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Chandrashekhar Azad Birth Anniversary: अहिंसा के रास्ते कभी आजादी दिलाने चाहते थे चंद्रशेखर आजाद, पर ऐसे क्रांतिकारी बने कि मरते वक्त भी अंग्रेज डरते रहे
Chandrashekhar Azad Birth Anniversary: अहिंसा के रास्ते कभी आजादी दिलाने चाहते थे चंद्रशेखर आजाद, पर ऐसे क्रांतिकारी बने कि मरते वक्त भी अंग्रेज डरते रहे
मोना सिंह की रिपोर्ट
Chandrashekhar Azad Birth Anniversary: देश को आजादी दिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद। इस नाम से हम सब वाकिफ हैं। वही आजाद जिन्हें जिंदा रहते हुए कभी अंग्रेज ना छू सके और ना ही उनकी मौत के बाद इतनी हिम्मत जुटा सके कि उनके करीब जा सके। मौत के बाद भी उनके पास जाने से पहले शरीर के पास दर्जनों फायरिंग की थी। ताकी कहीं आजाद उन्हें ही मौत के मुंह में ना धकेल दे। आजाद की मौत भी उनकी खुद की गोली से हुई। यानी अंग्रेज उन्हें जिंदा रहते हुए कभी भी हाथ तक नहीं लगा सके थे।
आजाद की पूरी जिंदगी में सिर्फ एक बार किसी ने धमकाने और उनके कदम को रोकने का प्रयास किया था। असल में वो एक कारोबारी परिवार की महिला थी। किसी महिला की चंद्रशेखर आजाद इतनी इज्जत करते थे कि वो उसकी कोई बात टाल नहीं सकते थे। एक बार क्रांतिकारी संगठन को मजबूत करने के लिए गलत तरीके से धन कमाने वाले एक कारोबारी के घर को लूटने पहुंचे थे। वहां कारोबारी परिवार की महिला ने उनके हाथ से पिस्टल छीन ली। फिर भी आजाद ने ना ही कुछ कहा और ना ही उसका विरोध किया। वो चुपचाप बस देखते रहे। इसके बाद उनके साथी राम प्रसाद बिस्मिल ने किसी तरह महिला से पिस्टल छीनकर आजाद को अलर्ट किया था। आज चंद्रशेखर आजाद की 116वीं जयंती के अवसर पर जानते हैं उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू ।
कम उम्र में ही आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के भाबरा गांव (वर्तमान का चंद्रशेखर आजाद नगर,जिला अलीराजपुर) में हुआ था। उनका पैतृक गांव बदरका था। जो कि वर्तमान में उल्ला उन्नाव जिला बांसवाड़ा में है।उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। आजाद के पिता अलीराजपुर रियासत में नौकरी करने के दौरान भाबरा गांव में बस गए थे। यहीं पर आजाद का जन्म हुआ और उनका बचपन भील बालकों के साथ धनुष बाण खेलने और तीरंदाजी करने में बीता। ऐसे माहौल में रहकर हुए बचपन में ही वे अच्छे निशानेबाज बन चुके थे। चंद्रशेखर आजाद की प्रारंभिक शिक्षा भाबरा में होने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्हें काशी विद्यापीठ बनारस भेजा गया। यहीं पर कम उम्र में ही चंद्रशेखर आजाद भारत के स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन गए थे। शुरू में वे गांधीजी और उनकी अहिंसावादी नीतियों से बहुत प्रभावित थे। शुरुआत में चंद्रशेखर आजाद अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी पाना चाहते थे।
ऐसे मिला 'आजाद' नाम
दिसंबर 1921 में गांधी जी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की। इस वजह से उन्हें गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया गया। जब मजिस्ट्रेट ने उनसे उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम आजाद बताया, पिता का नाम स्वतंत्रता और माता का नाम आजादी, घर का पता जेल बताया। गुस्से में आकर मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 दिन की सख्त जेल और 15 बेंतो से पिटाई करने की सजा सुनाई। खंभे से बांधकर आजाद को 15 बेंते लगाई गईं। इस सजा के दौरान भी वे लगातार भारत माता की जय बोलते रहे। सजा पूरी होने के बाद जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तो उस समय उन्हें तीन आना पैसे दिए गए। उन पैसों को उन्होंने तैश में आकर जेलर के मुंह पर फेंक कर मारा था। इस घटना के बाद ही चंद्रशेखर तिवारी को लोग चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानने लगे थे।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
