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जनज्वार विशेष

एक्सक्लूसिव रिपोर्ट : पिछड़ों और दलितों ने लॉकडाउन में सबसे ज्यादा छोड़ा वकालत का पेशा

Janjwar Desk
7 April 2021 5:30 AM GMT
एक्सक्लूसिव रिपोर्ट : पिछड़ों और दलितों ने लॉकडाउन में सबसे ज्यादा छोड़ा वकालत का पेशा
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भागलपुर कोर्ट परिसर में रेहड़ी-पटरी लगाकर गुजारा करने वाले प्रमोद कुमार तांती हो या पूनम, रीना इन सबने 10 हजार रुपये की मदद मिलने से इनकार किया, जिसकी घोषणा मोदी सरकार ने लाॅकडाउन के दौरान 20 लाख करोड़ के पैकेज के तहत की थी....

बिहार के भागलपुर में लॉकडाउन में किस हाल में रहे वकील, पढ़िये राहुल सिंह की स्पेशल रिपोर्ट

भागलपुर। लंबे लाॅकडाउन ने भागलपुर कोर्ट में प्राइक्टिस करने वाले जूनियर वकील धर्मेंद्र कुमार यादव व उनके जैसे सैकड़ों दूसरे वकीलों की परेशानी बढ़ी दी। धर्मेंद्र कुमार यादव लाॅकडाउन के खत्म होने को ईश्वरीय कृपा मानते हैं, हालांकि अब एक बार फिर से देश बढ़ते कोरोना केसों के बीच लॉकडाउन की तरफ बढ़ रहा है।

धर्मेंद्र कहते हैं कि सीनियर के साथ 50 रुपये के मेहनाताना पर काम करने वाले जूनियर वकीलों के लिए यह वक्त मुश्किल भरा था। वहीं, एक और युवा वकील राजीव कुमार ईश्वर के लिए कोरोना का दौर किसी आपदा की तरह था, जब कमाई बंद होने से उन्हें अपनी लोन की ईएमआई चुकाने में खासी परेशानी झेलनी पड़ी। युवा वकील मुकेश यादव की पेशानी पर अब भी कोरोना लाॅकडाउन की चर्चा छिड़ने पर पसीना आ जाता है और उनके चेहरे का भाव उस कठिन दौर की पीड़ा बयान कर देता है। हालांकि इन सबके लिए कोर्ट परिसर में शुरू हुई चहल-पहल राहत लेकर आयी है।

फरवरी के आखिरी सप्ताह में गर्म होते मौसम में भागलपुर कोर्ट परिसर में भी एक गरमाहट का अहसास होता है। परिसर में खासी चहल-पहल दिखती है, जो एक सकारात्मकता का अहसास कराती है, भले कोविड प्रोटोकाॅल की वजह से आमलोगों को मुख्य कोर्ट परिसर में प्रवेश निषेध हो और मामलों की सुनवाई अब भी अब वर्चुअल के साथ फिजिकल माॅड्यूल तक हो गयी हो।


लगभग सालभर बाद पसरा सन्नाटा अब छंट रहा है और समाज के दूसरे तबके की तरह वकीलों और उनके पेशे पर ही आधारित दूसरे लोगों की जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर आती दिख रही है। वकील साहब के भरोसे जिंदगी जीने वाले टाइपिस्ट कमरूद्दीन की परंपरागत टाइपराइटर मशीन की खड़खड़ाहट जीवन की निरंतरता का अहसास कराता है, तो सत्तू का ठेला लगाने वाले विकास गुप्ता की घटनी जीवन में फिर से मिठास घोलने की कोशिश करती है, मगर कोरोना महामारी की वजह से लगे लाॅकडाउन का आर्थिक जख्म इतना गहरा है कि उसका अंदाजा तक लगाना मुश्किल है। एलएलबी की डिग्री हासिल कर व काला कोट पहनकर व्हाइट काॅलर जाॅब करने वाले अधिसंख्य वकीलों की कमर लाॅकडाउन ने तोड़ दी है, उन्हें रोड पर लाकर खड़ा कर दिया है।

भागलपुर बार एसोसिएशन में जितने वकील रजिस्टर्ड हैं, उनमें से मात्र 60 प्रतिशत यानी लगभग पांच हजार में तीन हजार पहले से रेगुलर प्राइक्टिस करते रहे हैं। इसकी एक वजह है कि कुछ शौकिया वकील होते हैं तो कुछ को यह पेशा ही बाद में आर्थिक मजबूरियों के कारण रास नहीं आता, मगर एक दिलचस्प तथ्य यह है कि लाॅकडाउन ने इस पेशे के प्रति निष्क्रियता व उदासीनता में और इजाफा किया है।

वकीलों की सक्रियता और घटी

भागलपुर कोर्ट के कई सीनियर व जूनियर वकीलों ने चर्चा के दौरान यह दावा किया कि करीब 200 से 250 वकील कोरोना लाॅकडाउन की वजह से पेशे से निष्क्रिय हो गए और उन्होंने कोर्ट आना छोड़ दिया या बेहद कम कर दिया। हालांकि काले कोर्ट के रूतबे और एलएलबी डिग्री के कारण वकील अपने ऐसे साथियों की पहचान सार्वजनिक करने से यह कहते हुए हिचकते हैं कि उनकी और कितनी बेइज्जती करवाइएगा?

