अशोक वाजपेयी की कविताएं
... मेरे शब्द/ जो उसकी उदास गरीबी को /एक चमक-भर दे सकते हैं /कोई अर्थ नहीं।
अपनी इन्हीं पंक्तियां के अनुरूप अशोक वाजपेयी की कविताई एक चमक तो देती है पर स्पष्ट अर्थ नहीं, क्योंकि कवि में विश्वास और उस साहस की कमी है जिसके बारे में केदारनाथ सिंह कहते हैं कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। केदार जी की तरह वाजपेयी भी शब्दों से खेलते हैं, पर वह खेल दिखा नहीं पाते। साहस और विश्वास की इस कमी को उनकी कविता 'नि:शब्द' में भी अभिव्यक्ति मिली है। जिसमें कवि इमारत से कूद जान देने वाले व्यक्ति को देखने तक की जहमत उठाए बिना दौड़कर अपनी नयी नियुक्ति का पता लगाने चला जाता है - 'मेरे शब्द उछलकर / उसे बीच में ही झेल लेना चाहते हैं / पर मैं हूं कि दौड़कर...नि:शब्द घर जाता हूं।' यह जो शब्द और कवि के बीच विभाजन है, वह कभी भी कवि को पूरे मन से कविता लिखने नहीं देता, वह उन्हें अक्सर नि:शब्द और गूंगा बनाता है और उनकी अधिकांश कविताएं एक आधी-अधूरी अभिव्यक्ति की विडंबना को प्राप्त होती हैं।
वक्तव्य की ईमानदारी के प्रमाण वाजपेयी की कविता में अक्सर मिलते हैं - ... मेरी चाहत की कोशिश से सटकर /खड़ी थी वह बेवकूफ लड़की /थोड़ा दमखम होता /तो मैं शायद चाट सकता था /अपनी कुत्ता जीभ से /उसका गदगदा पका हुआ शरीर/ आख्रिर मैं अफसर था। यहां देखें कि वाजपेयी में इस कुत्ता जीभ को बयान करने की हिम्मत कहां से आ रही है, वह ईमानदारी के चौखटे से नहीं आ रही है वह अफसरी की ताकत से आ रही है। वह ताकत ही है जो चीख को फुरसत का उत्पाद बना रही है। चीख की ताकत की अभिव्यक्ति देखनी हो तो आप आलोक धन्वा को याद कर सकते हैं जिन्हें कविता एक ली जा रही जान की तरह या चीख की तरह बुलाती है। अपनी कामनाओं की कवि की पहचान सही है पर जो अफसरी उसे मिली है उसका तालमेल इस कामना से बन नहीं पाता। हालांकि आशा मरती नहीं है, एक कविता में वह लिखता है - ... जाएंगे सारे पाप/ पर बचा रह जाएगा एकाध /असावधानी से हो गया पुण्य। असावधानी से हुए एकाध पुण्य की तरह उनकी कुछ कविताएं ऐसी भी हैं, जहां वे सहज ढंग से खुद को अभिव्यक्त कर पाये हैं। —कुमार मुकुल
चीख
यह बिल्कुल मुमकिन था
कि अपने को बिना जोखिम में डाले
कर दूँ इनकार
उस चीख से,
जैसे आम हड़ताल के दिनों में
मरघिल्ला बाबू, छुट्टी की दरख्वास्त भेजकर
बना रहना चाहता है वफादार
दोनों तरफ।
अँधेरा था
इमारत की उस काई-भीगी दीवार पर,
कुछ ठंडक-सी भी
और मेरी चाहत की कोशिश से सटकर
खड़ी थी वह बेवकूफ-सी लड़की।
थोड़ा दमखम होता
तो मैं शायद चाट सकता था
अपनी कुत्ता-जीभ से
उसका गदगदा पका हुआ शरीर।
आखिर मैं अफसर था,
मेरी जेब में रुपिया था, चालाकी थी,
संविधान की गारंटी थी।
मेरी बीवी इकलौते बेटे के साथ बाहर थी
और मेरे चपरासी हड़ताल पर।
चाहत और हिम्मत के बीच
थोड़ा-सा शर्मनाक फासला था
बल्कि एक लिजलिजी-सी दरार
जिसमें वह लड़की गप्प से बिला गई।
अब सवाल यह है कि चीख का क्या हुआ?
क्या होना था? वह सदियों पहले
आदमी की थी
जिसे अपमानित होने पर
चीखने की फुरसत थी।
सड़क पर आदमी
वह जा रहा है
सड़क पर
एक आदमी
अपनी जेब से निकालकर बीड़ी सुलगाता हुआ
धूप में–
इतिहास के अँधेरे
चिड़ियों के शोर
पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर
वह आदमी...
बिजली के तारों पर बैठे पक्षी
उसे देखते हैं या नहीं – कहना मुश्किल है
हालाँकि हवा उसकी बीड़ी के धुएँ को
उड़ाकर ले जा रही है जहाँ भी वह ले जा सकती है...
वह आदमी
सड़क पर जा रहा है
अपनी जिंदगी का दुख–सुख लिए
और ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने पर
किसी को फर्क नहीं पड़ता
और कोई नहीं देखता उसे
न देवता¸ न आकाश और न ही
संसार की चिंता करने वाले लोग
वह आदमी जा रहा है
जैसे शब्दकोश से
एक शब्द जा रहा है
लोप की ओर....
और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है
और न ही उसका इस तरह नामहीन
ओझल होना...
कल जब शब्द नहीं होगा
और न ही यह आदमी
तब थोड़ी–सी जगह होगी
खाली–सी
पर अनदेखी
और एक और आदमी
उसे रौंदता हुआ चला जाएगा।