1922 में चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी जी ने अचानक ही बिना किसी से विचार विमर्श किए असहयोग आंदोलन खत्म कर दिया। इस घटना से चंद्रशेखर आजाद बहुत आहत हुए, उन्होंने ठान लिया कि भारत को किसी भी तरह अंग्रेजों से आजाद कराना ही है। उनका रुझान सशस्त्र क्रांति की तरफ हो गया। वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक क्रांतिकारी दल से जुड़ गए। इस दल के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल थे। आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल के 'समान स्वतंत्रता' और 'बिना भेदभाव के सभी को अधिकार' जैसे विचारों से बहुत प्रभावित थे। बाद में राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें दल का सक्रिय सदस्य बना दिया। ब्रिटिश सरकार के धन और हथियारों की चोरी और डकैती के माध्यम से वे अपने दल की गतिविधियों के लिए पैसा इकट्ठा किया करते थे।
काकोरी कांड
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ने के बाद आजाद ने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहली बार काकोरी कांड (1925) में सक्रिय रूप से भाग लिया। काकोरी कांड से प्राप्त धन को लखनऊ पहुंचाने की जिम्मेदारी आजाद की थी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया वह और उनके साथी पैदल ही लखनऊ के लिए निकल गए और लखनऊ में धन को सुरक्षित करने के बाद पूरी रात चंद्रशेखर आजाद ने पार्क में ही बिता दी थी। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजों का खजाना लूटने और डकैती डालकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना शुरू किया। वह मानते थे कि अंग्रेजी खजाना भारतीयों की मेहनत की कमाई से भरा है और इसे लूट कर देशहित में उपयोग करना इसका सबसे अच्छा सदुपयोग है। काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी जिनमें राम प्रसाद बिस्मिल अशफाक उल्ला खां समेत कई मुख्य क्रांतिकारी भी थे उन्हें पकड़ लिया गया और फांसी की सजा दी गई। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की कमान खुद संभाल ली।
लाला लाजपत राय की हत्या का बदला
साइमन कमीशन का विरोध करते समय लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठी से ऐसी चोट लगी कि उनकी मृत्यु हो गई। तब क्रांतिकारियों का खून इस घटना से खौल उठा। उन्होंने लालाजी की मौत का बदला लेने की योजना बनाई। योजना के अनुसार, भगत सिंह को लालाजी पर लाठी चलाने वाले अधिकारी सांडर्स पर गोली चलाने थी। राजगुरु को स्टैंडबाई में रहकर भगत सिंह को कवर देना था। हमले के बाद अगर कोई इन दोनों का पीछा करके गोली मारने की कोशिश करता है तो चंद्रशेखर आजाद को उससे निपटना था।
17 दिसंबर 1928 की शाम जैसे ही सांडर्स अपने हेड कांस्टेबल चानन सिंह के साथ मोटरसाइकिल के पास पहुंचा राजगुरु ने चीते की तेजी से उछल कर उसके सीने पर फायर कर दिया। इसके बाद भगत सिंह जो पास ही में पेड़ पर थे तुरंत पेड़ से नीचे कूदकर उसके ऊपर 6 राउंड फायर कर दिया। सांडर्स की तत्काल मौत हो गई। राजगुरु और भगत सिंह घटनास्थल से दूर दौड़ने लगे उनके पीछे हेड कांस्टेबल चानन सिंह दौड़ रहा था। चानन सिंह भगत सिंह को पकड़ने ही वाला था कि 50 गज की दूरी से आजाद यह सब देख रहे थे। उन्होंने चिल्लाकर चानन सिंह को रुकने के लिए कहा और चेतावनी दी जिसे चानन सिंह ने नजरअंदाज कर दिया। तब आजाद ने फायर कर दिया चानन सिंह को गोली लगने से उसकी वहीं मौत हो गई।
अगले दिन लाहौर की दीवारों पर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के पोस्टर चिपके थे। जिन पर लिखा था कि,"सांडर्स को मारकर हमने अपने प्यारे नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया है"। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद चंद्रशेखर आजाद यह मानने लगे थे कि स्वतंत्रता संग्राम के लिए हिंसा का मार्ग अपनाना बुरा नहीं है। इसके बाद हिंसा को ही उन्होंने अपना मार्ग बना लिया।
चंद्रशेखर आजाद के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलू
चंद्रशेखर आजाद का वास्तविक नाम चंद्रशेखर तिवारी था। उनका कद 5 फुट 6 इंच था उनका गठा हुआ बलिष्ठ शरीर था। वह दिन में सैकड़ों दंड बैठक करते थे। उनकी मूछें दोनों तरफ ऊपर की ओर मुड़ी रहती थीं। चंद्रशेखर आजाद को समयानुसार भी भेष बदलने में महारत हासिल थी। वे व्यापारी, कुली, पुलिस ऑफिसर और संन्यासी का भेष धारण करके अपने क्रांतिकारी दल के लिए काम करते थे। चंद्रशेखर आजाद अक्सर धोती कुर्ता ही पहना करते थे। वे हमेशा जैकेट पहने रहते थे और जैकेट के अंदर वह हमेशा पिस्तौल छुपा कर रखते थे। आजाद कभी बिस्तर पर नहीं सोते थे। वह जमीन पर पुराने अखबार बिछाकर सो जाते थे। सादा भोजन जैसे रोटी गुड़, खिचड़ी इत्यादि उनका पसंदीदा भोजन था। आजाद पेड़ों पर चढ़ने में कुशल थे। वे तेल मालिश करवाना बेहद पसंद करते थे। और स्नान के पहले अपने सिर की मालिश खुद करते थे।
