साड़ी उद्योग के तबाही के मंजर की आहट को भापने का दावा करने बनारस के बुनकर बिरादराना तंजीम बारहो के सरदार हासिम ने बताते हैं, "बनारस की पहचान है बनारसी साड़ी। सरकार एक ओर लोकल फॉर वोकल पर ध्यान दे रही है तो फिर बनारसी साड़ी के साथ नाइंसाफी क्यों की जा रही है। इंडस्ट्री को सरकार की मदद की दरकार है। जल्द ही चीन से आयातित होने वाले रेशम और सिल्क पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो आने वाले सालों में प्योर बनारसी साड़ी के बाजार का क्या हश्र होगा, अंदाजा लगाना कठीन है। "
बनारस पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के महामंत्री अतीक अंसारी कहते हैं, "कुछ सालों से सरकार की निर्यात नीतियों की खामी का बुरा असर साड़ी इंडस्ट्री पर पड़ा है। शुरुआत में एक पावरलूम के बिजली का रेट 72 रुपए था, जो अब 1500 रुपए हो गया है। इसमें भी जो पावरलूम बंद पड़े हैं, बिजली विभाग के कारीदें जबरिया बिल पकड़ा के चले जाते हैं। हमारी शिकायत का मुक्कमल जवाब कोई अधिकारी और मंत्री नहीं दे पा रहा है। लिहाजा, बनारसी बुनकरी अब दोराहे पर आकर खड़ी हो चुकी है। एक तरफ चीन चुनौती बना हुआ है तो दूसरी ओर अपने ही आंख दिखा रहे हैं।"
सरैया इलाके में हथकरघे पर साड़ी बुनने वाले मोहम्मद नसीम कहते हैं, "बनारसी साड़ी की बुनाई का काम सिमट सा गया है। पहले काम के बाद तुरंत पैसे मिल जाते थे, अब बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैं। तंगहाली के चलते कई अच्छे बुनकर काम की तलाश में दूसरी जगहों पर चले गए। उन्हे परदेस में काम तो मिल गया होगा, लेकिन बनारस में बुनकरी के हुनर को कैसे भरा जाएगा? "
मस्जिद से नमाज अदा कर लौट रहे नुरूलहक चौराहे पर भीड़ देख उनके कदम ठिठक गए। "जनज्वार" से हथकरघा और पावरलूम के बुनकरों की बातचीत सुनकर, उन्होंने भी भीड़ के ऊपर हवा में सवाल उछाल दिया। नरूल बताते हैं, "दस साल पहले बुनाई का जो रेट था। अब भी वही मिल रहा है। महंगाई आसमान छू रही है। मैं बूढ़ा हो चुका हूं। इस धंधे को छोड़कर कहां जाउंगा? वहीं, पावरलूम मालिक यासिर आराफात को नई सरकार से 2022 में काफी उम्मीदें है। वे कहते हैं कि कई साल से इस उम्मीद में पावरलूम चला रहे हैं कि अब स्थिति सुधर जाएगी। साल 2022 से काफी उम्मीदें हैं। हमारी दिक्कतों पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। वाराणसी डिवीजन के बुनकर सेवा केंद के उपनिदेशक संदीप ठुबरीकर विभागीय कमियों को स्वीकारते हुए कहते हैं कि हां, ये बात सच है कि हथकरघा बुनकरों को उचित मेहनताना नहीं मिल पा रहा है। पावरलूम की बिजली थोड़ी महंगी हो गई है। चीन के कच्चे माल से चुनौती तो मिल जरूर रही है। लेकिन, वह बुनकरों द्वारा तैयार बनारसी साड़ी को रिप्लेस नहीं कर सकती है। विभाग हर संभव कोशिश कर रहा है कि इनकी समस्याएं कम हों।