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जनज्वार विशेष

Ground Report : सरकारी बदइंतजामी से बिहार में 'जीविका' से जुड़ीं गरीब-बेसहारा महिलायें बदहाल, दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी हुआ मुश्किल

Janjwar Desk
9 Sep 2020 9:16 AM GMT
Ground Report : सरकारी बदइंतजामी से बिहार में जीविका से जुड़ीं गरीब-बेसहारा महिलायें बदहाल, दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी हुआ मुश्किल
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बुधनी देवी : लॉकडाउन के बाद 2 वक्त की रोटी का जुगाड़ भी हुआ मुश्किल

सतत जीविकोपार्जन योजना के तहत शराबबंदी के बाद बेरोजगार हुए लोगों और कमजोर तबके की विधवा महिलाओं को स्वरोजगार उपलब्ध कराया जाता है, लेकिन लॉकडाउन और अन्य सरकारी योजनाओं का फायदा न मिलने से इनकी आजीविका पर बहुत बुरा असर पड़ा है...

बिहार के किशनगंज से हेमंत कुमार पाण्डेय की रिपोर्ट

'हमने दुकान से जो कमाई की थी, उसमें से कुछ पैसा घर के खर्चे में खत्म हो गया। इसी बीच लॉकडाउन भी हो गया था। इसके चलते दुकान भी बंद हो गया...और फिर बच्चे की भी तबियत खराब हो गई। इसमें भी पैसा खर्च कर लिए। अब थोड़ा बहुत पैसा बैंक खाते में बचा हुआ है, लेकिन उसमें भी लॉक (निष्क्रिय) लग गया।' ये कहना है बिहार के किशनगंज जिले स्थित बहादुरगंज की 32 वर्षीय बुधनी देवी का।

बुधनी देवी आदिवासी समुदाय से आती हैं। उन्होंने दलित से शादी की थी। करीब दो साल पहले उनके पति उमेश लाल हरिजन की मौत बीमारी चलते हो गई थी। वे घर के करीब स्थित लोहागाडा हाट में पान की दुकान चलाते थे। उमेश लाल की मौत के बाद घर की सारी जिम्मेदारी गर्भवती बुधनी देवी पर ही आ गई थी। इस गर्भवती विधवा महिला के लिए अपना पेट और इसके भीतर पल रहे बच्चे को पालना मुश्किल था, उस पर दो अन्य छोटे बच्चों की भी जिम्मेदारी थी। शुरुआत में बुधनी को करीबी रिश्तेदारों से मदद मिली थी। लेकिन इससे घर को चला पाना काफी तकलीफों से भरा था।

हालांकि, बुधनी की इस मुश्किल को काफी हद तक कम करने का काम 'जीविका' ने किया। यह बिहार सरकार द्वारा संचालित परियोजना है, जो राज्य में गरीबी निवारण के लिए काम करती है। इसके तहत महिलाओं का स्वयं सहायता समूह का बनाया जाता है। इसके जरिए कम ब्याज दर पर कर्ज देने के साथ जीविकोपार्जन के लिए साधन मुहैया कराई जाती है। इस परियोजना के तहत कई तरह की योजना चलाई जा रही हैं। इनमें से ही एक सतत जीविकोपार्जन योजना है।

इस योजना की शुरुआत 26 अप्रैल, 2018 को हुई। इसका मुख्य मकसद वैसे लोगों को उनकी आजीविका के साधन उपलब्ध करवाना था, जिनका रोजगार राज्य में पूर्ण शराबबंदी के बाद खत्म हो गया। इनमें देसी शराब और ताड़ी के व्यापार से जुड़े लोग हैं। इसके अलावा गरीब और बेसहारा विधवा महिला को भी इसमें प्राथमिकता दी गई। वहीं, इसके बाद आदिवासी और दलित तबके की गरीब महिलाओं को जोड़ने की योजना है।

बताया जाता है कि योजना शुरू होने के दो साल के भीतर इसमें एक लाख महिलाओं को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था, जिसे पूरा कर लिया गया है। सतत जीविकोपार्जन योजना के लाभार्थियों को स्वरोजगार शुरू करने के लिए 60 हजार रूपये से लेकर एक लाख रुपये तक की आर्थिक मदद दी जाती है। इस रकम को वापस करना नहीं होता है।

इस योजना की लाभार्थियों की सूची में बुधनी देवी का भी नाम है। उन्होंने हमें बताया कि पिछले साल अक्टूबर में इस योजना के तहत अपना दुकान शुरू करने के लिए वित्तीय मदद मिली थी। इससे उन्होंने अपने पति के पान की दुकान को फिर से शुरू किया। मार्च के आखिरी हफ्ते में लॉकडाउन होने से पहले हाट के दिन उनकी 500 रुपये तक की कमाई हो जाती थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते उनकी अपनी दुकान बंद हो गयी और इसके साथ ही उनकी कमाई भी।