युवा वकील धर्मेंद्र कुमार यादव बातचीत के क्रम में कहते हैं, यहां आने के साथ हर दिन 500 रुपये की कमाई हो ही जाएगी ऐसा नामुमकिन है। शुरुआत में तो सीनियर के साथ 50 रुपये रोजाना पर काम करना होता है।

धर्मेंद्र आगे कहते हैं, 'जब लोग इस पेशे में आते हैं और शुरुआत में कमाई नहीं होती तो इसे छोड़कर निकल जाते हैं और फिर संकट यह आता है कि कहीं दूसरी जगह भी उन्हें काम नहीं मिलता। जब ऐसे लोग दूसरी जगह जाते हैं तो यह बताने पर कि हम वकील हैं, एलएलबी किया है, काम ही नहीं मिलता। अधिक पढे-लिखे लोगों को साधारण काम के लिए सामान्यतः अयोग्य मान लिया जाता है।' धमेंद्र कोरोना के गहरे संकट से उबरने को परमात्मा की कृपा मानते हैं और उस दौर को दुखद परिस्थिति मानते हैं। कहते हैं, हमारी एक प्रतिष्ठा होती है, ऐसे में हम दूसरा काम कर नहीं सकते हैं, इसलिए लाॅकडाउन लगाने समय सरकार को हमें आर्थिक मदद देनी चाहिए। वकालत के पेशे में युवाओं को रोकने और उन्हें आकर्षित करने के लिए सरकार को उन्हें स्थायी तौर पर आर्थिक सहयोग देना चाहिए।

पिछड़े वर्ग से आने वाले धर्मेंद्र एक महत्वपूर्ण बात यह चिह्नित करते हैं कि 'पिछड़े व अनुसूचित जाति के लोग पहले से अनुपातिक रूप से इस पेशे में कम होते हैं और उस पर आर्थिक विवशताएं उन्हें इस पेशे को छोड़ने के लिए अधिक मजबूर करती हैं। यह तबका तो पहले से ही आर्थिक रूप से कमजोर होता है और जब कोर्ट में कमाई नहीं होती है तो वह किसी और पेशे में चला जाता है। युवा वकील धर्मेंद्र के इस तर्क की पुष्टि सीनियर वकील भावना तिवारी की इस टिप्पणी से होती है कि इस पेशे में आने व टिके रहने के लिए परिवार का बैकग्राउंड मजबूत होना चाहिए।

भागलपुर कोर्ट में प्राइक्टिस करने वाले 38 साल के युवा वकील राजीव कुमार ईश्वर के लिए साल 2020 के मार्च में कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए लागू किया गया लाॅकडाउन किसी आपदा से कम नहीं है। इस लाॅकडाउन ने उनके लिए लोन की किश्तें चुकाने में खासी मुश्किलें पैदा कीं। राजीव ने पिछले ही साल 2019 में बैंक से किसी काम से लोन लिया था और फिर लाॅकडाउन लग गया और कोर्ट में काम—धंधा बंद हो गया। राजीव का भी कोर्ट आना महीनों बंद रहा। इस वजह से उनकी आय भी रुक गयी और लोन की ईएमआई चुकाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

हालांकि अब राजीव थोड़ी राहत महसूस कर रहे हैं। बीते वर्ष दुर्गा पूजा के आसपास से कोर्ट धीमी रफ्तार से शुरू हो गया है और वह धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है, पर काम अभी भी पिछले साल के फरवरी महीने की तुलना में इस फरवरी में आधा ही है।

राजीव कुमार ईश्वर बातचीत में बताते हैं, लाॅकडाउन से वकीलों को काफी क्षति हुई है, क्योंकि यह एक ऐसा पेशा है जिसमें तयशुदा तनख्वाह नहीं है। 2019 में लोन ले लिया और यह इस अप्रत्याशित लाॅकडाउन को लेकर पहले से यह नहीं सोचा था कि ईएमआई कहां से देंगे।

वे इस आपदा को अपनी ही भूल मानकर यानी ईएमआई लेने को गलती मान खुद को तसल्ली देने की कोशिश करते हैं। कहते हैं, लोन लेने का मेरा फैसला गलत था और उससे मुझ पर आर्थिक दबाव बढ गया। वे यह भी बताते हैं कि आर्थिक दबाव की वजह से कई वकील शहर छोड़कर अपने गांवों की तरफ चले गये हैं।

राजीव कहते हैं, लाॅकडाउन का एक दूसरा उल्टा असर यह हुआ कि न्यायिक प्रक्रिया रुक गयी, इस वजह से ऐसे क्लाइंट जिनकी जमानत हो सकती थी, वे भी लंबे समय तक जेल में रह गए। इस दौरान हम अपने क्लाइंट का फोन रिसीव कर सिर्फ उन्हें सांत्वना देते थे कि स्थितियां ठीक होंगी।

10 प्रतिशत वकीलों के पास 50 प्रतिशत मामले, जूनियर वकीलों का हाल ज्यादा खराब

सीनियर और जमे हुए वकीलों पर जूनियर वकील ब्रीफ यानी मामलों के लिए निर्भर होते हैं। एक जमे—जमाए सीनियर वकील से चार—पांच जूनियर वकील जुड़े होते हैं और उसका काम करते हैं। सामान्यतः ये जूनियर वकील संबंधित मुवक्किल से उनके मामलों से जुड़े कामकाज की प्रक्रिया को आगे बढाने के लिए पैसे पाते हैं और कई बार सीनियर वकील मुवक्किल से उन्हें पैसे देने को कहते भी हैं।

भागलपुर कोर्ट के सीनियर वकील व भागलपुर बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष किशोर कुमार झा कहते हैं, 60 प्रतिशत वकील ऐसे हैं जो सामान्य दिनों में मासिक 10 हजार से 30 हजार रुपये की आय अर्जित कर पाते हैं। यह ऐसी आय है, जिससे एक निम्न मध्यमवर्गीय जीवन जीना भी मुश्किल है।

