उत्तराखंड की वनभूमि से संबंधित निर्माण, अतिक्रमण और गतिविधियों को लेकर SC का आदेश जंगलों की रक्षा के बजाय पहाड़ के लोगों के जीवन और सामाजिक ढाँचे पर बन सकता है संकट !

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वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी की टिप्पणी
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है, जहाँ भौगोलिक परिस्थितियों के कारण कृषि योग्य भूमि स्वाभाविक रूप से अत्यंत सीमित है। राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 53,483 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR) और राज्य सरकार के आँकड़ों के अनुसार 71–72 प्रतिशत क्षेत्र वन भूमि के रूप में दर्ज है। यदि आरक्षित और संरक्षित वनों को सम्मिलित कर देखा जाए, तो राज्य की 65 प्रतिशत से अधिक भूमि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वन विभाग के नियंत्रण में है।
इसके विपरीत उत्तराखंड में शुद्ध कृषि भूमि का अनुपात 12 प्रतिशत से भी कम है, जबकि पर्वतीय जिलों में यह घटकर मात्र 5–6 प्रतिशत रह जाता है। ऐसे राज्य में भूमि केवल एक संसाधन नहीं, बल्कि लोगों की आजीविका, आवास, सामाजिक संरचना और अस्तित्व का आधार है। पहाड़, जंगल और नदी घाटियाँ इस प्रदेश की पहचान हैं, पर यही पहचान आज स्थानीय समुदायों के लिए असुरक्षा का कारण बनती जा रही है।
इसी संवेदनशील पृष्ठभूमि में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड की वन भूमि से संबंधित निर्माण, अतिक्रमण और गतिविधियों को लेकर एक सख़्त आदेश पारित किया गया है। इस आदेश के बाद राज्य के अनेक हिस्सों में आम लोगों के बीच भय और अनिश्चितता का माहौल व्याप्त है। लोगों को आशंका है कि इस आदेश की आड़ में वन विभाग दशकों पुरानी, परंपरागत और वैध बसासतों को भी अतिक्रमण घोषित कर सकता है।
तराई से लेकर पर्वतीय क्षेत्रों तक अनेक ऐसी बसासतें हैं जहाँ घर, स्कूल, सड़कें, बिजली, मतदान केंद्र और नागरिक पहचान से जुड़े सभी ढाँचे मौजूद हैं, किंतु आज तक उन्हें न तो राजस्व गाँव का दर्जा मिला है और न ही वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत दावों का अंतिम निस्तारण हुआ है। काग़ज़ों में वन भूमि दर्ज होने के कारण लोगों को यह भय सता रहा है कि उनके घर-जमीन को भी “खाली वन भूमि” मानकर कार्रवाई की जा सकती है।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत देश के अन्य राज्यों में अब तक 50 लाख एकड़ से अधिक भूमि पर आदिवासी और अन्य परंपरागत वनवासियों के अधिकारों को मान्यता दी जा चुकी है। इसके विपरीत, उत्तराखंड में हजारों व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे आज भी ग्राम सभा, उपजिला स्तरीय समिति (SDLC) और जिला स्तरीय समिति (DLC) के स्तर पर वर्षों से लंबित हैं। कई मामलों में सभी प्रक्रियाएँ पूरी होने के बावजूद अंतिम निर्णय नहीं लिया गया।
ऐसी स्थिति में यदि इन दावों के निस्तारण से पहले ही बेदखली या अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की जाती है, तो यह न केवल वन अधिकार अधिनियम की भावना के विरुद्ध होगा, बल्कि लाखों लोगों को एक झटके में बेघर करने जैसी भयावह स्थिति उत्पन्न कर देगा।
न्यायालय से यह अपेक्षा की जाती है कि आदेश की व्याख्या और क्रियान्वयन को लेकर राज्य सरकार और वन विभाग को स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए जाएँ, ताकि इसका उपयोग वास्तविक, नए और व्यावसायिक अतिक्रमणों पर कार्रवाई के लिए हो, न कि वैध और परंपरागत बसासतों को उजाड़ने के लिए। अन्यथा यह आदेश जंगलों की रक्षा के बजाय पहाड़ के लोगों के जीवन और सामाजिक ढाँचे पर संकट बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सही और सटीक तथ्य प्रस्तुत करना राज्य सरकार की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है। किंतु यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या वह सरकार, जो विभिन्न स्थानों पर विस्थापन की कार्रवाइयों में सक्रिय रही है और CAMPA फंड के नाम पर वन विभाग की नीतियों का अनुसरण करती दिखाई देती है, न्यायालय के समक्ष पूरी पारदर्शिता के साथ तथ्य रख पाएगी।
राज्य बनने के बाद के लगभग 13 वर्षों में उत्तराखंड में वन भूमि में 10 प्रतिशत से अधिक की औपचारिक वृद्धि दर्ज की गई है। यह तथ्य तब और अधिक चिंताजनक हो जाता है, जब यह देखा जाए कि इसी अवधि में सड़क, जलविद्युत परियोजनाओं, रेलवे लाइन, ट्रांसमिशन लाइन और अन्य विकास परियोजनाओं के लिए हजारों एकड़ वन भूमि का डायवर्जन भी किया गया है। इसके साथ-साथ CAMPA के अंतर्गत उत्तराखंड को हजारों करोड़ रुपये प्राप्त हुए, जिनके तहत प्रतिपूरक वनीकरण के नाम पर कई बार स्थानीय समुदायों की भूमि को वन क्षेत्र में शामिल किया गया।
ऐसे में यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि वन भूमि में दिखाई जा रही इस वृद्धि का वास्तविक स्रोत क्या है, और इसके लिए किसकी जमीन को वन घोषित किया गया।
राज्य में बिंदुखत्ता जैसे क्षेत्रों सहित 200 से अधिक ऐसी बसासतें हैं, जहाँ लाखों लोग निवास करते हैं। इनमें से अनेक बसासतें ब्रिटिशकाल से भी पूर्व की हैं। ऐसे में यह गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या किसी भी न्यायालय द्वारा स्थानीय लोगों के वैध, परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी करते हुए उन्हें बेदखल किया जा सकता है।
इस परिस्थिति में आवश्यक है कि राज्य सरकार और वन विभाग—
—वन भूमि के वास्तविक आँकड़ों और कथित वृद्धि के स्रोत को सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करें।
—1961 के गोपनीय आदेश के तहत सिविल फॉरेस्ट को रिज़र्व घोषित करने से संबंधित नोटिफिकेशन को निरस्त करें तथा 1893 के आदेश को रद्द कराने हेतु आवश्यक कानूनी कार्यवाही करें।
—स्थानीय लोगों के निवास और स्वामित्व से जुड़े अधिकारों का सम्मान करते हुए वन अधिकार अधिनियम का पूर्ण, ईमानदार और समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित करें।
—विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता और जन-सहमति अपनाएँ।
यदि न्यायालय के संज्ञान में यह आता है कि वन भूमि वृद्धि के आँकड़े वास्तविक परिस्थितियों के अनुरूप नहीं हैं, तो इसे प्रशासनिक और कानूनी जिम्मेदारी के गंभीर उल्लंघन के रूप में देखा जाना चाहिए। स्थानीय लोगों के अधिकारों की रक्षा और वन नीति में पारदर्शिता न केवल न्यायिक आवश्यकता है, बल्कि सामाजिक न्याय और सतत विकास की अनिवार्य शर्त भी है।











