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हाशिये का समाज

पहले से ही हाशिये पर पड़ी महिलाएं कोरोना के कारण समाज में और गईं पीछे

Janjwar Desk
27 Sep 2020 7:01 AM GMT
पहले से ही हाशिये पर पड़ी महिलाएं कोरोना के कारण समाज में और गईं पीछे
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वैज्ञानिक मान्यता है कि महिलाओं की रोग-प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की तुलना में अधिक सशक्त होती है, और इसका मुख्य कारण महिलाओं की कोशिकाओं में दो एक्स-क्रोमोजोम की उपस्थिति को माना जाता है...

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। दुनियाभर में जितने भी देशों की मुखिया महिलायें हैं, उन देशों ने कोविड 19 का सफलतापूर्वक सामना किया है, फिर भी अधिकतर देशों में कोविड 19 के समाचारों से महिलायें गायब हैं, यही नहीं कोविड 19 से सम्बंधित नीतिगत निर्णय लेने वाले दलों में भी महिलायें नहीं हैं. बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने इस सम्बन्ध में 6 देशों के अध्ययन के बाद एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित किया है. इन 6 देशों के नाम हैं – अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, भारत, केन्या, दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया. रिपोर्ट के अनुसार इन देशों में कोविड 19 से सम्बंधित एक-चौथाई खबरों में भी महिलाओं को जगह नहीं मिलती.

इन सभी देशों में इस वैश्विक महामारी से सम्बंधित नीतिगत निर्णय लेने वाले दलों में, दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर, अन्य सभी देशों में महिलायें पूरी तरह हाशिये पर हैं. यूनाइटेड किंगडम में ऐसे दल के शत-प्रतिशत सदस्य पुरुष हैं, अमेरिका में 93 प्रतिशत, नाइजीरिया में 92 प्रतिशत, भारत में 86 प्रतिशत और केन्या में 80 प्रतिशत सदस्य पुरुष हैं. दक्षिण अफ्रीका में नीति-निर्धारकों में केवल 50 प्रतिशत पुरुष हैं, और शेष महिलायें।

समाचार चैनलों पर या फिर मेनस्ट्रीम मीडिया में भी कोविड 19 से सम्बंधित समाचारों से महिलायें लगभग गायब कर दी गईं हैं. इन देशों में कोविड 19 से जुड़े प्रमुख समाचारों में जितने विशेषज्ञों को बुलाया गया उनमें से केवल 19 प्रतिशत विशेषज्ञ महिला थीं और केवल 25 प्रतिशत समाचारों में महिलाओं का जिक्र किया गया था. कोविड 19 से जुड़े केवल एक प्रतिशत समाचारों में लैंगिक समानता की चर्चा की गई.

इस रिपोर्ट की मुख्य लेखक लुबा कसोवा के अनुसार महिलाओं की उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण इन सभी देशों में पुरुष शासकों का होना है, और फिर कोविड 19 को लगभग सभी सरकारों ने एक युद्ध का दर्जा दिया और जब युद्ध की बात आती है तो पुरुषों का वर्चस्व हो ही जाता है. पुरुषों का वर्चस्व किसी भी क्षेत्र में कायम होते ही महिलाओं की उपेक्षा शुरू हो जाती है. अमेरिका में 20 प्रतिशत से कम, दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया में 25 प्रतिशत से कम और भारत, केन्या और यूनाइटेड किंगडम में 30 प्रतिशत से कम समाचारों के केंद्र में महिलायें रहीं।

रिपोर्ट के अनुसार इन सभी देशों में औसतन 85 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मी महिलायें हैं, फिर भी कोविड 19 के दौर में इन्हें केवल 16 से 25 प्रतिशत समाचारों में ही जगह मिली. हमारे देश में जब सरकार ने संसद में बताया कि ऑन-ड्यूटी कोविड 19 के कारण मरने वाले चिकित्सकों का आंकड़ा नहीं है, तब इस मुद्दे पर दो-तीन दिनों तक मीडिया में खूब चर्चा की गई. पर, इस चर्चा के बीच नर्सों के आंकड़े और बहस पूरी तरह से गायब रहे, जाहिर है सभी नर्सें महिलायें थीं. देशभर में नर्सों ने समय-समय पर सुरक्षा उपकरणों के अभाव, समय से वेतन नहीं मिलने, सामान्य से अधिक काम और दूसरी सुविधाओं के अभाव को लेकर प्रदर्शन किया, पर मीडिया कहीं नहीं पहुंचा. यही मीडिया, ऐसे ही मुद्दों पर रेजिडेंट डॉक्टर्स की मांगों का समाचार जरूर दिखाता रहा।

समाचारों के बीच कोविड 19 से सम्बंधित वक्तव्यों के सन्दर्भ में भी महिलायें हाशिये पर ही रहीं. भारत, दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया में 20 प्रतिशत वक्तव्यों, केन्या और अमेरिका में 25 प्रतिशत वक्तव्यों और इंग्लैंड में 30 प्रतिशत वक्तव्यों में ही महिलायें थीं. रिपोर्ट के अनुसार इन सभी देशों में सामान्य स्थिति में भी समाचारों से महिलायें लगभग नदारद रहती हैं, पर कोविड 19 के दौर में यह समस्या पहले से अधिक गंभीर है. भारत में सामान्य स्थितियों में 24 प्रतिशत समाचार महिलाओं से सम्बंधित होते थे, पर कोविड 19 के दौर में केवल 19 प्रतिशत ऐसे समाचार हैं. हरेक देश की ऐसी ही स्थिति है. यूनाइटेड किंगडम, केन्या, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और अमेरिका में सामान्य स्थितियों में महिला केन्द्रित समाचार क्रमशः 33, 25, 24, 27 और 21 प्रतिशत रहते हैं, पर कोविड 19 के दौर में ऐसे समाचार क्रमशः 26, 15, 15, 15 और 14 प्रतिशत पर सिमट चुके हैं।

