Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

अडानी अम्बानी के हित को देशहित बताना और जो न माने उनपर लाठी बरसाने को ही कहते हैं मोदीराज

Janjwar Desk
20 Dec 2020 9:37 AM IST
अडानी अम्बानी के हित को देशहित बताना और जो न माने उनपर लाठी बरसाने को ही कहते हैं मोदीराज
x
खुले पत्र के जरिये केंद्रीय कृषि मंत्री ने अडानी-अंबानी के व्यापारिक-व्यावसायिक हितों को किसानों का राष्ट्रीय हित साबित करने की कसरत की है...

संजय पराते की टिप्पणी

जनज्वार। हाल ही में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस देश के किसानों के लिए खुला पत्र लिखा है और कृषि कानूनों की खूबियां गिनाते हुए इसके खिलाफ चल रहे देशव्यापी किसान आंदोलन को खत्म करने की गुजारिश की है। दरअसल इस खुले पत्र के जरिये उन्होंने अडानी-अंबानी के व्यापारिक-व्यावसायिक हितों को किसानों का राष्ट्रीय हित साबित करने की कसरत की है।

इसके लिए उन्होंने किसानों की आड़ में कुछ 'राजनीतिक दलों व संगठनों द्वारा रचे गये कुचक्र' से लेकर 'पूज्य बापू का अपमान', 'दंगे के आरोपियों की रिहाई', '62 की लड़ाई', 'भारत के उत्पादों का बहिष्कार' आदि-इत्यादि का मसालेदार छौंक भी अपने पत्र में लगाया है, जिसका किसान आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन यह वह खास संघी मसाला है, जिसके बिना उसकी पहचान पूरी नहीं होती और खाकी पैंट के नीचे की चड्डी भी नहीं दिखती।

चूंकि तोमर को यह चड्डी दिखाने में हिचक नहीं है, इसलिए यह साफ है कि वे भारतीय गणराज्य के केंद्रीय मंत्री की जगह एक ऐसी कॉर्पोरेटपरस्त पार्टी के कार्यकर्ता की भूमिका निभा रहे हैं, जो आज़ादी के आंदोलन में अपनी अंग्रेजपरस्त भूमिका के लिए जानी जाती है और आज़ादी के बाद का जिसका इतिहास केवल आम जनता की वर्गीय एकता को तोड़ना भर रहा है।



पिछले लगभग एक माह से पूरे देश के किसान दिल्ली की सीमाओं पर जमे बैठे हैं, इसलिए कि दिल्ली में बैठकर पूरे देश के किसानों को हुक्म देने वाली सरकार में इतना साहस नहीं है कि दिल्ली बुलाकर इन किसानों की बात सुन लें। इन किसानों की एक ही मांग है कि उन्हें बर्बाद करने वाले इन कानूनों को वापस लिया जाए और इससे कम कुछ भी उन्हें मंजूर नहीं।

सुप्रीम कोर्ट भी उन्हें वहां से हटने का आदेश देने से इंकार कर चुकी है और सरकार को चेतावनी भी दे चुकी है कि किसानों को उकसाने की कार्यवाही से बाज आएं। लाखों किसान दिल्ली को घेरे बैठे हैं और इससे घबराई सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र ही न बुलाने की घोषणा कर दी है।

एक ओर पूरा देश इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन को देख रहा है, उसके समर्थन में खड़े हो रहा है, वही दूसरी ओर सरकार के झूठ की मशीन पूरे दम-खम से काम कर रही है। सरकारी मिथ्या प्रचारकों को अब किसान अन्नदाता नहीं दिख रहे हैं, वे उसमें खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी, देशद्रोही आदि-इत्यादि की झलक देख रहे हैं। उनकी नजर इस आंदोलन को सहेजने-संभालने में लगे सेवाभावी लोगों पर और इसके बावजूद तीन दर्जन लोगों की शहादतों पर नहीं जाती, लेकिन इस आंदोलन के पीछे होने वाली कथित अदृश्य फंडिंग पर जरूर चली जाती है।

यही सब अनर्गल प्रलाप तोमर के पत्र में भी साफ-साफ झलकता है। अपने पत्र में वे जो दावे कर रहे हैं, उसकी सच्चाई से सभी अवगत हैं और इसलिए इस खुले पत्र के समर्थन में व्हाट्सएप्प विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों और कुछ फर्जी किसान संगठनों के सिवा और कोई नहीं दिखा है। किसान विरोधी कृषि कानूनों के संदर्भ में तोमर के दावे और उसकी सच्चाई इस प्रकार है :

दावा 1:

किसानों की जमीन पर कोई खतरा नहीं है, ठेके में जमीन गिरवी नहीं रखी जाएगी और जमीन के किसी भी प्रकार के हस्तांतरण का करार नही होगा।

सच्चाई:

कृषि मंत्री का दावा कानून के अनुसार गलत है।ठेका खेती कानून की धारा 9 में साफ लिखा है कि किसान की लागत की जो अदायगी कंपनी को करनी है, उसकी व्यवस्था कर्जदाता संस्थाओं के साथ एक अलग समझौता करके पूरी होगी, जो इस ठेके के अनुबंध से अलग होगा। लेकिन कर्जदाता संस्थाएं जमीन गिरवी रख कर ही कर्ज देती हैं।

ठेका खेती कानून की धारा 14(2) में लिखा है कि अगर कंपनी से किसान उधार लेता है, तो उस उधार की वसूली 'कंपनी के कुल खर्च की वसूली के रूप में होगी', जो धारा 14(7) के अन्तर्गत 'भू-राजस्व के बकाया के रूप में' की जाएगी।

दावा 2 :

ठेके में उपज का खरीद मूल्य दर्ज होगा, भुगतान समय सीमा के भीतर होगा, किसान कभी भी अनुबंध खत्म कर सकते हैं, आदि-इत्यादि।

सच्चाई :

ये सभी दावे ठेका कानून में वर्णित धाराओं के विपरीत हैं। ये धाराएं स्पष्ट करती हैं कि किसान की उपज का भुगतान करने से पहले कंपनी फसल की गुणवत्ता का किसी पारखी से मूल्यांकन कराएगी, तब उसकी संस्तुति व मूल्य निर्धारण के बाद भुगतान करेगी।

भुगतान की समय सीमा में भी बहुत सारे विकल्प दिये हैं, जिनमें यह भी है कि पर्ची पर खरीदने के बाद भुगतान 3 दिन बाद किया जाएगा। आज भी गन्ना किसानों का भुगतान पर्ची पर होता है, जिसके कारण पिछले कई सालों का हजारों करोड़ रुपयों का भुगतान आज भी बकाया है। किसानों की इस लूट को अब कानूनी रूप दे दिया गया है।

कानून में यह भी व्यवस्था है कि निजी मंडी का खरीदार किसान को तब भुगतान करेगा जब उसे उस कंपनी से पेमेंट मिलेगा, जिसको वो आगे फसल बेचता है। इसका अर्थ है कि किसानों को भुगतान के समयावधि की कोई गारंटी नहीं है।



दावा 3 :

लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है।

सच्चाई :

पूर्व वित्तमंत्री दिवंगत अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि मोदी सरकार ए-2+एफएल का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य के रूप में दे रही है। सच तो यह है कि ज्यादातर फसलों का यह दाम भी नहीं दिया जा रहा है, जबकि देशव्यापी किसान आंदोलन की मांग फसल की सी-2 लागत मूल्य का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने और कानून बनाकर इसके लिए बाध्य होने की है।

यह मोदी सरकार ही थी, जिसने एमएसपी के तर्कपूर्ण निर्धारण के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के जवाब में शपथपत्र देकर कहा था कि "भले ही चुनाव घोषणापत्र में ऐसा वादा किया था, किन्तु अभी हम इसे लागू नहीं कर सकते।"

दावा 4 :

सरकारी मंडियां, एमएसपी व सरकारी खरीद जारी रहेगी।

सच्चाई :

कानून के अनुसार खेती-किसानी और खाद्यान्न व्यापार के क्षेत्र में अब सरकार कारपोरेटों को प्रोत्साहित करेगी। इससे स्पष्ट है कि अन्य व्यवस्थाएं निरुत्साहित होंगी और धीरे-धीरे बंद हो जाएंगी। नीति आयोग के विशेषज्ञ भी लेख लिख कर कह रहे हैं कि देश में अनाज बहुत ज्यादा पैदा हो रहा है, भंडारण की जगह नहीं है, तो सरकार कैसे सबकी फसल को खरीद सकती है? सरकार के साथ किसान संगठनों की वार्ता में भी तोमर ने स्पष्ट किया था कि एमएसपी और सरकारी खरीद को कोई कानूनी आधार नहीं दिया जा सकता। इसलिए निजी मंडियां भी आयेंगी, एपीएमसी की मंडियां भी चलेंगी -- का दावा वैसा ही है, जैसा -- 'जिओ भी आयेगा और बीएसएनएल भी चलेगा,' के रूप में किया गया था।

उल्लेखनीय है कि शांता कुमार समिति के अनुसार मात्र 6 फीसदी किसानों को ही एमएसपी पर सरकारी खरीद का लाभ मिलता है, शेष वंचित रहते हैं। जबकि देशव्यापी किसान आंदोलन की मांग है कि देश के सभी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलना चाहिए।

दावा 5 :

किसान अपनी फसल जहां चाहें, वहां बेच सकेगा।

सच्चाई :

