'सप्ताह की कविता' में आज हिंदी के प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं
'जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए; /पीछे छोडे़ हुए सब स्मृतिचिह्नों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए,/ किसी भी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए...' (निर्मल वर्मा, 12-6-73, शिमला) 'न लौट सकने वाली दूरी से अपने को देखना चाहिए...'- विनोद कुमार शुक्ल
विनोद कुमार शुक्ल की अधिकांश कविताएँ छोटी-छोटी बातों से आरंभ होकर युगीन चिंताओें को अपने घेरे में ले लेती हैं जिसे सच में नहीं बचा पाता, उसे स्मृति में बचाता है कवि। अपनी सारी कविताओं में शुक्ल जीवन के उन यथार्थों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो स्मृतियों में तब्दील होती जा रही हैं; स्मृतियाँ चीजों को यथार्थ में न बचा पाने की मजबूरी से पैदा होती हैं। यह लड़ाई का एक अहिंसक ढंग है कवि का। इस तरह कवि अपनी सच्ची आकांक्षाओं को स्मृति में तब्दील कर एक लंबी सांस्कृतिक लड़ाई की तैयारी करता है और इस तरह अपनी मजबूरियों को वह भविष्य की ताकत में बदल डालता है, यही रचना कर्म भी है।
इसकी निर्मल वर्मा के स्मृति विरोध से अगर तुलना करें, तो निर्मल वस्तुतः संघर्ष से बचाव की एक पस्त मुद्रा में दिखते हैं। यह उनकी अराजक सुविधावादी जीवनशैली से भी हमें परिचित कराती है। हमारे यहाँ एक व्यंग्य चलता है - मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी, दरअसल यह व्यंग्य नहीं सच्चाई है, यह वह मजबूरी है, जो स्मृति बन जाती है, एक कैद की स्मृति, जिसे तोड़ने की अहिंसक कोशिश हम बार-बार करते हैं और यह एक कठिन रचना-कर्म भी है। यूँ शुक्ल की आगे की पीढ़ी के कवि आलोक धन्वा अपनी कविता ‘सफेद रात’ में इस बात को घोषित भी करते हैं कि भगत सिंह का सबसे मुश्किल सरोकार अहिंसा ही थी। भगत सिंह को बचाने की लड़ाई गाँधी ने भी लड़ी थी।
शुक्ल की अधिकांश कविताओं की चिंता के मूल में घर और दुनिया के बीच की दूरी को परस्पर की सहभागिता से पाटने की है। दुनिया एक खयाल है। दुनिया शब्द एक झटके से ठीक आपके पड़ोस की चीजों को सात समुंदर पार बिठा देता है और शुक्ल इसी सात समंदर पार की दुनिया के वहम को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। वे घर की सीमाओं का खयाल भी दुनिया की सीमा तक खींचते हैं और ऐसा करते हुए दुनिया का भरम मिटता है, माया मिटती है। घर का घेरा पूरी दुनिया को अपने अंदर ले लेता है। इसका सहज उपाय वे बताते हैं कि सात समंदर पार भी अगर घर को याद करोगे, तो दुनिया का कोई भी घर तुम्हें अपना लगेगा कोई बच्चा पराया नहीं लगेगा। असफलताएँ पथ के अवरोधों और सफलता की अनुपलब्धता की बाबत कम बतलाती हैं।
ज्यादातर वे अपके निकम्मेपन और थकान की पोल खोलती हैं। ‘उसने चलना सीख लिया है’ कविता में एक बच्चे के चलने का विवरण देता कवि बतलाता है कि सफलता ना मिलने पर रूठ कर बैठ जाने से, कि नहीं मिलती वह, काम नहीं चलने वाला। यह एक बचकाना तरीका है बचाव का। आइए पढ़ते हैं विनोद कुमार शुक्ल की कुछ कविताएं -कुमार मुकुल
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा
अपने संन्यास में
मैं और भी घरेलू रहूंगा
घर में घरेलू
और पड़ोस में भी।
एक अनजान बस्ती में
एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा
वह अपनी माँ की गोद में था
उसकी माँ की आँखों में
ख़ुशी की चमक थी
कि उसने मुझे बाबा कहा
एक नामालूम सगा।
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।--
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।
दूर से अपना घर देखना चाहिए
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए।
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा।
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ।