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संस्कृति

जीते थे पिता मूल्यों में, अभिव्यक्ति में

Janjwar Team
22 Dec 2017 3:55 PM GMT
जीते थे पिता मूल्यों में, अभिव्यक्ति में
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'सप्ताह की कविता' में आज ख्यात कवि राजकमल चौधरी की कविताएं

राजकमल ने जीवन का वह रास्ता चुना था, जिसमें हर कदम पर विसंगतियों के नाग फन काढ़े खड़े थे, और वह भी जीवन था, और है। उसे हम भूल जाते हैं अपनी प्रगतिशीलता की रौ में। उन नागों ने उन्हें डंसा, पर वे मरे नहीं, हालाँकि मृत्यु का भय उन्हें सताता रहा।

हमारे बहुत से कवियों को कभी न कभी मृत्यु का भय सताता है। वे सब मृत्यु से जीत तो जाते हैं, पर उससे भयमुक्त नहीं हो पाते। महाप्राण निराला ने लिखा था, आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला, पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मंद होती जा रही, हट रहा मेला। ओज व तेज के प्रतीक दिनकर ने भी अंत में ‘हारे को हरिनाम’ लिखा ही। किसी भी भय को कम करने का तरीका यह है कि उसके निकट जाएँ हम, छूकर देखें उसे।

श्रीकांत वर्मा ने ऐसा प्रयास किया था, हम खोद ही तो रहे हैं जब से हमने सीखा है फावड़ा चलाना, जब से यह जाना कि शव है हर बार पाया मणिकर्णिका। पर वे भी इस भय से मुक्त नहीं हो सके। अंत में लिखा, ‘इस तरह मत मरो/ मौत से डरो।’

संभवतः राजकमल को अपने पूर्ववर्तियों के अनुभव ने ही उस मृत्यु के भय को कम करने हेतु, उसे निकट से जानने को उन अंधी सुरंगों में जाने को विवश किया हो। जहाँ जाने की हिम्मत अन्य नहीं कर सके, फिर भी जिन्हें मृत्यु ने घेरा। राजकमल ‘मृत्यु की जीवित दुनिया में’ गए। उसका जहर झेला। उसके नशे में विभ्रमित हुए। मृत्यु के कगार तक जा-जाकर लौटे और आज हम देख रहे हैं कि उनका भय निराधार था और वह हमारे बीच जिंदा हैं।

राजकमल की तल्ख सच्चाइयों से बचने की कोशिश में लोग उसे ढकने को काले लबादे फेंकते रहते हैं। पर दुख होता है जब उनके शुभचिंतक उन लबादों को नोंचने के बजाय उस पर एक और सुनहरा लबादा फेंककर एक नई सच्चाई थोपने का प्रयास करते हैं। ऐसी लीपापोती राजकमल को खोलने की बजाय ढक लेती है। राजकमल पर लिखी गई धूमिल की पूरी कविता पढ़कर सही अर्थों में राजकमल से परिचित हुआ जा सकता है - वह सौ प्रतिशत सोना था ऐसा मैं नहीं कहूँगा/ मगर यह तय है कि उसकी शख्सियत घास थी/ वह जलते हुए मकान के नीचे भी हरा था/ एक मतलबी आदमी जो अपनी जरूरतों में निहायत खरा था।

चुनौतियों को स्वीकार करने की ताकत कितनों में है? आदमी की गुलामी के खिलाफ अड़तीस साल की अपनी छोटी-सी जिंदगी में उपन्यास, कहानी और कविता की दो दर्जन किताबें लिखने वाले राजकमल चौधरी का हिंदी में मूल्यांकन किया जाना अभी बाकी है। मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’, आलोक धन्वा की ‘जनता का आदमी’ की तरह राजकमल की कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ बदलते समय संदर्भों में हमेशा प्रासंगिक रही है।

जिजीविषा और मुमुक्षा (मरने की इच्छा) के दो छोरों के बीच यह कविता व्यक्ति के उसके अहं से टकरावों और मुक्ति की गाथा है, जिसके वैश्विक संदर्भ उसे मनुष्यता के लिए संघर्षरत आमजन की कविता में बदल देते हैं - सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी/ अपने शरीर के इर्दगिर्द दीवारें ऊपर उठाता हुआ/ मिट्टी के भिक्षापात्र आगे और आगे बढ़ाता हुआ/ गेहूँ और हथियारबंद हवाई जहाजों के लिए...

जबकि नंगा-भूखा बीमार आदमी सुरक्षित होता है। अमेरिकी सुरक्षा के तर्कों वाली हमलावर नीतियों के संदर्भ में राजकमल आज भी वैसे ही प्रासंगिक हैं जैसे कि वे 1966 में थे। आइए पढ़ते हैं राजकमल चौधरी की कविताएं -कुमार मुकुल

अमृता शेरगिल के लिए
वक़्त के ताबूत में सिमट नहीं पाते हैं
गर्म उसके सफ़ेद हाथ।
लाल फूलों से
ढका पड़ा रहता है सिकुड़ा हुआ
उसका पूरा जिस्म एक अंधेरे कोने में
ख़ासकर बुझी हुई आँखों के पीले
तालाब।
ख़ासकर टूटे हुए स्तनों के
नीले स्तूप।
लेकिन सफ़ेद उसके
गर्म हाथ ताबूत से बाहर थरथराते रहते हैं।

पितृ-ऋण
पिता थे–एक सार्थक शब्द
और, हमने शब्दों की सार्थकता को
अविश्वसनीय बताया।
जीते थे पिता मूल्यों में
अभिव्यक्ति में, नीति में,
अर्थवत्ता में।
हम जीवन धारण करते हैं केवल
व्यक्तित्व की निरर्थकता में।
पितृ-ऋण से मुक्ति का दूसरा कोई उपाय हमारे पास नहीं है
कभी होगा भी नहीं
होगा भी नहीं।

अर्थतंत्र का चक्रव्यूह
सभी पुरुष शिखंडी
सारी स्त्रियाँ रास की राधा
सबके मन में धनुष ताने बैठा
रक्त प्यासा व्याधा
कहाँ जाए, क्या करें...
रावण बन सीता का हरण करें
चक्रव्यूह में किसी का भरोसा नहीं
रे अभिमन्यु...मन
यह देश छोड़ चलो अब वन।

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