Begin typing your search above and press return to search.
संस्कृति

धूप में सूप से धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा

Janjwar Desk
18 May 2021 3:20 PM GMT
धूप में सूप से धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
x

अपने बच्चों के साथ गरीब मुसहर जाति की महिला (फोटो : सोशल मीडिया)

बीएचयू छात्र गोलेन्द्र पटेल की कविताएं

1. थ्रेसर

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ

देखकर

ट्रैक्टर का मालिक मौन है

और अन्यात्मा दुखी

उसके साथियों की संवेदना समझा रही है

किसान को

कि रक्त तो भूसा सोख गया है

किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े

साफ दिखाई दे रहे हैं

कराहता हुआ मन कुछ कहे

तो बुरा मत मानना

बातों के बोझ से दबा दिमाग

बोलता है / और बोल रहा है

न तर्क, न तत्थ

सिर्फ भावना है

दो के संवादों के बीच का सेतु

सत्य के सागर में

नौकाविहार करना कठिन है

किंतु हम कर रहे हैं

थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -

बुजुर्ग कहते हैं

कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है

तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं

क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं

जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं

खेलने के लिए

बताओ न दिल्ली के दादा

गेहूँ की कटाई कब दोगे?

2. मेरे मुल्क की मीडिया

बिच्छू के बिल में

नेवला और सर्प की सलाह पर

चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-

गोहटा!

गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं

काने कुत्ते अंगरक्षक हैं

बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं

टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी

गुप्तचर कौए कुछ कह रहे हैं

साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं

नीलगाय नृत्य कर रही हैं

छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-

सेनापति सर्प की

मंत्री नेवला की

राजा गोहटा की....

अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रद्धांजलि

खेत में

और मुर्गा मौन हो जाता है

जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र

मेरे मुल्क की मीडिया!


3. देह विमर्श

जब

स्त्री ढोती है

गर्भ में सृष्टि

तब

परिवार का पुरुषत्व

उसे श्रद्धा के पलकों पर

धर

धरती का सारा सुख देना चाहता है

घर;

एक कविता

जो बंजर जमीन और सूखी नदी का है

समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'

सतीत्व के संकेत

सत्य को भूल

उसे बाँझ की संज्ञा दी।("कवि के भीतर स्त्री" से)


4. मुसहरिन माँ

धूप में सूप से

धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते

महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा

और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध

जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है

(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)

अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ

अब उसके भूख का क्या होगा?

उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से

यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ

दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ

और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है

सामने कंकाल पड़ा है

उन चूहों का

जो विषयुक्त स्वाद चखे हैं

बिल के बाहर

अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!

Next Story

विविध