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नीरज ने एक साक्षात्कार में कहा था, लोग तालियां ज़रूर बजाते हैं लेकिन कवि का दर्द नहीं समझते
लोकप्रिय कवि—गीतकार गोपालदास नीरज अब हमारे बीच नहीं रहे। कल शाम तकरीबन साढ़े सात बजे 93 वर्ष की उम्र में दिल्ली के एम्स अस्पताल में उनका निधन हो गया। ऐसे में उनका यह एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार, जिसमें उन्होंने कई ऐसी बातें कही हैं, जो कम ही लोग जानते हैं...
गोपालदास नीरज से पत्रकार आलोक पुतुल की बातचीत
उम्र के जिस पड़ाव पर आप हैं, वहाँ कई बार अपने अतीत का सब कुछ व्यर्थ जान पड़ता है. आप अपने अतीत को किस तरह देखते हैं?
सब कुछ व्यर्थ होने के बीच ही मैंने अपनी आंखें खोली हैं. मैंने बचपन से ही पीड़ा झेली है. छह साल की उम्र में पिता जी गुज़र गए. पढ़ने के लिए मुझे बुआ के घर भेजा गया. पिता, माँ, बहन और भाइयों के प्यार से वंचित मैं दुख और अभाव में ही पला बढ़ा. जीवन का एक बड़ा हिस्सा दुख और अभाव से ही लड़ते हुए गुज़र गया. कई-कई बार एक-एक जून के खाने के लिए सोचना पड़ता था. फिर मैंने दुख से ही दोस्ती कर ली.
आप प्रेम, करुणा, पीड़ा के साथ-साथ विद्रोह के भी कवि माने जाते हैं. इनकी व्याख्या आप किस तरह करेंगे?
ये सब तो जीवन के अनुभव हैं और इन सबने मुझे मांजा है. बचपन से ही जो पीड़ा और अकेलापन मैंने भोगा, वही मेरी रचनाओं में आया. पीड़ा और अकेलेपन ने कभी तो मुझमें करुणा उपजाई और कभी गहरे तक विद्रोह से भी भर दिया.
जीवनभर प्रेम की तलाश में भटकता रहा. प्रेम के दौर में ही मैंने अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ लिखीं. फिर प्रेम में विफलता मिली तो आध्यात्म की ओर गया. स्वामी मुक्तानंद से लेकर आचार्य रजनीश तक के संपर्क में रहा.
इसका मतलब कि आपकी श्रेष्ठ रचनात्मकता का स्रोत प्रेम रहा है?
ऐसा नहीं है. कविता की जन्मदात्री तो पीड़ा होती है. पहली बार नौवीं कक्षा में था तब मैंने कविता लिखी थी- “मुझको जीवन आधार नहीं मिलता है, भाषाओं का संसार नहीं मिलता है.” हाँ, प्रेम के दौरान मैंने दूसरी तरह की कविताएँ लिखीं. फ़िल्मों के लिए भी मैंने कुछ इसी तरह के गीत लिखे.
साहित्य समाज से सरोकार रखने वाले अधिकतर कवियों का फ़िल्मी दुनिया से कोई ज़्यादा मधुर रिश्ता नहीं रहा है. ऐसा क्यों?
फ़िल्मों की दुनिया, एक दूसरी दुनिया है. हमारे ज़माने में फ़िल्मी गीतकार नहीं थे. लोग साहित्य से फ़िल्मों में पहुंचते थे.
नहीं रहे इंसान को इंसान बनाने वाले कवि गोपालदास नीरज
जिस समय मैंने फ़िल्मों के लिए गीत लिखे, वह दौर ही दूसरा था. लोग एक दूसरे का सम्मान करना जानते थे.
'मेरा नाम जोकर' के लिए जब मैंने 'ऐ भाई जरा देख के चलो' लिखा तो संगीतकार शंकर-जयकिशन ने कहा कि यह भी कोई गीत है, इसकी तो धुन ही नहीं बन सकती. मैंने शंकर-जयकिशन को कहा कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है. फिर मैंने इस गीत की धुन बनाई तो राजकपूर के साथ-साथ शंकर-जयकिशन भी ख़ुश हो गए.
अब संभव नहीं कि गीतकार के कहने पर संगीतकार या निर्माता-निर्देशक कोई बात मान ले.
आपने एक तरफ़ मंचों पर लोकप्रियता बटोरी और दूसरी तरफ़ लाखों पाठक भी बनाए. अब ऐसा क्या हुआ कि लिखने वाला कवि और मंच वाला कवि अलग-अलग हो गया?
1960 के बाद से साहित्य के मंच को चुटकलेबाज़ों और हास्यरस वालों ने बर्बाद कर के रख दिया.कवि मंच अब कपि (बंदर) मंच बन गया है. ऐसे में यह फ़र्क तो आना ही था. हिंदी का कितना बड़ा भी कवि हो, उसकी बात समझने वाले श्रोता अब नहीं रहे. लोग तालियां ज़रूर बजाते हैं लेकिन कवि का दर्द नहीं समझते. (बीबीसी हिंदी में पहले प्रकाशित)