Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

संयोग न घटित होता तो क्या सलीम आतंकवादी हो जाता

Janjwar Team
13 July 2017 10:36 AM GMT
संयोग न घटित होता तो क्या सलीम आतंकवादी हो जाता
x

अच्छा हुआ कि सलीम गाड़ी से उतरकर अपनी जान बचाने के लिए नहीं भागा, नहीं तो हमारा ही समाज उसे कहता कि आतंकवादी था, उसकी यही योजना ही थी! उस सीट पर बैठा कोई और भागता तो शायद हमारा अधिसंख्य समाज कुछ और ही कहता...

अभिषेक प्रकाश, पुलिस उपाधीक्षक

अमरनाथ यात्रा के दौरान हुए आतंकी हमले में बस ड्राइवर सलीम ने अपनी जान बचाई और साथ में उन लोगों की भी जो उस समय बस में सवार थे। लोगों ने कहा कि सलीम मुसलमान था और मुसलमान जुड़ते ही एक पक्ष ने उसके आतंकी या उसके सहयोगी होने का सबूत ढूंढ़ना भी शुरू कर दिया। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, अगर आप भारत मे पैदा हुए है तो ये सब सामान्य—सी स्थिति है।

आपकी उपलब्धि से ज्यादा कारगर आपकी जातीय-धार्मिक पहचान भी हो सकती है। सलीम नाम से ही स्पष्ट है कि वह किस धर्म का है इसलिए इससे जुड़ी सारी पृष्ठभूमि हमारे दिमाग में जगह बना ही लेती है।

हां, अगर उसका नाम कोई राधेश्याम होता तो हम जरूर पूछते कि आगे क्या! मतलब किस जाति से। जाति-धर्म से रंगा हमारा समाज बाहरी रूप से चाहे कितना भी उदार क्यों न दिखाई दे, इसका गुणसूत्र असली आईना दिखा ही देता है। कुछ भी यहाँ अचानक से परिवर्तित नहीं होने वाला! यहां तमाम बार 'जाति (धर्म) ही पूछो साधु की' जैसे रूपक से ही तमाम प्रश्नों का हल ढूंढ़ा जाता रहा है।

बात सलीम की हो रही थी कि जब वह आतंकवादियों की गोलाबारी के बीच से अपने व अन्य यात्रियों को बचा रहा था, तब आखिर वह क्या था? एक मुसलमान या एक साधारण इंसान! सोचिए इस देश की अधिसंख्य जनता क्या है? क्या है उसकी पहचान?

आदमी जो खेतों, कल-कारखानों में काम कर रहा है या फिर कोई पेंशन- योजना, सरकारी भत्ता, आधार कार्ड, किसी आवास योजना या कोई शौचालय के निर्माण हेतु कुछ निधि के लिए या फिर इंजीनियरिंग-एमबीए करके किसी नौकरी के लिए अपने मालिक-नेता या फिर नौकरशाह के सामने पंक्तिबद्ध खड़ा है, तब उसकी पहचान क्या होती है?

रोटी-कपड़ा-मकान की जद्दोजहद में एड़ियां घिसते एक 'जूझारू-बेबस-लाचार इंसान' की या फिर 'हिन्दू-मुसलमान' की! सोचिए आपकी पहचान क्या है! हमारे अधिकतर निर्णय हमारी किस जरूरत के इर्दगिर्द केंद्रित रहती है। पेट के या फिर धर्म के!

भारत जैसे देश में हमारा धर्म हमारा पेट तय करता है। चूंकि पेट की सीमाओं में ही हम धर्म को धारित करते हैं। सलीम के दो जून रोटी का जुगाड़ इसी ड्राईवरी पेशे से होता था। इसी से उसका परिवार पलता था। वह हिंदुओं के पवित्र स्थल पर मुस्लिम बनकर नहीं रोजी-रोटी की लड़ाई लड़ने वाले एक आम इंसान की तरह जाता था। उस समय भी वही सलीम गाड़ी चला रहा था।