लंबे लाॅकडाउन का असर

कोरोना लाॅकडाउन का वकालत और कोर्ट-कचहरी के पेशे पर लॉकडाउन का त्रिआयामी दुष्प्रभाव पड़ा। पहला, यह कि वकालत एक फ्रीलांस या प्रैक्टिस आधारित पेशा है, जिससे वकीलों की कमाई अन्य क्षेत्रों की तरह 20-30 से 50 प्रतिशत तक नहीं गिरी, बल्कि 100 प्रतिशत गिरकर कुछ महीनों के लिए शून्य पर पहुंच गयी। 80 से 90 प्रतिशत वकील सामान्य आय अर्जित कर पाते हैं, इसलिए उनके परिवारों का काफी मुश्किल हालातों से गुजरना पड़ा। इस वजह से कई लोग पेशे से निष्क्रिय हो गए हैं।

दूसरा, ऐसे लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ा, जिनका कोर्ट में केस चल रहा था। सामान्य सजा काटने वालों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। गुजारा भत्ता पाने वाली महिलाओं, बुजुर्ग माता-पिता को नकदी प्रवाह में दिक्कतें झेलनी पड़ी, क्योंकि भत्ता देने वाले के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई लॉकडाउन के दौरान नहीं हो सकती थी।

हमारे देश में कोर्ट परिसर के आसपास का इलाका बाजारनुमा होता है, जहां संबंधित जिले के हजारों लोग अपने विभिन्न कामकाज से आते हैं। सैकड़ों परिवारों की जिंदगी कोर्ट परिसर की स्टेशनरी, जेराॅक्स व स्टांप की दुकानों, चाय-नाश्ते घरेलू उपयोग की अन्य दूसरी चीजों की दुकानों से चलती हैं। कोर्ट परिसर में चाय व फल की दुकान से लेकर कई अन्य दुकानें 99 प्रतिशत बेहद छोटी पूंजी से संचालित होते हैं और मामूली आय अर्जित कर पाते हैं। ऐसे में लॉकडाउन के दौरान उनके सामने न सिर्फ आजीविका का संकट उत्पन्न हुआ, बल्कि सिर पर कर्ज भी चढ़ गया।


लाॅकडाउन लंबा खिंच जाने की वजह से जो महिलाएं संबंधों में दरार पड़ने के बाद कोर्ट के आदेश के बाद पति से भरण-पोषण का मुआवजा पाती थीं उन्हें भी दिक्कत हुई। चूंकि निचली अदालत कोई एडवर्स आर्डर पास नहीं कर सकती थी, इसलिए कई मामलों में उनके पति की ओर से भुगतान रोक दिया गया। ऐसे ही मामले बुजुर्ग माता-पिता के भी थे, जिनका भरण-पोषण पर उनकी संतानों ने कोताही शुरू कर दी, क्योंकि कोर्ट से वारंट नहीं आ सकता था, पुलिस उन्हें अरेस्ट नहीं कर सकती थी।

भागलपुर कोर्ट में कैसे केस

भागलपुर कोर्ट में सबसे अधिक मामले दहेज प्रताड़ना व पति-पत्नी के घरेलू झगड़े के आते हैं। राजीव कुमार ईश्वर के अनुसार, ऐसे मामलों में केस मिसयूज हो रहे हैं, लोग बात नहीं समझते हैं और केस कर देते हैं।

60 प्रतिशत मामले दहेज प्रताड़ना के कोर्ट में आते हैं। बहला—फुसला कर शादी की नीयत से अपहरण के 20 प्रतिशत केस होते हैं, जिसके लिए आइपीसी की धारा 366ए है। 10 प्रतिशत मामले मारपीट एवं छिनैती के होते हैं और 10 प्रतिशत मामले गंभीर आपराधिक घटनाओं के।

सीनियर एडवोकेट किशोर कुमार झा अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं, वैवाहिक मामलों की अधिक संख्या की वजह मैंटल इगो है और ऐसे मामलों में पति—पत्नी में कम से कम किसी एक की ओर से परिवार का सहयोग नहीं मिलता है। हम ऐसे कई मामलों को दोनों पक्षों का विश्वास हासिल कर सुलझाते हैं और तब उन्हें भी लगता है कि कोई बड़ा मामला तो है नहीं।

कोर्ट की न्यायिक प्रक्रिया में सुस्ती क्यों?

हाइकोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि 31 मार्च 2021 तक कोई एडवर्स आर्डर पास नहीं किया जाएगा, इसलिए अदालत में क्लाइंट कम आते हैं और कोर्ट की कार्यवाही सुचारू नहीं हुई है। अदालत में कोविड प्रोटोकाॅल का पालन किया जाता है। वर्तमान में वर्चुअल माध्यम व कोर्ट रूम दोनों तरीके से सुनवाई हो रही है।

अनलाॅक की प्रक्रिया शुरू होने पर आरंभ में जब कोर्ट खुलना शुरू हुआ तो सिर्फ वर्चुअल तरीके से मामले सुने जाते थे। ई-फाइलिंग होती थी। वकीलों के तकनीक में कुशल नहीं होने की वजह से उन्हें इसमें दिक्कतें आती थीं, उस पर कोर्ट के पास डिजिटल सिस्टम के लिए मतबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं था, जिससे सर्वर डाउन रहने या किसी अन्य गड़बड़ी से मामलों का निष्पादन नहीं हो पाता था। यानी जब लाॅकडाउन में सरकार का डिजिटल तकनीक पर जोर था तो कोर्ट परिसर में उसके सुचारू नहीं होने का भारी आर्थिक नुकसान वकीलों को हो रहा था। उन दिनों को याद करते हुए एडवोकेट किशोर कुमार झा कहते हैं, हमारी परेशानी यह थी कि कुछ काम हो रहा था, लेकिन कोई रिजल्ट नहीं आ रहा था, बामुश्किल एक दो मामलों का निबटारा हो पाता था।

