'मरने के 7 दिन बाद किसी तरह मिली लाश, फिर श्मशान घाट से पड़ा लौटना क्योंकि मुर्दा घर की मशीन थी खराब'
कोरोना महामारी के बीच भ्रष्टाचार और अनैतिकता की जैसी खबरें आ रही हैं उसे देखकर दिल—दिमाग कांप उठता है। ताजा मामला दिल्ली का है, जहां प्राइवेट अस्पताल की लापरवाही और एम्स में फैले भ्रष्टाचार के कारण एक भाई को लाश 10 हजार घूस देने पर मिली...
आईएएनएस/नई दिल्ली। कोरोना संक्रमण से हुई मौत के बाद भी शव और परिजनों को चैन नहीं है। यह देश के किसी दूर दराज की किताबी कहानी नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली की हकीकत है। सरकारी मशीनरी की ढुलमुल नीति का आलम यह है कि कोरोना संक्रमित का शव प्राप्त करने के लिए पांच दिन तक घरवाले इंतजार करते रहे। कई दिन बाद जब शव हासिल हुआ तो उसे शमशान के अंदर अंतिम संस्कार का अवसर नहीं मिला। लिहाजा अस्पताल के मुर्दाघर से कई दिन बाद मिले शव को लेकर रोते-बिलखते परिजन फिर शमशान से अस्पताल के मुर्दाघर में ही वापस रख आये।
यह तो सिर्फ एक बानगी भर है। देश की राजधानी के बाकी अस्तपतालों में कोरोना संक्रमण से मरने वाले बदकिस्मतों के शवों का क्या आलम होगा? हर कोई खुद ही अंदाजा लगा सकता है। घटनाक्रम के मुताबिक, दिल्ली के सनलाइट कालोनी में रहने वाले ललित (38) की 7 मई को सुबह करीब 10 बजे एक निजी अस्तपाल में मौत हो गयी। उनमें कोरोना संक्रमण संभावित था।
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7 मई को सुबह दस बजे के बाद पुलिस और दिल्ली सरकार की फौज करते-धरते 7 व 8 मई की रात करीब 2 बजे (8 मई 2020) शव को एम्स ट्रामा सेंटर की मोच्यूरी (पोस्टमॉर्टम हाउस) में रखवा सके। ललित के बड़े भाई मोहन लाल के मुताबिक, '7 मई को पूरे दिन पुलिस और प्राइवेट अस्पताल वाले पूरे दिन स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग सिस्टम (एसओपी) का पालन कराने के नाम पर ललित के शव को अपने यहां ही डाले रहे।'
इस बारे में पूछे जाने पर घटना वाले दिन यानि 7 मई को मौके पर निजी अस्पताल में पहुंचे एक पुलिस अधिकारी ने कहा, 'कोविड-19 मामले में मौत को लेकर जो गाइड लाइंस हैं, उनका पालन करना जरुरी है। मगर मौके पर यह सब काम उस निजी अस्पताल को करना था, जिसके यहां मरीज की मौत हुई। पुलिस का काम तो सिर्फ शव को अपनी निगरानी में पोस्टमॉर्टम हाउस में ले जाकर रखना भर था।'
ललित के 17 साल के बेटे और ललित के पारिवारिक सदस्य सुनील के मुताबिक, '7 मई को रात के वक्त हाथ पैर जोड़ने पर निजी अस्पताल ने शव को सील करके एम्स ट्रामा सेंटर के पोस्टमॉर्टम हाउस में भेजा। वहां पहुंचते और शव रखने के कागजात पूरे करते करते आधी रात यानि 7 से बदलकर 8 मई की तारीख हो गयी। जबकि सनलाइट कालोनी में जिस अस्पताल में ललित की मौत हुई वहां से ट्रामा सेंटर की दूरी महज 7-8 किलोमीटर की है। यानि 8 किलोमीटर की दूरी पर शव पहुंचाने में सरकारी मशीनरी को 14-15 घंटे लग गये। क्या सरकार ने कोविड-19 से मरने वालों के शव घंटों इधर से उधर घुमाने के लिए ही गाइडलाइंस बनाई हैं?'