लेकिन फिर अचानक से क्या हुआ कि वह मुसलमान हो गया? देशभर में मीडिया ने उसे एक मुसलमान के रूप में पेश करना शुरू किया! इसके पीछे वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक उद्देश्य हो सकते हैं और हैं भी। ठीक उसी समय कुछ लोग उसे आतंकी सिद्ध करने में लग गए, चूंकि उनके भी अपने स्वार्थ हैं।

उनके तर्क भी सुन लीजिए गोया कि वह गोलियों के सामने होकर भी बच कैसे गया या फिर गाड़ी के पंक्चर बनाने में उसे इतना समय कैसे लग गया। जरूर वह उनसे मिल था या फिर आतंकियों को पहले से ही मालूम था कि वो मुसलमान है! इस तर्क के सहारे कुछ लोग उसे ही दोषी साबित करने में जुटे हुए हैं।

कमोबेश साधारण जानकारी रखने वाले लोगों के पास मोटामोटी यही सूचनाएं हैं, लेकिन जब वह टेलीविजन खोलता है या अखबार के पन्ने उलटता है तो धीरे-धीरे सलीम के 'इंसान होने की थ्योरी' कमजोर पड़ने लगती है और वही आदमी 'हिन्दू-मुसलमान थ्योरी' पर भरोसा कर बैठता है।

आखिर तब उसका पेट कहा जाता हैं? सामान्यतः पेट वही रहता है लेकिन सूचनाओं की इस दुनिया में कुछ अस्मिता के प्रश्न को साजिशन हमारे दिमाग में ऐसे बैठा दिया जाता है जो अंततः हमारे अंदर की इंसानियत को कमजोर बना देती है।

हम सूचनाओं के युग में जी रहे हैं। रोटी का युग आएगा कि नहीं, नहीं मालूम! लेकिन सूचना के युग में हम सिर से पांव तक सैकड़ों सच्ची-झूठी खबरों से पटे पड़े हैं। और उसका नियंत्रण आपके हाथ में नहीं है। हमको क्या जानना चाहिए यह दूसरा ही निर्धारित कर रहा होता है। उस रिमोट की वजह से हमारी मिथ्या-अस्मिता हमारे पेट की लड़ाई से बड़ी दिखने लगती है।

हमारे भविष्य को इतना कमजोर बनाकर हमें बेचा जा रहा होता है कि भूखा आदमी भी वर्तमान से ज्यादा भविष्य की चिंता करने लगता है। वह वर्तमान की शांति से मिलने वाले दो जून की रोटी भूलकर इस जाल में उलझ जाता है। फिर वह जाति-धर्म की ओट खोजना शुरू कर देता है, जहां उसे आसानी से ऐसे मजबूत लोगों की शह मिलती है जो उसको उसके वर्तमान-भविष्य के बारे में आश्वस्त कर देते हैं।

अच्छा हुआ कि सलीम गाड़ी से उतरकर अपनी जान बचाने के लिए नहीं भागा, नहीं तो हमारा ही समाज उसे कहता कि आतंकवादी था, उसकी यही योजना ही थी! उस सीट पर बैठा कोई और भागता तो शायद हमारा अधिसंख्य समाज कुछ और ही कहता! शायद यह कह रहा होता कि कायर था भाग गया या फिर जान पर पड़ती है तो आदमी समझ नहीं पाता और ऐसे कदम उठा लेता है! लेकिन सलीम, सलीम था न!अग्निपरीक्षा तो देनी ही होगी! शुक्र है कि सरकार ने उसके साहस व सूझबूझ की बिना देरी किए पहचान की और पुरस्कार की घोषणा की।

सलीम को समाज ने इंसान से मुसलमान बना दिया और फिर उसके निष्ठा पर उठाए जाने वाले हर प्रश्न उसे कट्टर बना देंगे। तब जैसा कि उसने अपने इंटरव्यू में कहा कि 'बाबा की कृपा थी बचने में' नही बोलेगा। उसके भाषा-आचरण-व्यवहार सबमें परिवर्तन आएगा! हमें आखिर कैसा हिंदुस्तान चाहिए, इसका निर्णय करना होगा! आज का यही निर्णय कल का भारत है!

(अभिषेक प्रकाश सामाजिक मसलों पर लगातार लिखते हैं.)

Janjwar Team

Janjwar Team

    Next Story

    विविध