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26 हजार से भी ज्यादा जीव प्रजातियों पर मंडरा रहा है विलुप्तीकरण का खतरा
मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के चलते हालत यह हो गयी है कि लगभग सभी जीव प्रजातियों के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान हो गये हैं कम...
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
पूरी पृथ्वी पर नदियों का क्षेत्र केवल एक प्रतिशत भूभाग पर सीमित है, पर इसमें दुनिया के लगभग एक-तिहाई रीढ़धारी जन्तुओं का वास है। अब जब दुनियाभर की नदियां बेहाल हैं, तब जाहिर है इसमें रहने वाले जन्तुओं पर विलुप्तीकरण का खतरा बढ़ रहा होगा।
लेइब्निज़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ्रेशवाटर इकोलॉजी एंड इनलैंड फिशरीज के एक नए अध्ययन से स्पष्ट है कि नदियों में रहने वाले जंतुओं का विनाश जमीन पर रहने वाले या महासागरों में बसने वाले जंतुओं से अधिक तेजी से हो रहा है।
लेइब्निज़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ्रेशवाटर इकोलॉजी एंड इनलैंड फिशरीज के वैज्ञानिकों ने वर्ष 1970 से 2012 के बीच दुनियाभर की नदियों में रहने वाले बड़े रीढ़धारी जंतुओं का अध्ययन किया। बड़े जंतु वो हैं जिनका वजन 30 किलोग्राम या अधिक होता है। इसमें मगरमच्छ, घड़ियाल, बीवर, कछुए और रिवर डॉलफिन शामिल हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार दुनियाभर के आकलन बताते हैं कि वर्ष 1970 से 2012 के बीच नदियों के बड़े जंतुओं में 88 प्रतिशत तक की कमी आई है। यह कमी महासागरों या भूमि के जंतुओं की अपेक्षा दुगुनी से भी अधिक है।
दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन की नदियों में बड़े रीढ़धारी जंतुओं में 99 प्रतिशत तक कमी आंकी गई है। यहां ध्यान रखने वाला तथ्य यह है कि भारत भी इसी हिस्से में आता है। यूरोप और अमेरिका की नदियों में यह कमी 97 प्रतिशत तक है। बड़ी मछलियों की संख्या में 94 प्रतिशत तक और सरीसृप की प्रजातियों में 72 प्रतिशत तक गिरावट आयी है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द नेशनल अकेडमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान दौर में पृथ्वी अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले लगभग 44 करोड़ वर्ष पहले, 36 करोड़, 25 करोड़, 20 करोड़ और 6.5 करोड़ वर्ष पहले ऐसा दौर आ चुका है। पर उस समय सबकुछ प्राकृतिक था और लाखों वर्षों के दौरान हुआ था।
इन सबकी तुलना में वर्तमान दौर में सबकुछ एक शताब्दी के दौरान ही हो गया है। वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं बल्कि सामान्य प्रजातियां भी खतरे में हैं। इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है। आज हालत यह है कि लगभग सभी प्रजातियों के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान ही कम हो गए।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की सूची में कुल 93577 प्रजातियां हैं, इनमें से 26197 पर विलुप्तीकरण का खतरा है और 872 विलुप्त हो चुकी हैं।
लेइब्निज़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ्रेशवाटर इकोलॉजी एंड इनलैंड फिशरीज के वैज्ञानिकों के अनुसार नदियों में बड़े जंतुओं के कम होने और विलुप्त होने का कारण नदियों का अत्यधिक दोहन, जंतुओं का अत्यधिक शिकार, नदियों के प्राकृतिक स्वरूप से खिलवाड़ और लगातार बड़े बांधों का बनना है।
अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियां एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है।