Begin typing your search above and press return to search.
आर्थिक

ज्यां द्रेज ने मोदी के हर गलत फैसले से पहले देश को चेताया, लेकिन उनकी न समाज सुनता है न सरकार

Nirmal kant
17 May 2020 12:54 PM GMT
ज्यां द्रेज ने मोदी के हर गलत फैसले से पहले देश को चेताया, लेकिन उनकी न समाज सुनता है न सरकार
x

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जिस मनरेगा का मज़ाक उड़ाया उसकी नींव रखने में ज्यां द्रेज और उनके साथियों का बड़ा रोल है। संसद में मनरेगा को नाकामियों के गढ्ढे बताने वाले मोदी को आज उसी मनरेगा को मज़बूत करना पड़ रहा है...

वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी की टिप्पणी

जनज्वार। खुद को बड़े गर्व से सोशली लेफ्ट कहने वाले भी आर्थिक नीतियों की बात हो तो फैशनेबली राइट हो जाते हैं। संसद की रिपोर्टिंग के दिनों में पीआईबी कार्डधारक सारी मुफ्तखोरी – रेल यात्रा में छूट से लेकर सीजीएचएस हेल्थ स्कीम तक - का फायदा उठाने वाले पत्रकारों को भी मैंने 'फ्री-बीज़' के खिलाफ जमकर बोलते सुना है।

किसी तर्क को सुनने समझने की कोशिश न करने वाले कई दोस्त इस हद तक कहते जाते कि किसानों को खेती करने की ज़रूरत ही क्या है!!! उन्हें कारखानों काम करना चाहिये। ये वह दौर था जब वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम हुआ करते थे और वह कहते हिन्दुस्तान की अधिक से अधिक आबादी को शहरों में रहना चाहिये। चाहे हमारे शहरों में रहने की सुविधा तो दूर प्रवासी मज़दूरों के शौच की व्यवस्था तक नहीं थी।

लेकिन उस दौर में बाज़ार उफान पर था। लोगों ने हफ्तों में करोड़ों बनाये। ऑफिस टाइम में काम छोड़कर भी लोग पूरे देश में प्रॉपर्टी खरीदने-बेचने से लेकर शेयर मार्केट पर नज़र रखे थे। वह भारत का स्वर्णिम दौर था लेकिन तभी अमेरिका में सब प्राइम संकट आ गया। लीमन ब्रदर्स समेत बड़े बड़े बैंक डूब गये। पूंजीवाद घुटनों पर आ गया। लेकिन भारत की कहानी पटरी से नहीं उतरी क्योंकि यहां पूंजीवाद पर साम्यवाद की नकेल थी। भारत की अर्थव्यवस्था का एक्सपोज़र तो था लेकिन सेफगार्ड्स नहीं हटाये गये थे।

संबंधित खबर : प्रवासी मजदूर जहां हैं, वहीं रजिस्ट्रेशन करवाकर ले सकते हैं काम- निर्मला सीतारमण

स वक्त जिन दो बड़े 'आर्थिक सुधारों' को होने से रोका गया, वह था बीमा क्षेत्र में विदेश निवेश और भारत के बैंकों का निजीकरण। वैश्विक मंच पर मची उथल-पुथल के बावजूद उसी बाज़ारू मध्य वर्ग की पूंजी सुरक्षित रही जो बाज़ारवाद का घोर समर्थक था। लेकिन बात इससे भी कही बड़ी थी। साल 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार बनने के साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट बना, जिसे नरेगा या मनरेगा के नाम से जाना गया।

सकी बाज़ारू ताकतों ने खूब आलोचना की क्योंकि यह स्कीम गरीब के पास पैसा भेजने की बात करती थी। ऐसा नहीं होता है कि हर स्कीम में सब कुछ ठीक-ठाक होता है और सुधार की गुंजाइश नहीं होती लेकिन यह स्कीम बाज़ारू मध्यवर्ग को शुरू से ही फूटी आंख नहीं सुहाई लेकिन इससे गरीब लोगों तक राहत ज़रूर पहुंची। 2004 में 140 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2009 के चुनाव में 200 पार पहुंच गई।

सी दौर में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ से मैंने झारखंड के गांवों में मुलाकात की जो अब भी खाद्य सुरक्षा, पोषण और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के लिये लड़ रहे हैं। द्रेज़ किसी आलीशान घर में नहीं रहते, किसी चमकदार चेम्बर में नहीं बैठते, हवाई जहाज़ या एसी ट्रेन से नहीं चलते और कोट-पैंट नहीं पहनते। उनकी जीवनशैली ही उनका अर्थशास्त्र है। वह सरकार की हर जनोन्मुखी योजना को ज़मीन पर लागू कराने के लिये एक चौकीदार की तरह पैदल, साइकिल या मोटरसाइकिल पर गांव-गांव धक्के खाते हैं।

द्रेज ने झारखंड के लातेहार के एक गांव में एक स्कूल में अंडा कार्यक्रम कराया। जब सरकार बच्चों को मध्यान्ह भोजन में अंडा नहीं दे रही थी तो भोजन में अंडा शामिल कराने के गांव वालों ने चंदा किया और बच्चों को दोपहर के भोजन में अंडा दिया। द्रेज ने सरकारी कर्मचारियों से कहा कि जब गांव के गरीब लोग पैसा जमा करके बच्चों को अंडा खिला सकते हैं तो सरकार क्यों नहीं।

ह कागज़ी इकोनॉमिक्स नहीं थी ज़मीनी प्रयास था। इसी तरह गरीब को राशन और मातृत्व वन्दना जैसी योजना समेत तमाम योजनाओं के लिये लड़ते मैंने उन्हें देखा। 2018 में एनडीटीवी की नौकरी छोड़ने के पीछे द्रेज जैसे लोग मेरी प्रेरणा रहे हैं। मैं उनके साथ झारखंड के कई गांवों में घूमा हूं।

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जिस मनरेगा का मज़ाक उड़ाया उसकी नींव रखने में ज्यां द्रेज और उनके साथियों का बड़ा रोल है। संसद में मनरेगा को नाकामियों के गढ्ढे बताने वाले मोदी को आज उसी मनरेगा को मज़बूत करना पड़ रहा है। यह पूंजीवाद के खोखलेपन को दर्शाने के साथ जनवादी नीतियों की ताकत को दिखाता है।

संबंधित खबर : मूडीज के विश्लेषकों ने कहा- चालू वित्त वर्ष 2020-21 में 0% रहेगी भारत की आर्थिक विकास दर

भारत अमीर देश होने का ढकोसला तो कर सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी असली ताकत गांवों में बसती है। यह बात हमें द्रेज जैसे अर्थशास्त्री ही समझा सकते हैं जो एक कुर्ते और जीन्स में कई दिन गांवों में गरीबों, आदिवासियों के साथ बिताते हैं।

द्रेज की दो बातें और – पहली उन्होंने नोटबन्दी की नाकामी को सबसे पहले पहचाना और कहा था कि यह भारत जैसे देश में अर्थव्यवस्था की तेज़ रफ्तार भागती गाड़ी के टायर पर गोली मारने जैसा है। वही हुआ। हम नोटबन्दी के झटकों से नहीं उबर पाये।

फिर उन्होंने पूरे देश में लागू लॉकडाउन पर हमें चेताया और कहा था कि यह कितना बड़ा संकट खड़ा करेगा। वही संकट हमारे सामने है। लेकिन गरीब के लिये जीने-मरने और आर्थिक सेहत की नब्ज़ जानने वाले द्रेज जैसे लोगों को हमारे समाज में झोला वाला और नक्सली कहा जाता है।

Next Story

विविध