भागलपुर कोर्ट में इस समय एक जिला जज और 9 अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश हैं। हालांकि वकीलों का कहना है कि कार्य प्रक्रिया में तीव्रता के लिए इनकी संख्या बढाने की जरूरत है।

भागलपुर कोर्ट में जेंडर व कम्युनिटी गैप

भागलपुर बार एसोसिएशन के सदस्यों की संख्या 4900 है। इसमें तीन हजार अधिवक्ता सक्रिय हैं, जिनका नियमित रूप से कोर्ट आना जाना होता है। इनमें से करीब दो हजार बार एसोसिएशन की चुनाव प्रक्रिया को लेकर भी सक्रिय होते हैं और इतनी ही संख्या में मोटे तौर पर वोटिंग होती है।

भागलपुर संसदीय क्षेत्र के उपलब्ध जातीय आंकड़े से अगर पिछड़ों, अनुसूचित जातियों और मुस्लिमों के वकालत के पेशे में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की तुलना करें तो यह बहुत कम है। भागलपुर संसदीय क्षेत्र में 18.34 प्रतिशत मुस्लिम और इतनी ही संख्या में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग हैं। इसके बाद कुशवाहा, कुर्मी करीब 14 प्रतिशत हैं। यादव व कुछ अन्य जातियां संयुक्त रूप से करीब 30 प्रतिशत के आसपास हैं। इन जातियों के बाद ही पृथक रूप से अगड़ी जातियों का अलग-अलग प्रतिनिधित्व है। यानी अनुपातिक रूप से अगड़ी जातियों की कुल आबादी में एक तिहाई से भी कम हिस्सेदारी है, लेकिन उनकी वकालत के पेशे कुल हिस्सेदारी दो तिहाई से अधिक है।

पिछड़े वर्ग से आने वाले एडवोकेट ओमप्रकाश यादव कहते हैं, पिछड़ों का प्रतिनिधित्व वकालत के पेशे में 50 प्रतिशत के करीब है। हालांकि वे यह स्वीकार करते हैं कि आनुपातिक रूप से उनकी हिस्सेदारी कम है। वहीं एडवोकेट धर्मेंद्र कुमार यादव कहते हैं कि पिछड़े, अल्पसंख्यक व अनुसूचित जाति के लोग पहले से ही आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं, ऐसे में जब वे यहां आते हैं और कमाई नहीं होती है तो अन्य पेशों की ओर चले जाते हैं। महिलाओं के साथ भी यह बात है। इस वजह से उनका प्रतिनिधित्व और कम हो जाता है। लॉकडाउन ने जो हालात पैदा किये हैं, उससे वकालत के पेशे में पिछड़े तबकों से आने वाले युवाओं को सबसे ज्यादा मोहभंग हुआ है। वकालत छोड़ने वालों में बड़ी संख्या ऐसे ही युवाओं की है।

भागलपुर कोर्ट में बड़ा जेंडर गैप, सैलरी नहीं इसलिए महिलाएं कम

भागलपुर कोर्ट में करीब तीन प्रतिशत महिला वकील हैं। इनकी संख्या 150 के आसपास है। वरिष्ठ अधिवक्ता व भागलपुर बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष किशोर कुमार झा जेंडर गैंप पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि वकालत में महिलाओं की सक्रियता कम है, लेकिन यहां वह फासला और अधिक है।


सीनियर एडवोकेट भावना तिवारी कहती हैं, भागलपुर कोर्ट में करीब 150 महिला वकील हैं और वे हर तरह के मामलों को देखती हैं और कोर्ट में एपियर होती हैं। परिवार से किस हद तक इस पेशे को लेकर सहयोग है, इस सवाल पर उन्होंने कहा, परिवार का सपोर्ट है तभी महिलाएं काम कर पा रही हैं। वकालत के पेशे में स्थापित होने के लिए महिला हों या पुरुष, पारिवारिक पृष्ठभूमि मजबूत होना चाहिए।

वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता वीना कुमारी दास वकालत के पेशे में जेंडर गैप के सवाल पर कहती हैं नौकरी में जाने के साथ ही तनख्वाह मिलती है और यहां धीरे-धीरे प्राइक्टिस कर लोग स्थापित होते हैं और जो कमाई होती है उसी के आधार पर होती है। यह जरूरी नहीं है कि कोर्ट आने के साथ कमाई हो ही। टीचिंग व बैंकिंग के पेशे में सैलरी है और यहां प्रैक्टिस है। यह वजह है कि उन क्षेत्रों से यहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। लॉकडाउन ने ऐसी महिला वकीलों का भी साहस तोड़ा है जो तमाम वर्जनाओं को तोड़कर इस पेशे के अपनाती हैं, कई ने तो पेशा ही बदल दिया है।

वीना कुमारी कहती हैं कि किसी भी क्षेत्र में स्थापित होने के लिए आत्मविश्वास आवश्यक है। यहां सीखने के बाद आप काम कीजिएगा, तभी कुछ अर्जन होगा। हम लोग संघर्ष के साथ ही कुछ अर्जन करते हैं। लोगों में इतना धैर्य होना चाहिए कि आज मेहनत करेंगे तो आज नहीं तो कल आय होगी ही, लेकिन जो लोग ऐसा नहीं कर पाते वे यहां से दूर चले जाते हैं। वीना कुमारी दास 16 से 18 साल के बच्चों के द्वारा किए जाने वाले जघन्य अपराध मामलों की वकील व विशेष लोक अभियोजक हैं।