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जब ललित का शव 7-8 मई की रात ही एम्स ट्रामा सेंटर मोच्यूरी में पहुंच गया तो फिर, शव पांच छह दिन तक वहां क्यों रखा रहा। परिवार वालों को ललित का शव छह दिन बाद परिवार के हवाले पोस्टमॉर्टम हाउस से क्यों किया गया? पूछने पर एम्स ट्रामा सेंटर फॉरेंसिक प्रमुख डॉ. संजीव लालवानी ने कहा, 'कोविड-19 की गाइड लाइंस पर हमें सब कुछ करना होता है। हमें कोरोना संक्रमित किसी भी मरीज का सैंपल लेकर रिपोर्ट मंगाने में ब-मुश्किल एक दिन या फिर उससे कुछ ऊपर नीचे का समय लगता है। यह सब मगर पुलिस इंक्वेस्ट पर डिपेंड होता है।'
संजीव लालवानी के मुताबिक, 'जहां तक ललित का शव 5-6 दिन बाद परिवार वालों को दिये जाने की बात है, तो इसमें हमारा कोई फॉल्ट नहीं है। हमें एसीपी की तरफ से शव को बिना पोस्टमॉर्टम किये ही परिवार वालों के हवाले कर देने संबंधी अधिकारिक पत्र ही 12 मई 2020 को मिला है। जबकि हमारे यहां शव 7-8 की रात कहिये या फिर 8 मई को पहुंचा था। ऐसे में हम बिना पुलिस कागजात के खुद शव को बिना पोस्टमॉर्टम के कैसे सौंप देते? देरी पुलिस की तरफ से हुई हो या फिर किसी और स्तर पर? यह मैं नहीं कह सकता हूं। हां, इतना जरुर है कि हमें जैसे ही एसीपी से लिखित आदेश मिला कि हम ललित के शव को बिना पोस्टमॉर्टम किये हुए ही सौंप दें, हमने शव तुरंत हैंडओवर कर दिया।'
एम्स ट्रॉमा सेंटर फॉरेंसिक साइंस विभाग के प्रमुख डॉ. संजीव लालवानी ने परिवार वालों के और भी तमाम आरोपों का खंडन किया। उन्होंने कहा, 'यह आरोप सरासर गलत है कि ललित के शव को निगमबोध घाट भिजवाने के लिए एंबूलेंस और कॉफिन (ताबूत) के लिए फॉरेंसिक साइंस डिपार्टमेंट में किसी ने 10 हजार रुपये लिये।'
उन्होंने आगे कहा कि हम गाइडलाइन के मुताबिक कोरोना संक्रमित शव को भिजवाने के लिए अपनी एंबूलेंस देते हैं। जहां तक ताबूत की बात है हम उसे इस्तेमाल ही नहीं करते। क्योंकि उससे संक्रमण और ज्यादा फैलने की आशंका रहती है। पोस्टमॉर्टम हाउस विशेष किस्म के डबल कवर में शव को बंद करके देता है।
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डॉ. सुधीर गुप्ता और डॉ. संजीव लालवानी ने आगे कहा, 'जांच में हमारे किसी भी कर्मचारी की भूमिका संदिग्ध नहीं मिली है।' ललित के परिवार वालों की परेशानी यहीं दूर नहीं हुई। छह दिन बाद जब वे शव लेकर निगमबोध घाट स्थित सीएनजी शमशान घाट पहुंचे तो काफी देर हो चुकी थी। उन्हें वहां बताया गया कि अंतिम संस्कार कराने वाली 6 में से 3 मशीनें खराब पड़ी हैं। तीन जो चालू हैं उन पर एक दिन में 14 शवदाह ही संभव हैं। लिहाजा ललित को शव को एक बार फिर से शमशान से एम्स ट्रॉमा सेंटर की मोच्यर्ूी में ले जाकर सुरक्षित रखवाना पड़ा। अगले दिन जाकर यानि करीब 7वें दिन कोविड-19 के संक्रमण से मरने वाले बदकिस्मत ललित के शव का अंतिम संस्कार किया जा सका।
पीड़ित परिवार का आरोप है कि, जब ललित की मौत हुई तब लाख चीखने चिल्लाने के बाद भी किसी ने उन्हें क्वारेंटीन नहीं किया, न ही जांच के लिए नमूने लिये गये। अब जब दिल्ली के सरकारी तंत्र को होश आया तो एक साथ उठाकर परिवार के 5-6 लोगों को एक स्कूल में ले जाकर क्वारेंटीन कर दिया गया है। साथ ही मकान भी सील कर दिया गया है।
उल्लेखनीय है कि कोरोना काल में दिल्ली के तकरीबन सभी पोस्टमॉर्टम हाउस में शवों के पहुंचने की संख्या नगण्य है। जो पहुंच भी रहे हैं उनमें भी कोविड-19 संक्रमित शव अधिकांश हैं। हांलांकि दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल के फॉरेंसिक साइंस डिपार्टमेंट के एक एक्सपर्ट के मुताबिक, "करीब दो महीने के कोरोना काल में करीब 37-38 शव का पोस्टमॉर्टम किया गया। सबके सैंपल भी जांच के लिए भेजे गये। इसके बाद भी अभी तक एक के सिवाये बाकी किसी भी शव की जांच रिपोर्ट में कोरोना संक्रमण लैब ने लिखकर नहीं दिया।"