मोदी की चौकीदारी की राजनीति में वरिष्ठ भाजपाई सुब्रमण्यम के ब्राह्मणवाद का तड़का
भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी का यह कहना कि 'मैं चौकीदार नहीं हो सकता क्योंकि मैं ब्राह्मण हूं' राष्ट्रीय सेवक संघ और भाजपा के समरसतावाद के ज़मीनी यथार्थ को उजागर करता है....
वरिष्ठ लेखक जयप्रकाश कर्दम का विश्लेषण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं को ‘जनता का सेवक’ या ‘देश का चौकीदार कहने में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था। कोई भी नेता स्वयं को देश की जनता के प्रति जिम्मेदार तथा साफ़-सुथरी, बेदाग़ छवि वाला तथा भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला ईमानदार व्यक्ति सिद्ध करने के लिए ऐसा कह सकता है।
मोदी इस प्रकार की बातें कहने के प्रति कुछ अधिक ही उत्साहित रहते हैं। इसलिए उन्होंने इन शब्दों का बहुतायत में प्रयोग किया है, और कुछ ऐसे विशिष्ट अन्दाज़ और शैली में प्रयोग किया है क़ि ये शब्द उनके विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगे।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राफ़ेल ख़रीद में दलाली, उद्योगपति मुकेश अम्बानी को लाभ पहुँचाए जाने तथा विभिन्न बैंकों से हज़ारों करोड़ रूप का क़र्ज़ लेकर उसे बिना चुकाए कार्रवाई से बचने के लिए विजय माल्या, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी आदि के देश से फ़रार होने को मुद्दा बनाकर नरेंद्र मोदी को घेरते हुए 'चौकीदार चोर है’ का नारा दिया।
राहुल गांधी विरोधी दल के नेता हैं, इसलिए उनके द्वारा इस शब्द का प्रयोग करना भी कोई आश्चर्यजनक नहीं है। यदि प्रधानमंत्री स्वयं को ‘चौकीदार’ कह सकते हैं तो विपक्षी दल का नेता भी उनकी आलोचना करते हुए चौक़ादार को चोर बता सकता है। किंतु जब से नरेंद्र मोदी ने अपने नाम के साथ चौकीदार जोड़ते हुए इसे अपने चुनावी अभियान का आधार बनाया है, तब से भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में स्वयं को ‘मैं भी चौकीदार’ कहने की होड़ सी लगी है।
सोशल मीडिया में भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं से लेकर छुटभैये नेताओं तक, सब के सब गर्व के साथ अपने नाम के साथ चौकीदार शब्द को लगा रहे हैं। स्थिति यह है कि आज के समय में ‘चौकीदार’ शब्द भाजपा के नेताओं का एक विशेषण सा बन गया है।
किंतु भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने चौकीदार शब्द पर जातिवादी टिप्पणी करते हुए कहा कि 'मैं चौकीदार नहीं हो सकता क्योंकि मैं ब्राह्मण हूं’। कुछ दिन पूर्व थांथी टीवी नाम के एक तमिल समाचार चैनल को दिए एक इंटरव्यू में स्वामी ने कहा कि ब्राह्मण होने की वजह से उन्होंने ट्विटर पर अपने नाम के आगे चौकीदार शब्द नहीं जोड़ा। बाद में इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया पर यह प्रकाशित हुआ।
उनकी इस टिप्पणी ने नरेंद्र मोदी और भाजपा को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है कि वे सुब्रह्मण्यम स्वामी की इस टिप्पणी को किस रूप में लें। सुब्रह्मण्यम स्वामी का यह कथन भारतीय समाज एक बहुत बड़े यथार्थ को बयान करता है। यदि यह कथन भारतीय जनता पार्टी के बजाए कांग्रेस या भाजपा विरोधी किसी अन्य पार्टी के नेता द्वारा दिया गया होता तो इसके अलग निहितार्थ हो सकते थे। किंतु यह कथन स्वयं भाजपा नेता का है, जिसके बारे में आम जनता में वैसे भी यह धारणा है कि भाजपा ब्राह्मण बनियों की पार्टी है और दलित-बहुजन समाज की दृष्टि में भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी है।
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ऐसे में सुब्रह्मण्यम स्वामी के इस कथन के विशेष मायने हैं। उनका यह कथन भाजपा के बारे में आम जनता की उक्त धारणा को पुष्ट करता है। साथ ही राष्ट्रीय सेवक संघ और भाजपा के समरसतावाद के ज़मीनी यथार्थ को उजागर करता है।
