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हाशिये का समाज

Almora Kand : 21 अगस्त को सुहागन और 11 दिन बाद दलित युवा जगदीश की विधवा बनी गीता के नारी-निकेतन तक पहुंचने की दर्दभरी दास्तां

Janjwar Desk
4 Sep 2022 2:41 AM GMT
Almora Kand : 21 अगस्त को सुहागन और 11 दिन बाद दलित युवा जगदीश की  विधवा बनी गीता के नारी-निकेतन तक पहुंचने की दर्दभरी दास्तां
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Almora Kand : 21 अगस्त को सुहागन और 11 दिन बाद विधवा बनी गीता के नारी-निकेतन तक पहुंचने की दर्दभरी दास्तां

Almora Kand : जिस घर से बगावत करके गीता ने जगदीश का हाथ थामा था, वह तो उसके खून के ऐसे प्यासे थे कि पति की मौत के बाद वहां जाने की कल्पना ही मुश्किल थी, बचा ससुराल, वहां अपने जवान बच्चे की मौत के बाद गांव में होने वाली कानाफूसी से बचने का सामाजिक संताप से बड़ी बात उसकी खुद की सुरक्षा थी....

सलीम मलिक की रिपोर्ट

Almora kand : हाथ में नया कलावा, उंगलियों में अंगूठी पहनकर और मांग में सिंदूर भरकर 21 अगस्त को अपने सौतेले बाप की कैद से आजाद होकर आंखों में खुले आसमान में उड़ान भरने का सपना लिए गीता को पता ही नहीं चला कि ग्यारहवें दिन ही उसके सौतेले बाप के साथ ही उसकी सगी मां और भाई ही उसके माथे का सिंदूर पोंछकर उसे विधवा बना देंगे। इस जातिवादी समाज के ढांचे में अपनी आंखों में खुशहाल भविष्य का सपना देखने का जुर्म करने वाली यह गीता खबर लिखते जाने के समय नारी-निकेतन की अंधेरी सुरंग में दाखिल हो चुकी है। जहां से इसे मुक्ति कब मिलेगी, कोई नही जानता।

अल्मोड़ा जिले के भिक्यासैंण क्षेत्र में अपने परिवार के साथ रह रही गुड्डी का मुश्किलों का दौर किशोर उम्र में ही उस समय शुरू हो गया था, जब उसके पिता नन्दन सिंह ने तीन बच्चों सहित उसकी मां भावना को छोड़ दिया था। तीनों बच्चों को लेकर भावना इसी इलाके के जोगा सिंह के साथ रहने चली गई तो गुड्डी के हिस्से में स्कूल की पढ़ाई छोड़कर घर का काम-काज आ गया। आठवीं में पढ़ने वाली गुड्डी पढ़ाई से दूर होकर अब घर का सारा उत्पीड़न झेलने वाली गीता बन चुकी थी।

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तकलीफों से भरी गीता की जिंदगी में एक खुशनुमा झोंका तब आया, जब उसने जगदीश को पहली बार देखा। इसी जिले के सल्ट इलाके के पनुवाद्योखन गांव का रहने वाला जगदीश चंद्र कारोबार के लिहाज घरों में नल फिटिंग का काम करता था। जल शक्ति मिशन के तहत उसका गीता के गांव भी आना-जाना था। कुछ पहचान के बाद गीता जब अपना दर्द जगदीश से साझा करने लगी तो अविवाहित जगदीश को भी उससे सहानुभूति होने लगी। कुछ ही मुलाकातों के बाद गीता और जगदीश जिंदगी साथ बिताने का निश्चय करते हुए अपने सुनहरे भविष्य के सपने बुनने लगे। रास्ते में आने वाले पारिवारिक अवरोधों को मामूली बात समझकर उनसे टकराने का भी मन वह बना ही चुके थे। वह मानकर चल ही रहे थे कि कुछ दिन के बाद बात आई-गई हो ही जानी है।

दिन 21 अगस्त का था और दुल्हन के श्रृंगार में सजी गीता मंदिर में जगदीश के साथ विवाह करके जीवन के दूसरे चरण में प्रवेश कर रही थी। सात जन्म तक साथ जीने और साथ मरने की कसमें खाते हुए एक दूसरे के हुए गीता और जगदीश इस बात को समझ नहीं पा रहे थे कि वह इस समय जातिवादी आग के उस दरिया में छलांग लगा रहे हैं, जहां उनके अपने ही उनके दुश्मन होंगे। लेकिन समय अच्छा गुरु होता है। विवाह को एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि गीता और जगदीश को बड़ी अनहोनी का अंदेशा सताने लगा। इस समय यह जोड़ा अल्मोड़ा शहर में किराए के एक कमरे में आशियाना बनाए हुए था, लेकिन आजाद भारत में संविधान पर उनका भरोसा बना हुआ था। वह जानते थे कि इसकी शरण में आते ही दो बालिग लोगों के सहमति से हुए विवाह के बाद प्रेमी युगल को प्रशासन सुरक्षा दे ही देगा।