बुधनी कहती हैं, 'लॉकडाउन में तीन महीने दुकान बंद रही। कुछ भी आमदनी नहीं हुई। उसके बाद दुकान खुली भी है तो पहले की तरह कमाई नहीं है। अब दुकान में सामान नहीं होने से बिक्री भी नहीं हो पा रही है। ऊपर से एक-डेढ़ महीने से बच्चे की तबियत खराब है। वह तो जीविका से पैसा मिला तो काम चल रहा है।'

दरअसल, बुधनी को जीविका से मिले पैसे को अपने कारोबार में लगाना था, लेकिन लॉकडाउन में दुकान बंद होने और बच्चे की तबियत खराब होने के चलते उसने इसे दूसरे चीजों पर खर्च कर दिया। अब उसका कारोबार पहले से मंदा चल रहा है। उधर, बच्चे की इलाज पर वह अब तक 6,000 रुपये से अधिक खर्च कर चुकी हैं।

जब बुधनी से पूछा कि उन्होंने अस्पताल में बच्चे का इलाज क्यों नहीं करवाया। इस पर उनका जवाब था, 'बहादुरगंज में सरकारी अस्पताल है...मालूम है। लेकिन इसके बारे में और जानकारी नहीं है।' यानी उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि सरकारी अस्पताल में किस तरह इलाज करवाया जाता है और न ही इस बारे में उनकी मदद करने वाला कोई है।

इसके अलावा लॉकडाउन ने अन्य तरीकों से भी बुधनी देवी जैसी गरीब और वंचित समाज से आने वाली इस योजना के लाभार्थियों को प्रभावित किया। सतत जीविकोपार्जन योजना के तहत कारोबार शुरू करने के सात महीने तक 1000 रुपये प्रत्येक माह दिया जाता है, जिससे लाभार्थी कारोबार शुरू करने के जोखिम को झेल सके और उनके घर का खर्चा चलता रहे। लेकिन देशव्यापी लॉकडाउन (तीन महीने) तक इन्हें ये भी न मिला।

इसकी वजह इस बहादुरगंज के ब्लॉक रिसोर्स पर्सन (बीआरपी) आमिर खान बताते हैं। इस ब्लॉक की 300 से अधिक लाभार्थियों के कारोबार की निगरानी करते हैं। वे हमें बताते हैं, 'जीविका में किसी फंड को पास करने का काम ग्राम संगठन (वीओ) का होता है। इसकी बैठक में फैसला लिया जाता है। लेकिन लॉकडाउन के चलते लोगों के समूह में इकट्ठा होने पर लोग लगी हुई थी। इसके चलते पैसा पास नहीं हो पाया। लॉकडाउन के कारण हमें भी बहुत सारी समस्याओं से जूझना पड़ा।'

बहादुरगंज के ब्लॉक रिसोर्स पर्सन (बीआरपी) आमिर खान

आमिर हमें बताते हैं, 'लॉकडाउन से पहले हम भी इनके बीच बराबर आ रहे रहे थे। ये लोग बहुत अच्छा बिजनेस कर रही थीं। लेकिन लॉकडाउन के चलते इन लोगों का भी काम बंद हो गया और हम लोगों का भी आना कम हो गया। बात क्या है कि इनका आत्मविश्वास (कारोबार को लेकर) कम होता है। अगर हमारा विजिट नहीं होता है तो इन लोगों का बिजनेस प्रभावित हो जाता है। हम लोग इन्हें मोटिवेट करते रहते हैं।'

लॉकडाउन के चलते इस योजना की एक अन्य लाभार्थी 35 वर्षीय अनवरी खातून का भी कारोबार प्रभावित हुआ है। उनकी पान-स्नैक्स और अन्य चीजों की दुकान नेशनल हाईवे के किनारे ही है। उनके पति का देहांत साल सात पहले हुआ था। इसके चलते पांच छोटे-छोटे बच्चों की जिम्मेदारी उन पर आ गई थी।

अनवरी कहती हैं, 'पति के गुजरने के बाद परिवार में बहुत दिक्कत हुई। लास्ट में हम चले गए मांगने (भीख) के लिए। लोगों से मांगकर हम बहुत मुश्किल से बच्चों को पाले। कभी किसी का काम करते थे। कभी खाते थे- कभी भूखे रह जाते थे। इसके बाद जीविका में जुड़ गए। इसके बाद घर की स्थिति थोड़ी ठीक हुई।'

लेकिन लॉकडाउन ने उनकी आजीविका पर भी बुरा असर डाला है। वे हमसे कहती हैं, 'पहले रोज 1200-1300 रुपये का सामान बेचते थे। अब 700 के आसपास ही बेच पाते हैं और इससे 60-70 रुपये के आसपास ही कमाई हो पाती है। अब केवल इसी से खर्च नहीं चल पाता है।' अनवरी कहती हैं कि उनका बड़ा बेटा भी कुछ काम लेता है, जिससे घर का खर्चा चल पाता है।

