2014 में लूट, 2018 में टूट और चुनौतियों के चक्रव्यूह में 2019
2019 के चुनाव में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार के सामने भी ये चुनौती है कि उसे सत्ता गंवानी है या बीजेपी को बचाना है। गडकरी की आवाज इसी की प्रतिध्वनि है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी, वरिष्ठ टीवी पत्रकार
नये बरस का आगाज सवालों के साथ हो रहा है। ऐसे सवाल जो अतीत को खंगाल रहे हैं और भविष्य का ताना-बाना अतित के साये में ही बुन रहे हैं। देश लूट या टूट के मझधार में आकर फंसा हुआ है। देश संसदीय राजनीतिक बिसात में मंडल-कमंडल की थ्योरी को पलटने के लिये तैयार बैठा है। देश के सामने आर्थिक चुनौतिया 1991 के आर्थिक सुधार को चुनौती देते हुये नई लकीर खींचने को तैयार है।
देश प्रधानमंत्री पद की गरिमा और ताकत को लेकर नई परिभाषा गढने को तैयार है और बदलाव के दौर से गुजरते हिन्दुस्तान की रगों में पहली बार भविष्य को गढने के लिये अतीत को ही स्वर्णिम मानना दौड़ रहा है। ध्यान दें तो बरस बीतते बीतते एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह की राजनीति और अर्थशास्त्र को उस सियासत के केन्द्र में खड़ा कर दिया गया जो सियासत आज सर्वोच्च ताकत रखती है।
सिलसिलेवार तरीके से 2019 में उलझते हालातों को समझें तो देश के सामने पहली सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार की लूट और सामाजिक तौर पर देश की टूट के बीच से किसी को एक को चुनने की है। कांग्रेसी सत्ता 2014 में इसलिये खत्म हुई क्योंकि घोटालों की फेहरिस्त देश के सामने इस संकट को उभार रही थी कि उसका भविष्य अंधकार में है, मगर 2018 के बीतते बीतते देश के सामने भ्रष्टाचार की लूट से कहीं बड़ी लकीर सामाजिक तौर पर देश की टूट ही चुनौती बन खड़ी हो गई।
संविधान से नागरिक होने के अधिकार वोटर की ताकत तले इस तरह दब गये कि देश के 17 करोड़ मुस्लिम नागरिकों की जरूरत सत्ता को है ही नहीं इसका खुला एहसास लोकतंत्र के गीत गाकर सत्ता भी कराने से नहीं चूकी। नागरिक के समान अधिकार भी वोटर की ताकत तले कैसे दब जाते हैं, इसे 14 करोड़ दलित आबादी ने खुलकर महसूस किया। यानी संविधान के आधार पर खड़े लोकतांत्रिक देश में नागरिक शब्द गायब हो गया और वोटर शब्द हावी हो गया। 2019 में इसे कौन पाटेगा, ये कोई नहीं जानता।
2019 की दूसरी चुनौती 27 बरस पहले अपनाये गये आर्थिक सुधार के विकल्प के तौर पर राजनीतिक सत्ता पाने के लिये अर्थवयवस्था के पूरे ढांचे को ही बदलने की है। ये चुनौती उस लोकतंत्रिक सत्ता से उभरी है जिसमें नागरिक, संविधान और लोकतंत्र भी सत्ता बगैर महत्वहीन है। यानी किसान का संकट, मजदूर की बेबसी, महिलाओं के अधिकार, बेरोजगारी और सामाजिक टूटन सरीखे हर मुद्दे सत्ता पाने या न गंवाने की बिसात पर इतने छोटे हो चुके हैं कि भविष्य का रास्ता सिर्फ सत्ता पाने से इसलिये जा जुडा है, क्योंकि 2018 का पाठ अलोकतांत्रिक होकर खुद को लोकतांत्रिक बताने से जा जुड़ा। यानी देश बचेगा तो ही मुद्दे संभलेंगे और देश बचाने की चाबी सिर्फ राजनीतिक सत्ता के पास होती है।
यानी सत्ता के सामने संविधान की बिसात पर लोकतंत्र का हर पाया बेमानी है और लोकतंत्र के हर पाये के संवैधानिक अधिकारों को बचाने के लिये राजनीतिक सत्ता होनी चाहिये। 2019 में देश के सामने ये चुनौती है कि लोकतंत्र के किस नैरेटिव को वह पंसद करती है, क्योंकि मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की राह पर मोदी सत्ता है और संघ परिवार के स्वदेशी, खेती, किसानी और मजदूर की राह पर कांग्रेस है।
नैरेटिव साफ है कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के इकॉनोमी का रास्ता छोड़ा है, लेकिन पोस्टर ब्याय मनमोहन सिंह को ही रखा है। दूसरी तरफ मोदी सत्ता अर्थवयवस्था के उस चक्रव्यूह में जा फंसी है जहां खजाना खाली है पर वोटरों पर लुटाने की मजबूरी है। यानी राजकोषीय घाटे को नजरअंदाज कर सत्ता को बरकरार रखने के लिये ग्रामीण भारत के लिये लुटाने की मजबूरी है।
इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण और आखिरी चुनौती है सत्ता के लिये बनती 2019 की वह बिसात, जो 2014 की तुलना में 360 डिग्री में घूम चुकी है। इसकी परतें एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह से ही निकली है। मनमोहन सिंह या नरेन्द्र मोदी, दोनों दो ध्रुप की तरह राजनीतिक बिसात बता रहे हैं, क्योंकि एक तरफ एक्सीडेंटल पीएम मनमोहन सिंह को लेकर उस थ्योरी का उभरना है, जहां पीएम होकर भी मनमोहन सिंह कांग्रेस पार्टी के सामने कुछ भी नहीं थे। यानी हर निर्णय कांग्रेस पार्टी-संगठन चला रही सोनिया और राहुल गांधी थे। दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी की थ्योरी है, जहां पीएम के सामने ना पार्टी का कोई महत्व है न ही सांसदों का और ना ही कैबिनेट मिनिस्टरों का।
अपने ही वोटरों से कट चुके बीजेपी सांसद या मंत्री की भूमिका 2019 में होगी क्या, ये भी सवाल है। यानी एक तरफ सत्ता और पार्टी का बैलेस हैं तो दूसरी तरफ सत्ता का एकाधिकार है। 2018 बीतते बीतते ये संदेश भी दे चुका है कि 2019 के चुनाव में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार के सामने भी ये चुनौती है कि उसे सत्ता गंवानी है या बीजेपी को बचाना है। गडकरी की आवाज इसी की प्रतिध्वनि है।
दूसरी तरफ सोशल इंजीनियरिंग की जो थ्योरी कांग्रेस से निकल कर बीजेपी में समायी, अब वह भी आखिरी सांस ले रही है। क्षत्रपों के सामने खुद को बचाने के लिये बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर कांग्रेस की जमीन को मजबूत करना भी है। आखिरी तक मोदी सत्ता से जुड़कर अपनी जमीन को खत्म करना भी है।
चाहे अनचाहे मोदी काल ने 2019 के लिये एक ऐसी लकीर खींच दी है, जहां लोकतंत्र का मतलब भी देश को समझना है और संविधान को भी परिभाषित करना है। इकॉनोमी को भी संभालना है और राजनीति सत्ता को भी जन-सरोकार से जोड़ना है।