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल ही में प्रदेश के बाहर से फसल बेचने आये किसानों के खिलाफ कार्यवाही करने की धमकी दी है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो उनके ट्रक-ट्रेक्टर जब्त करने और जेल भेज देने तक की घोषणा की है। ये दोनों कट्टर संघी और भाजपाई मुख्यमंत्री हैं। उनकी इस घोषणा के खिलाफ केंद्र की मोदी सरकार ने एक शब्द तक नहीं बोला है।

वैसे भी हमारे देश में 86% से ज्यादा किसान सीमांत और लघु किसान हैं, जो अपना अनाज मंडियों तक ले जाने की भी हैसियत नहीं रखते। इन किसानों को यह सरकार मुंगेरीलाल के सपने दिखा रही हैं। जबकि इन्हें अपने गांव के अधिकतम पांच किमी. के अंदर सरकारी मंडी चाहिए, जहां उन्हें निर्धारित समर्थन मूल्य मिल सके।

दावा 6 :

कृषि अधोसंरचना फंड पर सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये का आबंटन किया है।

सच्चाई :

इस फंड का उपयोग किसानों के लिए नहीं, बल्कि खेती में बड़े कारपोरेट घरानों व विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। यदि इस फंड का उपयोग सीधे तौर पर या सहकारी समितियों के माध्यम से किसानों को सिंचाई, ट्रैक्टर व अन्य मशीनरी, लागत की अन्य सामग्री, भंडारण, प्रसंस्करण के उपकरण, शीतगृह तथा बिक्री आदि की व्यवस्था करने के लिए किया जाता, तो इससे किसानों का भला होता।

दावा 7 :

ये कानून पूरी तरह किसानों के हित में है और उनके जीवन में परिवर्तन लाएंगे। इसमें कुछ संशोधन किए जा सकते हैं।

सच्चाई :

वास्तविकता यह है कि ये कानून बड़े कार्पोरेटों और अडानी-अंबानी के हित में हैं और अडानी-अंबानी के हित कभी भी किसानों के हित नहीं बन सकते। इनसे किसानों के जीवन में एक ही परिवर्तन आएगा कि वे बेजमीन व बेदखल होकर भूमिहीन बन जाएंगे और बड़ी कंपनियों का कब्जा पूरे ग्रामीण जीवन पर नजर आएगा। इन कानूनों में किसी भी प्रकार का संशोधन इनके कॉर्पोरेटपरस्त चरित्र को नहीं बदल सकता, इसलिए इन कानूनों को वापस ही लिया जाना चाहिए।

इन तीनो कृषि कानूनों और बिजली बिल 2020 को वापस लिया जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ये कृषि मंडियों, खेती करने की प्रक्रिया, लागत के सामान की आपूर्ति, फसलों का भंडारण, शीतगृह, परिवहन, प्रसंस्करण, खाने की बिक्री में बड़े कारपोरेट व विदेशी कंपनियों को कानूनी अधिकार के तौर पर स्थापित कर देंगी। साथ-साथ आवश्यक वस्तु कानून के संशोधन खुले आम जमाखोरी और कालाबाजारी को बढ़ावा देंगे, खाने की कीमतें कम से कम हर साल डेढ़ गुना बढ़ाने की अनुमति देंगे और राशन व्यवस्था को चौपट कर देंगे।



इन कानूनों में यह भी लिखा है कि सरकार इन कंपनियों को प्रमोट करेगी। इससे खेती बरबाद हो जाएगी और किसान खेतों से बेदखल हो जाएंगे। इससे उनकी व खेती-किसानी से जुड़े हुए सभी लोगों की आजीविका छीन जाएगी, जो वैसे ही भारी कर्ज़ के जाल में फंसे हुए हैं और अर्थव्यवस्था में भारी मंदी के कारण बेरोजगारी के शिकार हैं।

कृषि मंत्री के इस बयान से कि "यदि क़ानून वापस ले लिए गए, तो सरकार से कारपोरेट का भरोसा उठ जाएगा।", स्पष्ट है कि भारत के लोकतंत्र को कुछ कार्पोरेट्स के हितों के अधीन करने की साजिश बड़े जोर-शोर से चल रही हैं। यह देश का दुर्भाग्य है।

इस बिन्दु पर मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट की यह राय मान ही लेनी चाहिए कि इन तीनों कृषि कानूनों की वैधानिकता की जांच किये जाने तक इसके अमल पर रोक लगाई जानी चाहिए। लेकिन यदि मोदी सरकार इतना भी नहीं करती, तो इस सरकार से देश की जनता का भरोसा उठते हुए वह देखेगी। तब वह यह भी देखेगी कि मेहनतकशों की जिस एकता ने अंग्रेजों को वापस जाने पर मजबूर कर दिया था, आज वही एकता कॉर्पोरेटपरस्त सांप्रदायिक ताकतों के विशाल पैरों पर भी अपनी कीलें ठोंक रही है।

(लेखक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं।)

Next Story

विविध