Begin typing your search above and press return to search.
उत्तराखंड

त्रेपन सिंह चौहान: व्यवस्था से लड़ रहे योद्धा का अवसान

Janjwar Desk
13 Aug 2020 7:01 AM GMT
त्रेपन सिंह चौहान: व्यवस्था से लड़ रहे योद्धा का अवसान
x
त्रेपन सिंह चौहान चिपको, नशाबन्दी समेत कई भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का चेहरा रहे, टिहरी और फलेण्डा आन्दोलन में भी त्रेपन की सक्रिय भूमिका रही, कई फर्ज़ी मुकदमों की वजह से वह जेल और कचहरी में धकेले गये लेकिन इससे उनका न्याय का फलसफा कमज़ोर नहीं पड़ा...

वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी की टिप्पणी

लेखक और जन सरोकारों के लिये सतत संघर्ष करने वाले त्रेपन सिंह चौहान अब इस दुनिया में नहीं हैं। वह कई साल तक पहले कैंसर और फिर मोटर न्यूरॉन रोग (एमएनडी) जैसी असाध्य बीमारी से लोहा लेते रहे। जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने दिलेरी के साथ परिस्थितियों का सामना किया लेकिन जिस बीमारी ने दुनिया के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीफनहॉकिंग की जान ली वही त्रेपन के जाने का भी सबब बनी। गुरुवार सुबह देहरादून के एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली।

त्रेपन 1971 में टिहरी में जन्मे और उन्होंने इतिहास में एम ए किया। वह चिपको, नशाबन्दी समेत कई भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का चेहरा रहे। टिहरी और फलेण्डा आन्दोलन में भी त्रेपन की सक्रिय भूमिका रही। कई फर्ज़ी मुकदमों की वजह से वह जेल और कचहरी में धकेले गये लेकिन इससे उनका न्याय का फलसफा कमज़ोर नहीं पड़ा। त्रेपन ने समकालीन इतिहास में जन आंदोलनों के संघर्ष लेखनीबद्ध किया। उत्तराखंड आंदोलन और उसके बाद उपजी सामाजिक राजनीतिक स्थिति पर अब तो लिखा गया उनमें त्रेपन के दो महत्वपूर्ण उपन्यास यमुना और हे ब्वारी काफी चर्चित हैं। जीवन के आखिरी दिनों में भी त्रेपन बेहद खराब स्वास्थ्य के बावजूद एक उपन्यास पर काम कर रहे थे।

त्रेपन की राजनीति में जनसंघर्षों का एक अभिनव रूप दिखता है। इसकी एक मिसाल है घसियारी महोत्सव। पहाड़ में महिलायें परिवार की जीविका में अहम रोल अदा करती हैं। कृषि और पशुपालन इसका अहम हिस्सा हैं। जंगल से घास काट कर लाने वाली महिलाओं को घसियारी कहा जाता है जो कि एक अपमानजनक शब्द है। इस संबोधन में महिलाओं के काम के लिये एक हीन दृष्टि झलकती है लेकिन त्रेपन ने इस विकृत सोच का जवाब बहुत सृजनात्मक तरीके से दिया।

उन्होंने मुझे 2016 में घसियारी महोत्सव कवर करने के लिये घंसाली (उत्तराखंड के टिहरी का एक गांव) आने को कहा। इस महोत्सव में महिलाओं के बीच एक साथ घास काटने की प्रतियोगिता आयोजित की गई। फिर उनसे पर्यावरण और इकोलोजी से जुड़े सवाल पूछे गये। काटी गई घास का वजन और सवालों के जवाब के आधार पर वरीयता तय हुई।

पहले पुरस्कार के तौर पर एक लाख, दूसरे के लिये पचास हज़ार और तीसरे स्थान के लिये पच्चीस हज़ार दिये गये। त्रेपन का मकसद उस ग्रामीण घरेलू महिला के मन में अपने काम के लिये सम्मान पैदा करना था जिसे अक्सरहेय दृष्टि से देखा जाता है। साथ ही यह बताना भी कि पर्यावरण और इकोलॉजी से ग्रामीण महिलाओं का क्या रिश्ता है।

त्रेपन के सामाजिक संघर्ष में नैतिक हो या वित्तीय, किसी तरह के भ्रष्टाचार के लिये कोई जगह नहीं थी। उन्होंने घसियारी महोत्सव की शुरुआत में ही बैंक की पासबुकसबके सामने मेज पर रख दी जिसमें इक्ट्ठाकिये गये पैसे का हिसाब किताब था। पूरे कार्यक्रम के दौरान वह पासबुकटेबल पर रखी रही और जो महिला-पुरुष चाहता उसके लिये चंदे का बहीखाता सामने मौजूद था।

इस कार्यक्रम में त्रेपन ने मुझे एक सुखद सरप्राइज़ दिया। उन्होंने कार्यक्रम में अचानक मेरे उपन्यास 'लाल लकीर' का ज़िक्र किया जो बस्तर के आदिवासियों की कहानी है। मुझे बिना बताये त्रेपन'लाल लकीर' की कई कृतियां देहरादून से ले आये थे जो वहां लोगों ने खरीदीं।

त्रेपन के विरोध में पर्यावरण बचाने के साथ स्थानीय लोगों को न्याय दिलाने की इच्छा सर्वोपरि थी। "जब घंसाली में फलेण्डा बांध परियोजना आई तो त्रेपन ने सुनिश्चित किया कि स्थानीय लोगों को उसके हक हकूकों से वंचित न किया जा सके।"त्रेपन के साथी और भूविज्ञानी एस पी सती कहते हैं। त्रेपन के साथ जन संघर्षों के साथी रहे और उनके अभिन्न दोस्त शंकर गोपालाकृष्णन ने आखिरी दिनों में अपने दोस्त के लिये जो किया वह भी एक सुनहरी मित्रकथा है। शंकर आखिरी दम तक त्रेपन को बचाने और उनके परिवार के लिये स्थितियां आसान करने में लगे रहे हैं।

मैंने कुछ साल पहले त्रेपन का उपन्यास 'हे ब्वारी' पढ़ा जो राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में प्रशासनिक भ्रष्टाचार, राजनीतिक लूट और एनजीओ नेटवर्क को कटघरे में खड़ा करता है। त्रेपन के जन सरोकारों से जुड़े सवाल आज भी हमारा पीछा करते हैं। हम उन सवालों से कैसे जूझते हैं यह काफी हद तक हमारे समाज की राह और मुस्तकबिल को तय करेगा।

Janjwar Desk

Janjwar Desk

    Next Story