एडवोकेट ममता कुमारी पिछले 10 साल से भागलपुर कोर्ट में प्रैक्टिस कर रही हैं और क्रिमिनल मामलों को देखती हैं। वे कहती हैं कि उनका अनुभव भागलपुर कोर्ट में अच्छा रहा है और काफी कुछ सीखने को मिला है। हालांकि लॉकडाउन में महिला वकीलों के बहुत ज्यादा प्रभावित होने की बात को वह भी स्वीकार करती हैं।

नेहा शर्मा एक युवा वकील हैं, जो पिछले एक साल से कोर्ट में प्रैक्टिस कर रही हैं। वे इस बात को लेकर उत्साहित हैं कि उन्हें यहां काफी कुछ सीखने को मिला है। वे पेशे की आर्थिक अनिश्चितताओं से बेफ्रिक हैं और कहती हैं कि यह पेशा उन्हें काफी अच्छा लगता है, मगर इस बात से उनका भी इंकार नहीं है कि कोरोना लॉकडाउन के कारण महिला वकीलों पर पुरुषों की तुलना में ज्यादा असर पड़ा। जो लड़कियां उत्साह से इस पेशे को चुन रहीं थी, उनका इससे मोहभंग हो रहा है।

एडवोकेट शशि ठाकुर परिवार की ओर से महिला वकीलों पर बंदिश लगाए जाने की बात को खारिज करते हुए कहती हैं, हां, कोरोना के दौर में घर में यह कह जाता था कि संक्रमण से बचने के लिए थोड़ा परहेज करें व सतर्क रहें।

एडवोकेट प्रीति कुमारी स्वीकार करती हैं कि वकालत में महिलाएं कम हैं, जबकि टीचिंग व बैंकिंग जैसे सेक्टर में काफी संख्या में हैं। हालांकि स्पष्ट रूप से इसकी वजह चिह्नित नहीं करतीं, लेकिन उनकी झिझक इस पेशे की आर्थिक अनिश्चितताओं की ओर इशारा जरूर करती है।

भागलपुर लाॅ काॅलेज में प्राध्यापक चंद्रेश जेंडर गैप के सवाल पर अपने पिता के जमाने को याद करते हैं। उनके पिता भी भागलपुर कोर्ट में वकील थे और उनके समय में ही पहली महिला वकील स्टेला जुदा कोर्ट में आयी थीं, तो उनका वकील के रूप में कोर्ट परिसर में आना चर्चा का विषय बन गया था। वे कहते हैं कि स्टेला जुदा के वकील के रूप में प्रैक्टिस करने को एक असामान्य घटना के तौर पर लिया गया था। हालांकि चंद्रेश यह स्वीकार करते हैं कि लाॅ की छात्राएं छात्रों से पढाई और पेशे के प्रति अधिक गंभीर हैं।

मुसलमानों की कानूनी पेशे में कम भागीदारी क्यों?

मुस्लिम समुदाय से आने वाले भागलपुर कोर्ट के सीनियर वकील इनायतुल्ला खान मुस्लिमों की न्यायिक पेशे में कम हिस्सेदारी की बात को स्वीकार करते हैं। वे इसके पीछे शिक्षा को मुख्य वजह बताते हैं। खान कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का स्तर अभी कम है और जैसे जैसे वे अधिक संख्या में शिक्षित होंगे इस पेशे में भी उनकी हिस्सेदारी बढेगी।

इनायतुल्ला खान मुस्लिम वकीलों को प्रोत्साहित करते हैं और उनके साथ कई मुस्लिम वकील काम करते हैं। एडवोकेट मो शारिक मंजूर, अबु बशर, सैयद बिन मलिक उनके साथ काम करने वाले वकील हैं और ये लोग भी मुसलिम समुदाय के इस पेशे में कम भागीदारी को शिक्षा से जोड़ते हैं। इनका कहना है कि जिस तरह दलितों-पिछड़ों की तुलनात्मक रूप से इस पेशे में कम भागीदारी है, वही हाल मुस्लिमों का है और इस गैप को शिक्षा से ही भरा जा सकता है।

इनायतुल्ला खान लाॅकडाउन के कारण वकीलों की आजीविका प्रभावित होने की बात स्वीकारते हुए कहते हैं, यह पेशा हर दिन कमाई का है। ऐसे में इतने लंबे समय तक लॉकडाउन लग जाने पर वकालत से जुड़े ज्यादातर लोगों की भूखों मरने की नौबत आ गयी। लाॅकडाउन की वजह से जिस व्यक्ति को एक दो महीने जेल में गुजारना था, उसे सात से नौ महीने जेल के अंदर रहना पड़ा। सुनवाई में दिक्कतों की वजह से जेल में बंद कैदी को परेशानी हुई है। लाॅकडाउन के दौरान भागलपुर बार एसोसिएशन ने एक बार 1500 व स्टेट बार काउंसिल ने दो हजार रुपये की आर्थिक मदद वकीलों को दी, मगर यह उंट के मुंह में जीरा की तरह था।


लाॅकडाउन में सिर्फ बहुत जरूरी मामलों की सुनवाई

लाॅकडाउन के पहले चरण में कोर्ट का कामकाज पूरी तरह से ठप पड़ गया। फिर जब सरकार की ओर से जून महीने में छूट दी जानी शुरू हुई, अनलाॅक की प्रक्रिया शुरू हुई तो वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए बेहद जरूरी मामलों की सुनवाई आरंभ हुई।

