गैस लीक कांड में दर्जनभर लोगों की जान लेने वाली LG पोलीमर्स चल रही थी बिना पर्यावरण स्वीकृति के
हमारी सरकार प्रदूषण और दुर्घटनाओं को जिस तरह बढावा देती हैं, ऐसे में दुनियाभर से भगाए जा रहे प्रदूषणकारी उद्योग भला क्यों नहीं आयेंगे, हमारी सरकारें तो ऐसे उद्योगों का स्वागत करती हैं और सरकारी समर्थक इसे सरकार की जीत मानते हैं, आखिर मरती तो जनता है जिसका कोई मोल नहीं है...
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
जनज्वार। विशाखापट्नम के जिस उद्योग, एलजी पोलीमर्स से गैस का रिसाव हुआ था जिससे 12 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई और सैकड़ों लोग अभी तक अस्पतालों में भर्ती हैं, वह बिना किसी पर्यावरण स्वीकृति के ही चल रही थी और यह तथ्य राज्य सरकार और केंद्र सरकार के सम्बंधित विभागों को पता था।
वैसे इस तथ्य से कम से कम प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सरकारी विभागों को नजदीक से जानने वाले लोगों को कटाई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि पूरे देश के बड़े उद्योग और परियोजनाएं ऐसे ही काम करते हैं।
इस उद्योग ने अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ाया और इसके बाद इसे पर्यावरण स्वीकृति लेनी थी, पर यह ऐसे ही चलता रहा। अलबत्ता आंध्र प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसे सहमती देता रहा, पर कभी जानने का प्रयास भी नहीं किया कि इसने पर्यावरण स्वीकृति लिया है भी या नहीं। कानूनी तौर पर बिना पर्यावरण स्वीकृति के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उद्योग चलाने की सहमति नहीं दे सकता, पर ऐसा होता रहा।
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फिर सर्वोच्च न्यायालय के किसी फैसले के बाद और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के बाद दिसम्बर 2017 में इस उद्योग ने केन्द्रीय सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय में पर्यावरण स्वीकृति के लिए आवेदन किया। आश्चर्य यह है कि केन्द्रीय सरकार ने इस आवेदन को अप्रैल 2018 में आंध्र प्रदेश की पर्यावरण स्वीकृति की संस्था, राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अथॉरिटी को भेजा, पर उद्योग को निर्देश नहीं दिया कि पर्यावरण स्वीकृति तक अपने उत्पादन को स्थगित रखे। पर्यावरण मंत्रालय का ही निर्देश यह कहता है कि जब तक पर्यावरण स्वीकृति स्वीकृत न हो जाए तब तक आप उद्योग चला नहीं सकते। पर उद्योग चलता रहा। इसके बाद भी पर्यावरण स्वीकृति नहीं मिली।
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सितम्बर 2018 में एलजी पोलीमर्स ने संशोधित आवेदन राज्य के अथॉरिटी को भेजा, उसमें भी बताया कि उद्योग चल रहा है, फिर भी अथॉरिटी ने भी इसे बंद करने का कोई आदेश नहीं जारी किया। 10 मई 2019 को कंपनी की तरफ से डायरेक्टर ऑपरेशंस, पीपी चन्द्र मोहन राव के हस्ताक्षर से एक एफिडेविट (पत्र संख्या: S & E/EC/2019-01) राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अथॉरिटी में जमा किया गया। इस एफिडेविट ने कंपनी के इतिहास और इसके उत्पादन क्षमता का विस्तार से वर्णन है, और साथ ही यह जानकारी भी है कि उद्योग में उत्पादन वर्ष 2001 से जारी है, पर पर्यावरण स्वीकृति नहीं है।
इस उद्योग से गैस लीक करने के बाद से स्थानीय निवासी इस उद्योग को रिहाइशी इलाके से हटाने की मांग कर रहे हैं, और पुलिस की लाठियां भी खा रहे हैं। इस बीच राज्य के भूतपूर्व सरकारी कर्मचारी ईएएस सरना ने उद्योग के विरुद्ध राष्ट्रीय हरित न्यायालय में एक याचिका दाखिल किया है। इसकी एक सुनवाई 8 मई को हो चुकी है, पर इसका फैसला या निर्देश किसी को पता नहीं।
आजकल सोशल मीडिया पर सरकार के पक्ष में एक अपुष्ट खबर लोग खूब प्रचारित कर रहे हैं, इसके अनुसार अमेरिका अपनी लगभग एक हजार औद्योगिक इकाइयां भारत में स्थानांतरित करने पर विचार कर रहा है। इसे इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो यह सरकार की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