अन्य सरकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं

अनवरी का नाम गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) परिवारों की सूची है। वे उज्ज्वला योजना का लाभार्थी भी हैं। लेकिन जब हम उनके घर पहुंचे तो उनका एक बच्चा मिट्टी के चूल्हे के पास खाना खाता हुआ दिखा। उसके बगल में कुछ जलावन भी रखा हुआ था। हमने उनसे पूछा कि वे जलावन से खाना क्यों बनाती हैं? क्या मुफ्त गैस सिलिंडर नहीं मिला है? इनके जवाब में अनवरी हमें बताती हैं, 'दो महीना के गैस का पैसा बैंक खाते में आया था, उसके बाद नहीं आया, इसलिए दो बार ही सिलिंडर भरा पाए। सिलिंडर भराने का पैसा नहीं होता है। आसपास जलावन (या फसलों के अवशेष) मिल जाता है।'

अनवरी देवी : पान-परचून की दुकान से दिनभर कमाई हो पाती है मात्र 60—70 रुपये

इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों को छह महीने (अप्रैल-सितंबर) तक फ्री में गैस सिलिंडर देने का एलान किया था। शुरुआत में यह केवल तीन महीने के लिए था, जिसे बाद में बढ़ाकर छह महीने के लिए किया गया।

वहीं, केंद्र सरकार और बिहार की नीतीश कुमार की सरकार के दावे के बावजूद बुधनी देवी को लॉकडाउन होने के बाद से अब तक सरकारी अनाज का एक भी दाना नसीब नहीं हुआ है। वे हमसे कहती हैं, 'पहले राशन कार्ड था। वह पति के नाम से था, लेकिन अब हमको नहीं मिलता है। डीलर (सरकारी राशन की दुकान) के पास गए थे राशन लेने के लिए लेकिन हमको नहीं मिला, बोला कि राशन कार्ड होने पर मिलेगा।'

करीब दो साल पहले जब बुधनी देवी के पति की मौत हुई थी, उसके बाद से ही उन्हें सरकारी राशन नहीं मिल रहा है। वे कहती हैं कि अब तक उन्हें राशन कार्ड नहीं मिला है। वहीं, बिहार सरकार प्राथमिकता के स्तर पर राशन कार्ड बनाने का दावा करती रही हैं।

इस बारे में बीआरपी आमिर कहते हैं, 'राशन कार्ड बनाने का काम जीविका को दिया गया था। इसके तहत सतत जीविकोपार्जन योजना के लाभार्थियों के लिए अलग से फाइल बनाया गया और इन्हें प्राथमिकता देने की बात कही गई है। इनमें सब का नाम सूची में आ गया है। प्रिंटआउट कराकर सबको एक साथ दे देंगे।'

इस तरह बुधनी देवी न केवल खाद्य सुरक्षा योजना के तहत मिलने वाले अनाज से अब तक वंचित है, बल्कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज और एक किलो दाल (प्रति परिवार) भी नहीं मिल पाया। केंद्र सरकार ने अब नवंबर तक इसे जारी रखने का ऐलान किया हुआ है।

PM मोदी के दावों के उलट अनवरी बताती हैं हकीकत, उज्जवला योजना के तहत सिर्फ दो बाद आया गैस का पैसा खाते में

वहीं, बुधनी देवी से जब हमने सवाल किया कि क्या बच्चों की किताबों और मिड-डे मिल का पैसा उन्हें मिला? इस पर उनका सीधा सा जवाब था, 'इनका पैसा नहीं मिला है। बैंक गए थे तो बोला कि खाता बंद हो गया।' बिहार सरकार ने सरकारी स्कूल के बच्चों की किताबों और मिड-डे मिल के के पैसे बच्चों या उनके माता-पिता के बैंक खाते में भेजने की बात कही है।

करीब तीन महीने के लॉकडाउन के दौरान और इसके बाद की कई सर्वे रिपोर्टों और जीडीपी के आंकड़े ये साफ-साफ बताते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था बहुत ही संकट की स्थिति में है। साथ ही बड़ी तादाद में लोग बेरोजगार हुए हैं। उद्योग-धंधों पर इसका बुरा असर पड़ा है। लोगों की कमाई कम हुई है। लेकिन बिहार की मुस्लिम बहुल किशनगंज की बुधनी और अनवरी की ये कहानियां बताती हैं कि लॉकडाउन के साथ-साथ अन्य सरकारी योजनाओं की जमीन पर बुरी स्थिति ने राज्य की सबसे कमजोर और जरूरतमंद महिलाओं और इनके परिवारों को राहत देने में नाकाम रहा है।

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