1977 से भागलपुर कोर्ट में वकालत कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता नभय कुमार चौधरी अपने 43 साल के इस पेशे का अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि इससे पहले ऐसे हालात कभी नहीं देखा था और यह सब कल्पना से परे था। कहते हैं कि दुर्गा पूजा के आसपास से हमलोगों ने रेगुलर कोर्ट आना शुरू किया और वह अब भी पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो सकी है।

वरिष्ठ अधिवक्ता किशोर कुमार झा कहते हैं, जब अदालत में वर्चुअली अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई आरंभ हुई तो एक दो मामले ही टेकअप हो पाते थे, डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर था नहीं और सर्वर डाउन होने से पूरा पीरियड खत्म हो जाता था। इंटरनेट की खराब कनेक्टिविटी से भी दिक्कत होती थी। काम नहीं हो पाने की वजह से लोगों को उस अवधि में अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा। कोर्ट आर्डर होने पर बेल बाउंड में परेशानी होती थी। भागलपुर में गिरफ्तार होने वालों के लिए उस समय और अभी भी कोई क्वारंटीन सेंटर नहीं है। यह सुविधा पड़ोस के जिले मुंगेर में थी और ऐसे में वकालतनामा व बेल बाउंड में हस्ताक्षर कराने के लिए वहां जाना होता था।

अधिवक्ता किशोर कुमार झा कहते हैं, किसी अभियुक्त का बेल बाउंड सेंट्रल, जेल कैंप जेल व महिला वार्ड जाता था फिर वहां से उसे मुंगेर भेजा जाता था। उस समय दिन भर में 10 से 20 मामले ही निबटाये जाते थे।

अदालत परिसर में आज भी आम लोगों का प्रवेश वर्जित है। संबंधित मुवक्किल को संबंधित कोर्ट से अंदर जाने के लिए पास लेना होता है और यह पेशकार व कोर्ट के दूसरे कर्मचारियों से मिलता है। बिहार में वकीलों के लिए निचली अदालत में पास आवश्यक नहीं है, लेकिन हाइकोर्ट में यह उनके लिए भी जरूरी है।

अधिवक्ता किशोर कुमार झा इस बात का भी उल्लेख करते हैं कि लाॅकडाउन के बाद जिस तरह मामलों का निबटारा होता है, उससे वकीलों के आत्मसम्मान में कमी आयी है। उन्हें सीटिंग अरेजमेंट के लिए इंजतार करना होता है। झा का कहना है कि जजों की सेफ्टी के लिए सरकार की तरफ से बहुत कुछ किया गया है, लेकिन अधिवक्ताओं के लिए वैसे उपाय नहीं हुए हैं।

भागलपुर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अभयकांत झा कहते हैं, कोई ऐसा वर्ग नहीं है, जिसे कोरोना काल में सरकारी मदद नहीं मिली हो, लेकिन वकीलों का तबका इससे वंचित रहा। हमने वकीलों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति लेकर स्टेट बार काउंसिल, पटना व बार काउंसिल आफ इंडिया, नई दिल्ली को पत्र लिखा था। इसके बाद जिला विधिज्ञ संघ ने जरूर वकीलों को 1500 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से सहायता राशि दी और इस मद में 42 लाख रुपये खर्च किए, मगर 1500 रुपये से आखिर किसी की कितनी आर्थिक मदद होती।

सीनियर वकील पंकजानंद झा का दर्द उनकी बातों में झलक आता है, कहते हैं, लाॅकडाउन के दौरान वकीलों की कमाई एकदम बंद हो गयी। उस पर सरकार की अनाज वितरण सहित अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले किसी भी प्रकार के सहायता से वकील वंचित रहे। वकीलों को इस लाभ से सिर्फ इस वजह से वंचित कर दिया गया कि वकालत एक स्टैंडर्ड पेशा है और हम इस वजह से उसके दायरे में नहीं आते हैं।

नए वकीलों के लिए कितनी संभावना?

वकीलों में सीनियर और जूनियर का भेद कितना अधिक है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि एक सीनियर वकील ने बातचीत करने से बगल में बैठे एक वकील को सिर्फ इसलिए रोक दिया कि वह उनकी परिभाषा के अनुसार जूनियर हैं। करीब 60 साल की उम्र के वकील ने कहा, यह क्या बताएगा, इसके सीनियर से बात कीजिएगा वो अभी नहीं हैं। यह हस्तक्षेप 50 वर्ष की उम्र के उन कथित जूनियर वकील के लिए असहज था।

नए वकीलों को आगे बढने, केस हासिल करने व स्थापित होने के लिए खासी मशक्कत करनी होती है। कई सीनियर वकीलों से चर्चा के यह तथ्य खुलकर सामने आया कि 10 से 20 प्रतिशत वकीलों के पास 50 प्रतिशत मामले हैं।

अधिवक्ता गंगेश कुमार कहते हैं जूनियर वकीलों की स्थिति गंभीर है। उनके पास अपना ब्रीफ नहीं होता है और वे सीनियर्स का ही काम करते हैं।

सीनियर एडवोकेट किशोर कुमार झा वकीलों की आर्थिक दशा पर चर्चा के दौरान एक शब्द का प्रयोग करते हैं, साइलेंट बेरोजगारी। वे कहते हैं कि 1988 से मैं इस कोर्ट में आ रहा हूं और महसूस करता हूं कि हम वकीलों के बीच एक बड़ा तबका है जो पहले से साइलेंट बेरोजगारी झेल रहा है, लॉकडाउन ने इसमें और ज्यादा इजाफा किया है।