सुब्रह्मण्यम स्वामी स्वयं को चौकीदार कहें या नहीं कहें, अपने नाम के साथ चौकीदार शब्द लगाएँ या नहीं लगाएँ, यह उनका निजी सोच और अधिकार है। यह अपनी पार्टी की लाइन से अलग अथवा उसके विरुद्ध जाना हो सकता है और पार्टी अपने तरीक़े से उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकती है। विरोधी पार्टियों के नेता उनके इस कथन के आधार पर भाजपा को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं, जैसा कि हाल में सेम पित्रोदा और पूर्व में मणिशंकर अय्यर की टिप्पणियों के आधार पर भाजपा नेताओं द्वारा कांग्रेस पर तीखा हमला किया गया है।
किंतु सुब्रह्मण्यम स्वामी के कथन से सवाल यह उठता है कि ब्राह्मण चौकीदार क्यों नहीं हो सकता? क्या इसलिए कि चौकीदार का काम बहुत छोटा और असम्मानजनक काम है। यह सेवा-कर्म के अंतर्गत आता है, और ब्राह्मण किसी की सेवा नहीं कर सकता। सामाजिक परिस्थिति में सर्वोच्च स्थान पर और द्विज होने के कारण वह साधारण मनुष्य नहीं है, अपितु सामान्य मनुष्यों से श्रेष्ठ और विशिष्ट प्रकार का मनुष्य है।
निम्न वर्ण और जातियाँ उसकी सेवा के लिए हैं। यदि वह भी सेवा-कर्म करेगा तो निम्न वर्णों में और उनमें क्या भेद रह जाएगा। वह कोई भी बड़ा और सम्माजनक काम ही कर सकता है। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण वर्ग का काम शिक्षा पाना और देना है। आज की शब्दावली में कहा जाए तो ब्राह्मण को शिक्षक या अध्यापक ही होना चाहिए, किंतु बदलते समय के साथ ब्राह्मण वर्ग ने स्वयं को बदला है और परम्परागत वर्ण-व्यवस्था के अपने सिद्धांत को नए ढंग से परिभाषित और व्याख्यायित करना शुरू किया है।
तेज़ी के साथ होते शहरीकरण और आधुनिकीकरण, दलित-बहुजन समाज में शिक्षा के प्रसार से आयी सामाजिक जागरूकता के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता के मामले में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। अस्पृश्यता समाप्त हो गयी है, ऐसी बात नहीं है, जैसाकि बहुत से लोग गर्व के साथ यह कहते पाए जाते हैं। आज अस्पृश्यता का रूप बदल रहा है। सवर्णों के दिमाग़ में श्रेष्ठता और शुचिता का भाव निरंतर बना हुआ है। सुब्रह्मण्यम स्वामी का कथन इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
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वर्ण-व्यवस्था के अपने पढ़ने-पढ़ाने के कर्म से नीचे उतरकर ब्राह्मण आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर, डाक्टर, जज, अधिवक्ता, चारटर्ड अकाउंटेंट आदि सब कुछ बन रहे हैं। अपनी आर्थिक सम्पन्नता के लिए वे बहुत मज़े से नौकरी कर रहे हैं। व्यवसाय भी कर रहे हैं, जोकि वेश्यों का काम था। पुलिस और सेना में जाकर शस्त्र चला रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं, जोकि क्षत्रियों का काम था। वे खेती भी कर रहे हैं, जोकि मुख्यतया क्षत्रीय और पिछड़ी जातियों द्वारा की जाती है। और राजनीति तो वे कर ही रहे हैं।
अर्थात अपनी सुविधा के लिए ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के ढाँचे को तोड़ रहे हैं, किंतु चौकीदारी जैसे निम्न स्तर के काम करने के लिए उनका मानस तैयार नहीं है। जिस तरह सफ़ाईकर्मी का काम करने के लिए वे तैयार नहीं हैं।
उल्लेखनीय है कि सरकारी क्षेत्र में, जिसमें हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा ग़रीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है, सफ़ाईकर्मी के अधिकांश पदों पर अनुसूचित जाति के लोग ही नियुक्ति पा रहे हैं और बात-बात पर जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता की समाप्ति का ज़ोर-शोर से ढोल पीटते हुए आरक्षण का विरोध करने वाले लोग इस बात पर ख़ामोश रहते हैं कि सफ़ाईकर्मी के पदों पर सवर्ण बेरोज़गार आवेदन क्यों नहीं करते?
