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शिक्षा

बदतर शिक्षा के मामले में दूसरे नंबर पर भारत

Prema Negi
10 Nov 2018 1:27 PM GMT
बदतर शिक्षा के मामले में दूसरे नंबर पर भारत
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कई सालों तक स्कूलों में पढ़ने के बावजूद लाखोंलाख बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते, नहीं हल कर पाते गणित के आसान सवाल तक, तो क्या फायदा ऐसी पढ़ाई का....

स्वतंत्र पत्रकार जावेद अनीस की रिपोर्ट

किसी भी प्रगितिशील राष्ट्र के लिये शिक्षा एक बुनियादी तत्व है इसलिए जरूरी हो जाता है कि इसके महत्त्व को समझते हुए ये सुनिश्चित किया जाये की समाज के सभी वर्गों के बच्चों को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अवसर मिल सके। परन्तु इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद आज भी यह देश अपने सभी बच्चों के स्कूलों में नामांकन को लेकर ही जूझ रहा है।

इस दौरान हमारे सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को लेकर आ रही रिपोर्टें, खबरें अमूमन नकारात्मक ही होती हैं। विश्व बैंक की “वर्ल्ड डेवेलपमेंट रिपोर्ट 2018- लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस” में दुनिया के उन 12 देशों की सूची जारी की गई है जहां की शिक्षा व्यवस्था सबसे बदतर है, इस सूची में भारत का स्थान दूसरे नंबर है।

रिपोर्ट के अनुसार कई सालों तक स्कूलों में पढ़ने के बावजूद लाखों बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते हैं, वह गणित के आसान सवाल भी नहीं कर पाते हैं। ज्ञान का यह संकट सामाजिक खाई को और बड़ा कर रहा है। और इससे गरीबी को मिटाने और समाज में समृद्धि लाने के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता है।

यह विडम्बना है कि 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने बाद भी हमारी स्कूली शिक्षा में वर्गभेद बढ़ता जा रहा है और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरत कारोबार बनती जा रही है। इधर सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और यहां बच्चों की संख्या लगातार घट रही हैं, जबकि प्राइवेट स्कूलों में इसका उल्टा हो रहा है पिछले कुछ दशकों के दौरान छोटे शहरों, कस्बों और गावों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं, हालांकि इनमें से ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों की स्थिति सरकारी स्कूलों से खराब है।

इस साल 1 अप्रैल को शिक्षा अधिकार कानून को लागू हुये 8 साल पूरे हो चुके हैं, इस कानून तक पहुंचने में हमें पूरे सौ साल का समय लगा है। 1910 में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा के अधिकार की मांग की गयी थी, और फिर आजादी के बाद शिक्षा को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में ही स्थान मिल सका जो कि अनिवार्य नहीं था और यह सरकारों की मंशा पर ही निर्भर था।

2002 में भारत की संसद में 86वें संविधान संशोधन द्वारा इसे मूल अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस तरह से शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा मिल सका। फिर 1 अप्रैल 2010 को “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू हुआ, जिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों और इसके लिए उनसे किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क नहीं लिया जा सकेगा।

आज शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के इतने सालों के बाद भी चुनौतियों बरकरार हैं, पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षकों से दूसरे काम कराया जाना, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रुकावट और बच्चों के बीच में पढाई छोड़ने देने की दर और संसाधनों की कमी जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं।

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने जुलाई 2017 में पेश अपनी की गयी अपनी रिपोर्ट में शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन को लेकर कई गंभीर सवाल उठाये गये हैं। रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर राज्य सरकारों के पास यह तक जानकारी ही नहीं है कि उनके राज्य में ज़ीरो से लेकर 14 साल की उम्र के बच्चों की संख्या कितनी है।

रिपोर्ट के अनुसार देशभर के स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है और बड़ी संख्या में बड़ी संख्या में स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। इन सबका असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूलों में बच्चों की रूकावट पर देखने को मिल रहा है।

खुद शिक्षा अधिकार कानून की कई ऐसी समस्याएं हैं जिनका दुष्प्रभाव आज हमें देखने को मिल रहा है, जैसे यह कानून केवल 6 से 14 साल की उम्र के ही बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है और इसमें 6 वर्ष के कम आयु वर्ग के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है। यानी कानून में बच्चों के प्री-एजुकेशन नजरअंदाज किया गया है।