किशोर कुमार कहते हैं, 'दरअसल बड़ी संख्या में ऐसे वकील हैं जो घर से हर दिन पूरी तैयारी के साथ कोर्ट आते हैं, ऐसा लगता है कि वे काम में व्यस्त हैं और हर दिन अदालत परिसर आ रहे हैं, लेकिन वास्तव में उनके पास काम नहीं होता। लॉकडाउन ने तो पहले से ही भारी आर्थिक दिक्क्तों से जूझते वकालत पेशे से जुड़े लोगों की हालत खराब की है।'

किशोर कुमार झा कहते हैं, ब्रीफ का केंद्रीकरण तोड़ना जरूरी है, दूसरे बार में भी यही स्थिति है। वे खुद के बारे में दावा करते हैं कि उन्होंने अपने जूनियर वकीलों को प्रमोट करने के लिए हमेशा प्रयास किया है।

भागलपुर लाॅ काॅलेज के प्राध्यापक चंद्रेश इस संबंध में पूछने पर जवाबी सवाल करते हैं, एलएलबी कर बहुत सारे वकील लोगों की हलफनामा व अन्य दूसरे कागजात 100-200 रुपये में बनवाते नजर आते हैं, क्या यह वकील का काम है?


अधिवक्ता हित की बात कौन करे, जब संघ में ही हो द्वंद्व

भागलपुर कोर्ट के सीनियर वकील राजीव कुमार सिंह वकीलों की स्थिति पर चर्चा के दौरान संगठन के आपसी द्वंद्व व कमजोरी को चिह्नित करते हुए कहते हैं, संगठन के अंदर द्वंद्व है, भागलपुर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष व महासचिव में ही टकराव है। आपसी तालमेल नहीं होने की वजह से जरूरतमंद वकीलों को कोई आवश्यक मदद नहीं मिल पाती है। राजीव कुमार सिंह वकीलों के बीच जातीय गोलबंदी की बात भी कहते हैं और इस कारण उनका हित प्रभावित होने पर अफसोस व्यक्त करते हैं।

एक वकील ने नाम की गोपनीयता की शर्त पर कहा कि बार के चुनाव में जातीय समीकरण पूरी तरह से काम करता है। आपकी जातीय पहचान के आधार पर जिस तरह लोग आपके पास आने की कोशिश करते हैं या आपको अपने पास करने की कोशिश करते हैं, उसी तरह दूर जाने या दूर करने की कोशिशें की जाती हैं।

बार की राजनीति में वकीलों का हित प्रभावित होता है और इसके शिकार वैसे वकील अधिक होते हैं, जो अभी पेशे में जम नहीं पाये हैं। जातीय गोलबंदी के कारण युवा वकीलों को आगे बढने व स्थापित होने के लिए भी अधिक मशक्कत करनी होती है और अंततः इससे उन्हें आर्थिक क्षति होती है।

एडवोकेट राजीव कुमार ईश्वर कहते हैं, 50 युवा वकील होंगे, जिनका तीन से पांच हजार का मेडिकल बिल एसोसिएशन से पास नहीं हुआ है, जबकि सीनियर वकीलों का बड़ा मेडिकल बिल भी पास हो जाता है। जो संगठन के पदाधिकारी हैं कि उनका एक लाख से दो लाख तक का मेडिकल बिल भी पास हो जाता है। ग्रुप इंश्योरेंस जैसे आसान व सस्ते विकल्प को भी नहीं अपनाया गया है।

वहीं, भागलपुर बार एसोसिएशन के महासचिव संजय कुमार मोदी व उपाध्यक्ष किशोर कुमार झा पर्याप्त फंड नहीं होने की बात कहते हैं। झा कहते हैं कि हमारे संगठन के पास जितना कोष है, उस हिसाब में हम जरूरतमंदों की पर्याप्त मदद की कोशिश करते हैं। वहीं, राजीव कुमार ईर एक अदालती पेपर, क्लाइंट की हाजिरी के लिए शपथ पत्र दिखाते हुए कहते हैं कि दो रुपये खर्च वाले इस पेपर को हम एसोसिएशन से 100 रुपये में खरीदते हैं। उनका कहना है कि बार को हर दिन 70 से 80 हजार रुपये का संग्रह होता है।

कोरोना ने कितनी तोड़ी कमर?

भागलपुर बार एसोसिएशन के महासचिव संजय कुमार मोदी के मुताबिक कोरोना में वकीलों की स्थिति बद से बदतर हो गयी, पर सरकार से कोई मदद नहीं मिली। एसोसिएशन ने सभी वकीलों को 1500 रुपये की आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी। जरूरतमंद वकील पैसों के अभाव में दम तोड़ देते हैं और उनकी सामाजिक सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। सरकार से हमने मांग की थी और इसके लिए धरना-प्रदर्शन भी किया गया था। संजय कुमार दावा करते हैं कि लॉकडाउन के दौरान भागलपुर कोर्ट के दर्जन भर वकील मरे हैं, जिसका बड़ा कारण आर्थिक संकट भी रहा है।

मुवक्किलों को किस तरह से परेशानी हुई

भागलपुर के अकबरनगर के खैरेहिया गांव के रहने वाले शिशिर रंजन सिंह भागलपुर विश्वविद्यालय में कंप्यूटर साइंस के पीएचडी छात्र हैं और छात्र नेता भी हैं। विश्वविद्यालय व गांव में भूमि विवाद से जुड़े मामलों को लेकर वे कई केस-मुकदमे का सामना कर रहे हैं।

