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संस्कृति

तुम चुपचाप खड़े हो

Janjwar Team
6 Oct 2017 11:49 PM GMT
तुम चुपचाप खड़े हो
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'सप्ताह की कविता' में आज पढ़िए हिंदी के ख्यात लेखक त्रिलोचन की कविताएं

'फूल मेरे जीवन में आ रहे हैं /सौरभ से दसों दिशाएँ भरी हुई हैं /मेरा जी विह्नल है/ मैं किससे क्या कहूँ...' यह अंतरंग विह्वलता और इसके पश्चात् इससे उपजे मौन और उल्लास के द्वंद्व से उद्वेलित जो ध्वनि की लहरों का ज्वार-भाटा है, वही हिंदी कविता में त्रिलोचन की पहचान है? जटिल और सात रंगों के गतिमय मेल से उपजे सादे रंग की सुरभिमय लय-ताल। अपनी सहज और मंद उपस्थिति से शनैः-शनैः हमारी संवेदना की जटिल बुनावट को रससिक्त करती हुई।

यह यूँ ही नहीं है कि तुलसीदास से भाषा सीखने वाले इस महाकवि से इतर आधुनिक बोध की जमीन के कवि केदारनाथ सिंह त्रिलोचन से काफी सीखते हैं और बादलों को पुकारते धान के बच्चों का जी उन्मन हो उठता है। ये धानों के बच्चे नहीं हैं। आधुनिक टेक्नालाजी में पिछड़े आज भी वर्षा ऋतु पर अपनी आशा टिकाए रखने वाले भारतीय किसानों के बच्चे हैं। उसी तरह यह विह्वलता मात्रा आत्मोद्वेलन नहीं है, इसमें चार नहीं दसों दिशाओं का सौरभ भरा है। शाखाएं, टहनियाँ हिलाओ, झकझोरो, जिन्हें गिरना हो गिर जाएं जाएं-जाएं...

जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिए एक निर्मम आलोड़न की जरूरत होती है। आलोड़न जो अपने सूखे, झड़ने को आतुर अंगों को, कचरे को किनारे पर ला पटकता है। वह निर्मम कोमल उद्घाटन जो बीज का आवरण फाड़ कर सर से मिट्टी को हटाता खुले आकाश में अपना अंकुर फेंकता है। उसकी गहरी पहचान है त्रिलोचन को और अतीत के प्रति अतिरिक्त मोह नहीं है। श्रम और संवेदना की सूंड से इकट्ठा किया मधुकोष वे मुक्त मन से लुटाते हैं। दिनकर के शब्दों में -
ऋतु के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है।

यह निर्ममता बड़ी सजग है। वे कहते हैं कि जिसे मिट्टी में मिलना हो मिल जाएँ मिट्टी में, पर अतीत और स्मृतियों का जो सौरभ है उसे भी मिट्टी में ना मिला दिया जाए और वे प्रार्थना करते हैं कि उस विरासत को हम संभाल कर आगे ले जाएं, क्योंकि जीवन की शुष्क राहों को यही सिक्त करेगा।
सुरभि हमारी यह हमें बड़ी प्यारी है
उसको संभाल कर जहाँ जाना ले जाना।

जब से कविता की दुनिया में विचारों का प्रवेश हुआ है, जीवन को देखने का नजरिया बदला है। अब अपेक्षा की जाती है कि कविता में भाव और विचारों का संतुलन हो। यह नहीं कि भावनाओं की बाढ़ आती चली जाये और उसमें डूबते व्यक्ति की अपने विवेक पर से पकड़ छूट जाए। अब पाठक स्वतंत्र होता है कि भाव की नदी में डूबकर वह मोती ढूंढ़े या तट पर रहकर ही जलपान करता रहे। त्रिलोचन के यहाँ भावों में बह जाने का खतरा नहीं है। एक शब्द ‘नीरव’ त्रिलोचन के यहाँ बराबर आता है। अपनी सहजता के साथ। उनकी कविताएँ भी कोई शोर-गुल नहीं करतीं। वे गया की उस नदी (फल्गु) की तरह हैं, जिसका जल अगर पीना हो, तो थोड़ा श्रम करना पड़ेगा। तल की रेत हाथों से हटानी होगी, तभी स्वच्छ प्रदूषण मुक्त अंतरधारा का पान कर सकेंगे आप। किसी भी स्थिति पर चिढ़कर वे आत्म हिंसक चोट नहीं करते, खुद को संगठित करते वह अपनी सहयोगी अंतरधाराओं को क्रम से जोड़ते जाते हैं। आइए पढ़ते हैं त्रिलोचन की कविताएं - कुमार मुकुल

लहरों में साथ रहे कोई
बाँह गहे कोई

अपरिचय के
सागर में
दृष्टि को पकड़ कर
कुछ बात कहे कोई।

लहरें ये
लहरें वे
इनमें ठहराव कहाँ
पल
दो पल
लहरों के साथ रहे कोई।

दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
दीवारें दीवारें दीवारें दीवारें
चारों ओर खड़ी हैं। तुम चुपचाप खड़े हो
हाथ धरे छाती पर, मानो वहीं गड़े हो।
मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्‍के मारें
और ढहा दें। उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे वैसे आघातों से। स्‍तब्‍ध पड़े हो
किस दुविधा में। हिचक छोड़ दो। जरा कड़े हो।
आओ, अलगाने वाले अवरोध निवारें।
बाहर सारा विश्‍व खुला है, वह अगवानी
करने को तैयार खड़ा है पर यह कारा
तुमको रोक रही है। क्‍या तुम रुक जाओगे।
नहीं करोगे ऊंची क्‍या गरदन अभिमानी।
बांधोगे गंगोत्री में गंगा की धारा।
क्‍या इन दीवारों के आगे झुक जाओगे।

तुम्‍हें सौंपता हूं
फूल मेरे जीवन में आ रहे हैं

सौरभ से दसों दिशाएँ
भरी हुई हैं
मेरी जी विह्वल है
मैं किससे क्या कहूँ

आओ
अच्छे आए समीर
जरा ठहरो
फूल जो पसंद हों, उतार लो
शाखाएँ, टहनियाँ
हिलाओ, झकझोरो
जिन्हें गिरना हो गिर जाएँ
जाएँ जाएँ

पत्र-पुष्प जितने भी चाहो
अभी ले जाओ
जिसे चाहो, उसे दो

लो
जो भी चाहे लो

एक अनुरोध मेरा मान लो
सुरभि हमारी यह
हमें बड़ी प्यारी है
इसको सँभाल कर जहाँ जाना
ले जाना

इसे
तुम्हें सौंपता हूँ।

Janjwar Team

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