जनरल रावत के असम की राजनीति पर दिए सांप्रदायिक बयान से उनके रिटायरमेंट के बाद की महत्वाकांक्षाओं का इंतजाम तो हो जाएगा, लेकिन देश की सुरक्षा का सवाल राजनीति की सीढ़ी बनने लगेगी तो हमें गर्त में जाने से कौन रोक पाएगा...
जनज्वार। जनरल रावत द्वारा बुधवार 21 फरवरी को ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट (AIUDF) पर दिए गए बयान के बाद टीका—टिप्पणियों का दौर तो चल ही पड़ा है, साथ ही विश्लेषण भी होने लगे हैं कि आखिर एक सेना प्रमुख को यह राजनीतिक बयान क्यों देना पड़ा है, जरूरत ही क्या पड़ी?
लगता है जनरल बिपिन रावत को भी पूर्व जनरल और विदेश राज्य मंत्री बीके सिंह की राह पर चलने का चस्का लग गया है। और लगे भी क्यों नहीं, जब दो—चार विवादास्पद बयान ही किसी के रिटायरमेंट के बाद का इंतजाम कर दें।
याद होगा 2011 में अन्ना आंदोलन की शुरुआत के बाद सेना प्रमुख रहते हुए विदेश राज्य मंत्री बीके सिंह ने अन्ना आंदोलन के पक्ष में एक उड़ती हुई तीर दागी थी। दागी हुई उसी तीर की बदौलत उन्हें पहले देश ने अन्ना आंदोलन के भ्रष्टाचार विरोधी नेता के रूप में, फिर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ विद्रोही के रूप में देखा, फिर भाजपा सांसद के रूप में और अब केंद्रीय राज्य मंत्री के रूप में देख रहा है।
अपने मौजूदा आर्मी चीफ जनरल बिपिन रावत भी कमोबेश उसी राह पर चल पड़े हैं। चलने की वजह है भी, कि बीके सिंह भी विवादास्पद बयानों के बाद सत्ता की मलाई खा रहे हैं। पहले जीवनभर सेना के मलाईदार पोस्टों पर नौकरी की, तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगे, फिर अन्ना के आंदोलन में कूद गए, जब लगा कि यह लक्ष्य नहीं है तो भाजपा में शामिल होकर सांसद बने और अब मंत्री।
कुछ उसी तरह की चाहत में बिपिन रावत ने भी बयान दिया है जिससे रिटायरमेंट के बाद उनकी भी सीट राज्यपाल के लिए या फिर राज्यसभा—लोकसभा के लिए राजनीति में रिजर्व हो जाए। अन्यथा एक सेना प्रमुख को क्या लेना देना कि किस पार्टी का विस्तार हो रहा है और किस पार्टी का नहीं। और अगर विस्तार हो भी रहा है तो इसमें समस्या क्या है, क्या पार्टी का विस्तार कोई गुनाह है?
जनरल बिपिन रावत ने बुधवार को पाकिस्तान के प्रॉक्सी वॉर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि असम के AIUDF नाम के राजनीतिक संगठन को देखना होगा। उसका बीजेपी के मुकाबले तेजी से विकास हुआ है। जनसंघ से लेकर बीजेपी तक की यात्रा जितनी लंबी रही है, उसके मुकाबले AIUDF का बहुत तेज विस्तार हुआ है।
गौरतलब है कि AIUDF असम में मुस्लिमों के मसले उठाती रही है और राज्य में बड़ी राजनीतिक ताकत है। इस पार्टी के प्रमुख बदरूद्दीन अजमल हैं।
इन तथ्यों के मद्देनजर अब जरा इस टिप्पणी पर गौर कीजिए। हमारे जनरल साहब बिपिन रावत और संघ प्रमुख मोहन भागवत की चिंताओं में क्या फर्क है? जबकि संघ प्रमुख मोहन भागवत मुस्लिम विरोधी संगठन आरएसएस के प्रमुख हैं और बिपिन रावत इस देश की सेना के प्रमुख। जिसको भरोसा न हो तो वह गूगल में सर्च करके देख ले कि संघ प्रमुख या हिंदूवादी संगठन इससे कत्तई अलग बात असम की मुस्लिम पक्षकारी वाली पार्टी AIUDF के बारे में कहते हैं।
ऐसे में साफ है कि सेना प्रमुख के बयान का कोई सैन्य महत्व नहीं है। क्योंकि सैन्य स्तर पर जो स्थितियां होंगी उसको सेना और खुफिया एजेंसियां अपने स्तर पर निपट रही होंगी और उसके लिए सेना ऐसे बयान नहीं देती।
पर चिंता का विषय यह है कि सेना जैसे संवेदनशील क्षेत्र का भी राजनीतिक इस्तेमाल होना या उसका चलन शुरू हो जाना। यह देश के लिए बड़ा खतरा है।