मध्यप्रदेश: छोटे उपभोक्ता महंगी बिजली दर की मार से और राज्य सरकार अनुदान के भार से परेशान
(वर्तमान में बिजली की उपलब्धता 18364 मेगावाट है तथा साल भर की औसत मांग लगभग 8 से 9 हजार मेगावाट है। बिजली की अधिक उपलब्धता के कारण सरकारी ताप विद्युत संयंत्र को या तो मेनटेनेंस के नाम बंद रखा जाता है या इसे कम लोड पर चलाया जाता है।)
बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के राज कुमार सिन्हा की टिप्पणी
जनज्वार। मध्यप्रदेश विधुत मंडल की जगह प्रदेश में तीन बिजली कम्पनियां गठित करने का उद्देश्य था कि उपभोक्ताओ को सस्ती, सुलभ और पर्याप्त बिजली दी जा सके। कंपनियों के गठन के बाद से बिजली की दरें लगातार महंगी हुई है, वहीं उपभोक्ताओं की समस्याओं के समाधान में भी कमी आई है। यह प्रदेश की 1.70 करोड़ उपभोक्ताओ के साथ अन्याय है।
मध्यप्रदेश में ऊर्जा सुधार की प्रकिया 1996 में टाटा राव कमेटी बनने से शुरू होता है। टाटा राव कमेटी की रिपोर्ट 1997 में आयी, जिसके आधार पर 1998 में राज्य सरकार ने विद्युत नियामक का गठन किया। 2002 में केंद्र के विद्युत मंत्रालय एवं राज्य सरकार के बीच अनुबंध हुआ कि भारत सरकार की मदद से फास्ट ट्रैक सुधार प्रकिया चलाया जाए। राज्य सरकार मध्यप्रदेश ऊर्जा सुधार अधिनियम 2001 लायी जो विधुत अधिनियम 2003 के आने बाद कानूनी रूप से प्रभावी हुआ।
सन् 2000 में विद्युत मंडल का घाटा 2100 करोड़ तथा 4892.6 करोड़ दीर्घकालीन कर्ज था जो 2014-15 में एकत्रित घाटा 30 हजार 282 करोड़ तथा सितम्बर 2015 तक कुल कर्ज 34 हजार 739 करोड़ हो गया है। परन्तु ऊर्जा सुधार के 18 साल बाद भी 65 लाख ग्रामीण उपभोक्ताओं में से 6 लाख उपभोक्ताओं के पास मीटर नहीं है। प्रदेश भर में 3.57 लाख कृषि ट्रांसफार्मरों में से 22 प्रतिशत में मीटर नहीं है। इन उपभोक्ताओं को औसत बीलिंग की जाती है।
सौभाग्य योजना के अन्तर्गत 45 लाख घरों में से अभी मात्र 14 लाख 85 हजार कनेक्शन हुआ है। लगभग 30 लाख घरों में कनेक्शन होना बांकी है। 20 हजार छोटे गांव में तो अबतक खंभे खड़े नहीं हुए हैं। 2017-18 में घरों तक बिजली पहुंचने से पहले 29.16 प्रतिशत बिजली लाइन लाॅस के रूप में बर्बाद हुई। मध्य क्षेत्र की कम्पनियों की हानि 39.37 प्रतिशत तथा पूर्व क्षेत्र कम्पनियों की हानि 29.61 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। जबकि लाइन लाॅस को 17 प्रतिशत तक रखने का लक्ष्य रखा गया था।
बिजली कम्पनियों ने मीटर रीडिंग, राजस्व वसूली, मेंटेनेंस, मीटर लगाना तथा सब स्टेशनों को ठेके पर दे दिया है। ठेका एजेंसियां कम पैसे में अप्रशिक्षित लोगों से काम करा रही है जिसके कारण 2012 से 2017 के बीच प्रदेश के 1671 विद्युतकर्मियों व ठेका श्रमिकों की बिजली सुधार करते समय मौत हुई है।
सरकार ने छह निजी बिजली कम्पनियों से 1575 मेगावाट का बिजली क्रय अनुबंध 25 वर्षों के लिए किया जो इस शर्त के अधीन है कि बिजली खरीदें या न खरीदें 2163 करोड़ रुपये देने ही होंगे। बिजली की मांग नहीं होने के कारण बगैर बिजली खरीदे 2016 तक 5513.03 करोड़ रूपये निजी कम्पनियों को भुगतान किया गया। प्रदेश में सरप्लस बिजली होने के बावजूद पावर मेनेजमेंट कम्पनी ने 2013-14 में रबी सीजन में डिमांड बढ़ने के दौरान गुजरात की सुजान टोरेंट पावर से 9.56 रूपये की दर से बिजली खरीदी थी। नियामक आयोग ने इस पर सख्त आपति जतायी है।
वर्तमान में बिजली की उपलब्धता 18364 मेगावाट है तथा साल भर की औसत मांग लगभग 8 से 9 हजार मेगावाट है। बिजली की अधिक उपलब्धता के कारण सरकारी ताप विद्युत संयंत्र को या तो मेनटेनेंस के नाम बंद रखा जाता है या इसे कम लोड पर चलाया जाता है। 2013-14 में 5600 करोड़ यूनिट के विरुद्ध सरकारी ताप व जल विद्युत गृह से महज 1757.07 करोड़ यूनिट बिजली खरीदी गई। जबकि सरकारी ताप विद्युत 4080 मेगावाट तथा जल विद्युत की 917 मेगावाट क्षमता है।
30 अक्तूबर 2017 के समाचार पत्रों में प्रकाशित क्रिसिल की रिपोर्ट के अनुसार 8 लाख करोड़ रुपये के एनपीए से जूझ रहे बैंकों द्वारा पावर सेक्टर को दिया गया लगभग 4 लाख करोड़ रुपये का कर्जा एनपीए हो सकता है। इसकी वजह यह है कि देश में 51 हजार मेगावाट क्षमता के पावर प्लांट बंद हैं तथा 23 हजार मेगावाट का पावर प्लांट निर्माणाधीन है जो अगले पांच साल में शुरू होंगे। अगर हालात नहीं सुधरे तो ये प्लांट भी उत्पादन शुरू नहीं कर पाएंगे और 1 लाख 30 हजार करोड़ का निवेश प्रभावित होगा जो एनपीए की राशि को और बढ़ा देगा। देश में राजस्थान के बाद सबसे महंगी बिजली मध्यप्रदेश में है।
2002 में विद्युत दर 1.37 रूपये प्रति यूनिट थी जो 2013 में बढ़कर 5.87 रूपये प्रति यूनिट हो गयी थी। आज वो 7 रूपये के आस-पास है। ऊर्जा सुधार के समय कहा गया था कि सस्ती और भरपूर बिजली उपलब्ध होगा। परन्तु ये तो लोगों को दरिद्र, भारतीय पूंजी को धनवान और बैंक को जोखिम में डालने वाला सुधार है। छोटे उपभोक्ता महंगी बिजली दर की मार से और राज्य सरकार अनुदान के भार से परेशान है।