वे महिलाओं की बहुत इज्जत किया करते थे। एक बार राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद ने देश के धनी लोगों के यहां डकैती करने का निश्चय किया। क्रांतिकारी एक धनी व्यापारियों के घर डकैती करने गए। वहां एक महिला ने चंद्रशेखर आजाद का पिस्तौल छीन लिया तब भी चंद्रशेखर आजाद ने उस महिला को कुछ नहीं कहा। वह महिलाओं की बहुत इज्जत किया करते थे और उन पर हाथ उठाना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था। बाद में राम प्रसाद बिस्मिल ने जब यह देखा तो उन्होंने उस महिला से पिस्तौल छीन ली और चंद्रशेखर आजाद को डांटते हुए बाहर ले गए।
चंद्रशेखर आजाद का बचपन भील बच्चों के साथ तीरंदाजी करते हुए बीता था। इससे वे बेहद कुशल निशानेबाज बन गए थे। क्रांतिकारी बनने के बाद उन्होंने तीर कमान की जगह पिस्टल और कारतूस रखना शुरू कर दिया था। उनका निशाना अचूक था। उनके निशाने की तारीफ उनके विरोधी भी करते थे। चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि "अंग्रेजी सरकार उन्हें कभी जिंदा नहीं पकड़ पाएगी" वे कहा करते थे कि "दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं और आजाद ही रहेंगे"।
चंद्रशेखर आजाद का निधन
चंद्रशेखर आजाद ने भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए दुर्गा देवी को गांधी जी के पास बात करने के लिए भेजा था। लेकिन गांधीजी ने इस बारे में कोई भी बात करने और सहायता करने से साफ मना कर दिया था। तब फरवरी 1931 में चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू से मिलने और आजादी के बारे में बातचीत करने आनंद भवन गए थे। इस दौरान वे वहां भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की सजा के बारे में भी बात करना चाहते थे, परंतु जवाहरलाल नेहरू ने उनकी किसी भी बात को सुनने से इनकार कर दिया।
चंद्रशेखर आजाद गुस्से में वहां से निकल कर अपने साथी सुखदेवराज के साथ अल्फ्रेड पार्क चले गए। जहां वे लोग अपने अगली योजनाओं के बारे में बात कर रहे थे। तभी कुछ मुखबिरों ने आजाद के बारे में पुलिस को खबर कर दी। पुलिस ने पार्क पहुंच कर उन्होंने उन्हें घेर लिया। आजाद ने भी जेब से पिस्तौल निकालकर फायरिंग शुरू कर दी। दोनों तरफ से गोलाबारी हुई यह क्रम लगभग 20 मिनट तक चलता रहा। अंत में एक गोली चंद्रशेखर आजाद की जांघ में लगी तब भी वे फायर करते रहे उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को तुरंत वहां से निकलने के लिए कह दिया। जब अंत में आजाद के पास एक गोली बची और वह जांघ में लगी गोली की वजह से भाग भी नहीं पा रहे थे, तब आखिरी गोली उन्होंने खुद को मार ली और शहीद हो गए।
उन्होंने खुद को हमेशा आजाद रखने और जिंदा अंग्रेजों के हाथ ना लगने का खुद से किया हुआ वादा पूरा किया। पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का इतना खौफ था कि उनकी मौत के बाद भी पुलिस उनके मृत शरीर के पास जाने से डर रही थी। उनकी मृत्यु को सुनिश्चित करने के लिए पुलिस ने कई गोलियां उनके पैर के पास चलाई जब पूरी तरह से आश्वस्त हो गए कि चंद्रशेखर आजाद मर चुके हैं, तब वे उनके शव के पास गए। पुलिस ने पोस्टमार्टम के बाद उनके शव का अंतिम संस्कार बिना परिजनों के ही कर दिया था।
लोगों में इस बात का खासा असंतोष था। लोगों ने देश भर में इसके विरोध में जुलूस निकाले। अल्फ्रेड पार्क में जिस पेड़ के नीचे आजाद की मृत्यु हुई थी। वहां लोगों ने फूल माला चढ़ाने और पूजा करनी शुरू कर दी। लोग उस जगह की मिट्टी भी उठा कर अपने साथ ले जाने लगे थे। तब अंग्रेज सरकार ने रातों-रात उस पेड़ जड़ से कटवा कर उसकी लकड़ी को भी किसी दूसरी जगह फिंकवा दिया। और वहां की जमीन बराबर करवा दी। बाद में उस जगह पर बाबा राघवदास में जामुन का पेड़ लगाया जो आज भी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अल्फ्रेड पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क रख दिया गया। चंद्रशेखर आजाद की पिस्तौल को इलाहाबाद के म्यूजियम में रखा गया है।