अब यह अगस्त की वह 27 तारीख है जिस दिन गीता अल्मोड़ा जिले के सबसे बड़े हाकिम जिलाधिकारी और मजबूत एसएसपी के दरबार में अपनी और अपने पति की जान को अपने ही परिजनों से खतरा बताते हुए सिक्योरिटी की गुहार लगाती है। जिले के मालिक समझे जाने वाले डीएम ने इस चिट्ठी का क्या संज्ञान लिया, यह नहीं मालूम। लेकिन पुलिस विभाग में इसे रेवेन्यू इलाके का मामला समझकर खानापूर्ति ही की गई। बहरहाल, इस जोड़े को सुरक्षा तो क्या ही मिलनी थी। लेकिन इनके भ्रम टूट रहे थे।

जिस अगस्त के महीने में देश आजादी का अमृतकाल मना रहा था। वह अभी कुछ ही घंटे पहले विदा हुआ था। सितंबर महीने की पहली तारीख लग चुकी थी। गीता के पति जगदीश भिक्यासैण में थे। होने को तो यह वह इलाका था, जहां जगदीश सैकड़ों बार आ चुका था। लेकिन सवर्ण लड़की से विवाह करने के बाद दलित समुदाय के जगदीश के लिए इस बार भिक्यासैण ऐसा था जैसे भूखे शेरों की मांद के करीब कोई निरीह हिरण रास्ता भटककर पहुंच जाए। जगदीश के इस दिन भिक्यासैण में होने को लेकर दो बातें कही जा रही है। एक, वह यहां किसी से अपने उधार के पैसे लेने आया हुआ था। दूसरा, इस दिन चमोली जिले के हैलंग में हुई घटना के खिलाफ नैनीताल में प्रस्तावित प्रदर्शन के लिए लोगों को इकट्ठा करके नैनीताल ले जाने के लिए। बहरहाल, बहाना कोई भी रहा हो, लेकिन जगदीश इस दिन भिक्यासैण में था। इसकी गंध उसके शिकार की ताक में बैठे जातिवादी भेड़ियों तक पहुंच चुकी थी।

प्लान के तहत जगदीश को उसके ससुराल वाले बहला-फुसलाकर "जो हुआ सो हुआ, अब आगे की जिंदगी कैसे गुजरेगी" विषय पर चर्चा के लिए अपने घर ले गए। घर पहुंचते ही जगदीश के घुटने पर हथौड़े का ऐसा वार हुआ कि वह वहीं गिर पड़ा। पैर के टखने हथौड़े से तोड़ते हुए ससुराल वालों ने जगदीश से उसकी पत्नी गीता के बारे में जानकारी ली। गीता के अल्मोड़ा में होने की खबर मिलने पर यह लोग गीता की खोज में अल्मोड़ा पहुंचे। इरादा इनका गीता और जगदीश को एक साथ ही मारने का था। लेकिन गीता इनके हाथ न लग सकी तो इन्होंने वापस लौटकर अधमरे जगदीश के शरीर की हर हड्डी को निर्दयता से तोड़ना शुरू किया। पसली, रीढ़, सिर, नाक, मुंह कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां इनके हथौड़े की चोट जगदीश को न सहनी पड़ी हो। अपनी बहन-बेटी के माथे का सिंदूर पोंछने के बाद इन लोगों को जगदीश की लहूलुहान लाश के साथ पकड़ लिया गया, जब वह लाश को ठिकाने लगाने जा रहे थे।

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ग्यारह दिन पहले सुहागन बनी गीता सितंबर महीने की पहली तारीख को विधवा बन चुकी थी, लेकिन कहानी का दर्द आना अभी बाकी था। जिस घर से बगावत करके गीता ने जगदीश का हाथ थामा था, वह तो उसके खून के ऐसे प्यासे थे कि पति की मौत के बाद वहां जाने की कल्पना ही मुश्किल थी। बचा ससुराल, वहां अपने जवान बच्चे की मौत के बाद गांव में होने वाली कानाफूसी से बचने का सामाजिक संताप से बड़ी बात उसकी खुद की सुरक्षा थी। सुरक्षा की मांग किए जाने के बाद भी पति को खो चुकी गीता की जिंदगी की सुरक्षा का बड़ा सवाल प्रशासन के सामने खड़ा था। एक मुश्किल तरीका था कि गीता को खुली दुनियां में ही सिक्योरिटी मुहैया करा दी जाती, लेकिन प्रशासन को आसान रास्ता ज्यादा मुफीद लगा।

कुल ग्यारह दिन में सुहागन से विधवा बनने वाली गीता ने बाहरवें दिन नारी-निकेतन में कदम रखा। जहां वह न जाने कब तक रहने को अभिशप्त हो, कहा नहीं जा सकता। घर की प्रताड़ना भरी कैद से खुले आसमान की परवाज करने के सपनों का सफर पति की मौत के बाद नारी-निकेतन की चौखट पर हुआ, जहां से उसके भविष्य की काली पटकथा को पढ़ने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत शायद न हो। यह उसी जातिवाद का यथार्थवादी किस्सा है, जिसके लिए सभ्य समाज के लोग आज भी पूछते हैं कि "जातिवाद है कहां ?"

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