कोविड 19 के दौर में महिलायें केवल समाचारों से ही गायब नहीं कर दी गईं हैं, बल्कि दुनियाभर में इन दिनों टीके और दवाओं के परीक्षण से भी गायब हैं. लगभग हरेक परीक्षणों में शामिल महिलाओं की कुल संख्या तो बताई जाती है, पर परीक्षण के परिणाम में महिलाओं की अलग से चर्चा नहीं की जाती, जबकि पिछले अनेक वर्षों से बताया जा रहा है कि अधिकतर दवा और टीके का महिलाओं पर असर पुरुषों से अलग रहता है. सबसे बड़ा उदाहरण ह्रदय रोगों की दवा डाईजोक्सिन है, जो 1990 के दशक में सबके लिए कारगर मानी जा रही थी. अनेक वर्षों तक बाजार में रहने के बाद जब इसके लैंगिक प्रभाव का बारीकी से अध्ययन किया गया, तब स्पष्ट हुआ कि यह ह्रदय रोगों से पुरुषों का जीवन तो बचाती है, पर महिलाओं की मृत्यु दर में अप्रत्याशित बृद्धि भी करती है. वर्ष 2001 के बाद से अमेरिका के बाजार से जिन 10 दवाओं को हटाया गया है, उसमें से 8 का कारण महिलाओं पर पड़ने वाले खतरनाक प्रभाव थे.

वैज्ञानिक मान्यता है कि महिलाओं की रोग-प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की तुलना में अधिक सशक्त होती है, और इसका मुख्य कारण महिलाओं की कोशिकाओं में दो एक्स-क्रोमोजोम की उपस्थिति को माना जाता है. एक्स-क्रोमोजोम का रोग-प्रतिरोधक क्षमता से सीधा सम्बन्ध है. कोविड 19 का प्रभाव तो महिलाओं और पुरुषों पर अलग-अलग पड़ रहा है, इससे पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की तुलना में दुगुनी से भी अधिक है।

नीदरलैंड्स के राद्बौद यूनिवर्सिटी के सेक्स एंड जेंडर सेंसिटिव मेडिसिन विभाग की प्रमुख डॉ सैबिन ओएर्तेल्त प्रिगिओन, ने विश्लेषण कर बताया है कि कोविड 19 के प्रभाव में स्पष्ट लैंगिक असमानता के बाद भी किसी भी परीक्षण में दवाओं या टीकों का महिलाओं पर विशेष असर नहीं देखा जा रहा है. दुनियाभर में कोविड 19 से सम्बंधित दवाओं और टीकों के कुल 2484 क्लिनिकल ट्रायल या तो पूरे कर लिए गए हैं, या फिर परीक्षण चल रहा है. इसमें से मात्र 416 परीक्षणों में महिलाओं और पुरुषों की संख्या अलग-अलग बताई गई है, पर किसी परीक्षण में लैंगिक आधार पर प्रभावों का आकलन नहीं किया गया है. जून 2020 के दौरान कुल 11 क्लिनिकल ट्रायल की रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी, इनमें से किसी भी रिपोर्ट में लैंगिक आधार पर आंकड़े उपलब्ध नहीं थे।

इस विश्लेषण के अनुसार अनेक क्लिनिकल ट्रायल कोविड 19 के इलाज के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन से सम्बंधित भी किये गए. हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन को मलेरिया के लिए अचूक दावा माना जाता है, और कोविड 19 के शुरुआती दौर में इसे प्रधानमंत्री मोदी, अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प और ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो ने बिना वैज्ञानिकों से सलाह लिए और बिना किसी परीक्षण के कोविड 19 के इलाज के लिए खूब बढ़ावा दिया. हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन बहुत सारे मामलों में ह्रदय की धड़कन को अनियमित कर देती है, और बहुत सारे लोगों पर यह असर इतना घातक होता है कि मृत्यु भी हो सकती है. चिकित्सा विज्ञान को वर्षों से यह पता है कि ह्रदय की इस अनियमित धड़कन का असर महिलाओं पर अधिक पड़ता है, फिर भी इसके परीक्षणों के दौरान भी महिलाओं पर विशेष असर का आकलन नहीं किया गया।

कैनेडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ हेल्थ रिसर्च की निदेशक डॉ कारा तन्नेंबौम के अनुसार महिलायें केवल पुरुषों का छोटा स्वरुप नहीं हैं, बल्कि शारीरिक बनावट और शरीर क्रिया विज्ञान के सन्दर्भ में पुरुषों से बहुत भिन्न है, उनके हॉर्मोन का स्तर भिन्न होता है, उनकी किडनी अपेक्षाकृत छोटी होती है उनके शरीर में वसा की मात्रा अधिक होती है जिसमें बहुत सारे दवाओं का भंडारण हो सकता है, इसलिए किसी भी दवा या टीके के परीक्षण के दौरान आवश्यक है कि परिणाम का आकलन लैंगिक आधार पर किया जाए. एक ऐसी दुनिया जिसमें लैंगिक समानता दूर-दूर तक नजर नहीं आती, कोविड 19 ने निश्चित तौर पर इस असमानता को और बढ़ाया है और महिलाओं को हाशिये पर धकेल चुकी है।

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