शिशिर लाॅकडाउन के असर के बारे में बताते हुए कहते हैं, पिछले साल मार्च में एक वारंट जारी करवाया और उसी दौरान लाॅकडाउन लग गया, वारंट थाना नहीं पहुंच सका तो वह व्यक्ति आजाद घूम रहा है। वे कहते हैं कि अगर सही से मामला चले तो उस व्यक्ति को या फिर मुझे जो दोषी साबित होगा उसे सजा होगी और केस भी खत्म होगा। अगर मामलों का स्पीडी ट्रायल हो तो लोग परेशानी से बचेंगे।

भागलपुर जिले के ही अंबेसालेपुर के रहने वाले सुनील कुमार झा CISF में नौकरी करते हैं और उन पर दहेज प्रताड़ना का आठ साल पुराना केस है। सुनील झा और उनके बड़े भाई अनिल झा पर दहेज प्रताड़ना व 302 का मामला है। उनका केस पहले से लंबा खिंच रहा था और लाॅकडाउन के कारण वह और लंबा खिंच गया। सुनील का दावा है कि घटना के वक्त वे कोलकाता में नौकरी पर थे और उनकी पत्नी के साथ घटित हुई घटना हत्या नहीं आत्महत्या का मामला था, भले ही ससुराल पक्ष ने उन पर मुकदमा कर दिया हो। लाॅकडाउन के दौरान उनके मामले की सुनवाई भी लंबित हो गयी।

भागलपुर के नवगछिया के खरीक के रहने वाले मो अफसार अंसारी का भागलपुर कोर्ट में सिविल मामला चल रहा है। भूमि विवाद से जुड़े मामले को लेकर उनका भी मामला लंबा खींच गया है और वे भागलपुर आने जाने से परेशान हैं। अफसार अंसारी भागलपुर में परंपरागत रूप से होने वाली बुनकरी का काम करते हैं और उन्हें अपना काम रोक कर अदालत का चक्कर लगाना होता है।

भागलपुर शहर के ही हुसैनाबाद के रहने वाले आरिफ खान अपने दामाद के मामले को लेकर लगातार कोर्ट का चक्कर लगा रहे हैं। उनका कहना है कि उनके दामाद को झूठे मामले में फंसा दिया गया है। भागलपुर के भीखनपुर के बदरी राय ने अपने किसी रिश्तेदार को पैसे दिए थे और अब वह पैसे नहीं लौटा रहा है, जिसके बाद उन्होंने कोर्ट से वारंट नोटिस जारी करवाया और थाने में शिकायत दर्ज करायी।

सीनियर वकील व एसोसिएशन के अध्यक्ष अभयकांत झा कहते हैं, दो कोर्ट अभी भी वर्चुअल है और बाकी फिजिकल हो चुके हैं, लेकिन काम गति नहीं पकड़ पाया है। करीब एक हजार जमानत आदेश लंबित हैं, पटना हाइकोर्ट में इसकी संख्या 20 हजार के करीब होगी।

रेहड़ी-पटरी और स्टेशनरी वालों का हाल

39 साल के प्रमोद कुमार तांती भागलपुर कोर्ट परिसर में ही एक छोटी गुमटी चलाते हैं। वे बताते हैं, दुकान अब भी पिछले साल के फरवरी महीने जैसी रफ्तार से नहीं चल रही है। उस समय की तुलना में आधी बिक्री है। शायद लोगों की कम आवक की वजह से ऐसा है।

उन्होंने लाॅकडाउन में एक वकील से 20 हजार रुपये कर्ज लेकर गुजारा किया। कहते हैं कि चार एलआइसी पाॅलिसी है और सबका प्रीमियम बकाया है। दो बच्चे हैं जिनकी ट्यूशन बंद है और स्कूल की फीस नहीं भर पाये हैं। कोर्ट परिसर में ही उनके पिता सुरेश तांती सत्तू की दुकान चलाते हैं। पिछली साल जब ठंड खत्म हो गयी थी तब एक क्विंटल सत्तू उनके पिता ने तैयार करवाया, लेकिन लाॅकडाउन लग जाने के कारण पूरी गर्मी दुकान बंद रही और उसकी बिक्री नहीं हो सकी।

लॉकडाउन में नौ महीने तक दुकान बंद रही और ये महिलायें कर्ज से गुजारा करने को हुईं मजबूर

कोर्ट में फुटपाथ पर फल बेचकर गुजारा करने वाली पूनम देवी-रीना देवी कहती हैं, नौ महीने उनकी दुकान बंद रही और वे कर्ज कर गुजारा करने को मजबूर रहीं। इस दौरान उन्होंने काॅपरेटिव की मदद ली। बीच में कुछ समय आम बेचकर गुजारा किया। महत्वपूर्ण बात यह कि प्रमोद कुमार तांती हो या पूनम व रीना इन सबने पूछने पर रेहड़ी-पटरी वालों को मिलने वाले 10 हजार रुपये की मदद मिलने से इनकार किया, जिसकी घोषणा मोदी सरकार ने लाॅकडाउन के दौरान 20 लाख करोड़ के पैकेज के तहत की थी।

मो कमरुद्दीन टाइपिस्ट हैं और पुरानी मशीन पर पर टाइम कर अपना गुजारा करते हैं। सबौर के फतेहपुर से वे आटो से भाागलपुर कोर्ट आते हैं और लाॅकडाउन के दौरान कामबंदी की वजह से उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। वे कहते हैं कि पिछले साल की तुलना में इस वक्त काम मात्र 40 प्रतिशत ही है। और, यह अकेले कमरुद्दीन की वास्तविकता नहीं है, बल्कि कोर्ट परिसर में सक्रिय 10 में नौ व्यक्ति का यही हाल है।

(यह रिपोर्ट ठाकुर फैमिली फाउंडेशन द्वारा समर्थित एक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस प्रोजेक्ट पर किसी तरह का कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं रखा है।)

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