सुब्रह्मण्यम स्वामी का कथन इस ख़ामोशी को तोड़ता है और यह स्पष्ट करता है कि सेवा-कर्म से जुड़े निम्न स्तर के पद ब्राह्मणों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ब्राह्मण वर्ग को श्रेष्ठता और सम्मान के साथ मलाई चाहिए, वह चौकीदार जैसी निम्न स्तर की चाकरी नहीं कर सकता। यह उसकी जातीय गरिमा के ख़िलाफ़ है।
यदि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने यह कहा होता कि मैं वक़ील हूं, इसलिए मैं चौकीदार नहीं हो सकता तो इसमें कुछ तार्किकता हो सकती थी। किंतु उनके कथन में चौकीदार जैसे निम्न स्तर के पदों के प्रति अपमान और हेयता का भाव है। यानी चौकीदार बनना ब्राह्मण के लिए सम्माजनक नहीं अपमानजनक है।
सुब्रह्मण्यम स्वामी का यह कथन क्या देशभर के उन तमाम चौकीदारों का अपमान नहीं है जो निम्न जातियों से आते हैं? और चौकीदारी के प्रति हेयता का यह भाव क्या चौकीदारी के काम का भी अपमान नहीं है? सुब्रह्मण्यम स्वामी के इस कथन पर भाजपा नेताओं की गहरी चुप्पी उनके मत और दृष्टिकोण का समर्थन करती प्रतीत होती है। स्वामी का यह कथन ब्राह्मणवादी मानसिकता की उदभूति है, तथा उनके इस कथन का विरोध न करना अथवा चुप रहना ब्राह्मणवाद का समर्थन और पोषण है।
यह इस बात का संकेत है कि जिस चौकीदारी का शोर आज देश में मचाया जा रहा है, वह देश के लोगों की जान-माल, सम्पदा, इज़्ज़त की चौकीदारी नहीं, बल्कि ब्राह्मणवादी विचार, सत्ता और संस्थाओं की चौकीदारी है। यह तथ्य भी कम चौंकाने वाला नहीं है कि स्वयं को चौकीदार कहने वालों के मुँह पर तो इस मुद्दे को लेकर टेप सी चिपकी हुई है ही चौकीदार को चोर बताने वाले भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। वे भी इस पर मौन हैं।
यह चौकीदारी की राजनीति और उसका ब्राह्मणवाद है। दोनों का यह मौन बहुत कुछ कहता है। वर्ण और जाति से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे दलित-बहुजन समाज को उनके इस मौन की भाषा और उसके निहितार्थों को पढ़ना और समझना चाहिए।
(जयप्रकाश कर्दम वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार हैं, उन्होंने दलित समाज की सच्चाइयों को सामने लाने वाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी किया है।)