इसी के साथ ही 15 से 18 आयु समूह के बच्चे भी कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया है यानी कक्षा 8 से बारहवीं तक तक के लिये बच्चों के लिये शिक्षा कोई गारंटी नहीं है जिसकी वजह से उनके उच्च शिक्षा की संभावनायें बहुत क्षीण हो जाती हैं। इसी तरह से शिक्षा अधिकार कानून अपने मूल स्वरूप में ही दोहरी शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार करती है। जबकि इसे तोड़ने की जरूरत थी।

निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान मध्यवर्ग के बाद गरीब और वंचित वर्गों के लोगों भी सरकाई स्कूलों से भरोषा तोड़ने वाला कदम साबित हो रहा है। यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है। जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं वे अपने बच्चों को पहले से ही प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं, लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर है। कानून द्वारा उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहा है।

लोगों का सरकारी स्कूलों के प्रति विश्वाश लगातार कम होता जा रहा है जिसके चलते साल दर साल सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या घटती जा रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले अभिभावकों में निजी स्कूलों के प्रति आकर्षण नहीं था लेकिन उक्त प्रावधान का सबसे बड़ा सन्देश यह जा रहा है कि सरकारी स्कूलों से अच्छी शिक्षा निजी स्कूलों में दी जा रही ,है इसलिए सरकार भी बच्चों को वहां भेजने को प्रोत्साहित कर रही है।

देखने में आ रहा है कि शिक्षातंत्र का ज्यादा जोर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के तहत तय लिए गये 25 फीसदी प्राइवेट स्कूलों के सीटों के दाखिले को लेकर है और वहां के शिक्षक इलाके के गरीब बच्चों का प्राइवेट स्कूलों में दाखिले के लिए ज्यादा दौड़ भाग कर रहे हैं, सरकारी स्कूलों के शिक्षक इस बात से हतोत्साहित भी हैं कि उन्हें अपने स्कूलों में बच्चों के एडमिशन के बजाये प्राइवेट स्कूलों के लिए प्रयास करना पड़ रहा है।

इस प्रकार पहले से कमतर शिक्षा का आरोप झेल रहे सरकारी स्कूलों में स्वयं सरकार ने कमतरी की मुहर लगा दी है। यह प्रावधान सरकारी शिक्षा के लिए भस्मासुर बन चुका है। यह एक गंभीर चुनौती है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है । क्यूंकि अगर सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था ही धवस्त हो गयी तो फिर शिक्षा का अधिकार की कोई प्रासंगिकता ही नहीं बचेगी।

इधर सरकारी स्कूलों को कंपनियों को ठेके पर देने या पीपीपी मोड पर चलाने की चर्चायें जोरों पर हैं, कम छात्र संख्या के बहाने स्कूलों को बड़ी तादाद में बंद किया जा रहा है। प्राइवेट लाबी और नीति निर्धारकों पूरा जोर इस बात पर है की किसी तरह से सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था को नाकारा साबित कर करते हुये इसे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया जाये जिससे निजीकरण के लिये रास्ता बनाया जा सके। निजीकरण भारत में शिक्षण के बीच खाई और बढ़ेगी और गरीब और वंचित समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित हो जायेंगे।

1964 में कोठारी आयोग भारत का ऐसा पहला शिक्षा आयोग प्राथमिक शिक्षा को लेकर कई ऐसे महत्वपूर्ण सुझाव दिये थे जो आज भी लक्ष्य बने हुए हैं। आयोग का सुझाव था कि समाज के अन्दर व्याप्त जड़ता सामाजिक भेदभाव को समूल नष्ट करने के लिए समान स्कूल प्रणाली एक कारगर औजार होगा।

समान स्कूल व्यवस्था के आधार पर ही सभी वर्गों और समुदायों के बच्चे एक साथ सामान शिक्षा पा सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के उच्च वर्गों के लोग सरकारी स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख़ करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी।

लोकतंत्र में राजनीति ही सब कुछ तय करती है, लेकिन दुर्भाग्यवश से शिक्षा का एजेंडा हमारे राजनीतिक पार्टियों एजेंडे में नहीं है और न ही यह उनके विकास के परिभाषा के दायरे में आता है। हमारे राजनेता नारे गढ़ने में बहुत माहिर है, अब देश के बच्चों को भी उन्हें एक नारा गढ़ना चाहिए “सबके लिये समान, समावेशी, और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा” का नारा।

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