इससे पहले उत्तर प्रदेश के नोएडा में जब सैमसंग नामक चर्चित कंपनी ने स्मार्टफोन की इकाई को स्थापित किया था तब प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि अब बहुत सारी अंतरराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में आने वाली है, और इससे रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध होंगे। देश में रोजगार की क्या स्थिति है, यह सरकार और उनके भक्तों को छोड़कर सबको पता है।
सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रही यह तस्वीर भी बतायी जा रही है विशाखापत्तनम की
दरअसल, भारत में कम्पनियां इसलिए नहीं आतीं कि यहाँ बेहतर माहौल है, बल्कि इसलिए आतीं हैं कि दुनिया के किसी भी बड़े देश में प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों को अपनी मर्जी से प्रदूषण फैलाने की सुविधा नहीं मिलती। हमारे देश में यह सुविधा भरपूर है और यदि कुछ हो भी जाता है, लोग मर भी जाते हैं तो सरकारें लाशों पर मुवावजा फेंक देती है और हत्यारी कंपनियों पर कोई आंच नहीं आने देती।
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ऐसी सुविधा दुनिया में कहीं नहीं है। पहले चीन में कंपनियों की खूब आवभगत होती थी, पर अब बढ़ते प्रदूषण ने वहां की कंपनियों को भी दूसरे देश में स्थापित करने पर मजबूर कर दिया है। चीन इन दिनों अपने अधिकतर प्रदूषणकारी उद्योगों को दक्षिणी अमेरिकी देशों में या फिर अफ्रीका में स्थापित कर रहा है।
हमारे देश में औद्योगिक दुर्घटनाओं का एक लम्बा इतिहास रहा है और किसी उद्योग को आजतक दोषी नहीं ठहराया गया है। भोपाल के यूनियन कार्बाइड की घटना तो दुनिया के सबसे भयानक औद्योगिक दुर्घटना के तौर पर जानी जाती है, पर हजारों जानों की बलि लेने के बाद भी यूनियन कार्बाइड की कोई जिम्मेदारी नहीं तय की गई और ना ही किसी को दंड मिला।
हाँ, उद्योगों को इतना स्पष्ट हो गया कि भारत में कितनी भी दुर्घटना हो या फिर प्रदूषण हो, सरकारें उन्हें बचा ही लेंगी और सरकारी अधिकारी रिश्वत लेकर किसी को भी बचा लेंगे, और तो और यहाँ के न्यायालय भी हमेशा उद्योगों का ही पक्ष समझ पाती हैं। तमिलनाडु के स्टरलाईट कॉपर का हाल भी लोग देश चुके हैं, जिसने प्रदूषण फैलाकर लोगों को खूब प्रभावित किया, विरोध करते 13 लोगों को गोलियों से भून डाला। पर कंपनी का कोई अधिकारी दोषी नहीं ठहराया गया।
तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जब इस कंपनी से फ़ैलाने वाले प्रदूषण की चर्चा की और इसे दोषी ठहराया तो केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राष्ट्रीय हरित न्यायालय ने एकजुट होकर कंपनी को सारे आरोपों से बरी कर दिया। सिंगरौली में हरेक वर्ष ऐश पोंड से राख बहती है और कई लोगों को मार डालती है, पर कभी कुछ नहीं होता।
विशाखापत्तनम में स्थित साउथ कोरियाई कंपनी एलजी पोलीमर्स से गैस लीक होने की खबर भी सभी समाचार माध्यमों पर 7 मई को दिनभर दिखाई देती रही, गिरते पड़ते लोग भी दिखते रहे, राहत पैकेज की बात भी की गई और फिर मामला ओझल कर दिया गया। गैस किसी उद्योग से रिसी, यह साबित करने में कोई महीनों का समय नहीं लगता है फिर भी राहत की बात राज्य सरकार क्यों करती है यह समझ से परे है, सीधे उद्योग को ही क्यों नहीं यह राहत का काम करने के लिए बाध्य किया जाता है। जिस रात यह घटना हुई, उसी रात छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में भी पेपर मिल से गैस रिसाव हुआ और तमिलनाडु के कडलूर में नैवेली लिग्नाईट कारपोरेशन के प्लांट में धमाका हुआ।
उद्योगों में धमाके, विस्फोट, गैस का रिसाव, आग, प्रदूषण – यह सब हमारे देश की सामान्य अवस्था है। इस देश में उद्योगों से सम्बंधित अधिकतर सरकारी विभागों का काम कोई नहीं है, उन्हें सिर्फ रिश्वत वसूलने का वेतन सरकार देती है। जाहिर है, न तो सरकारी अधिकारी और न ही उद्योग किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदार होते हैं। दुर्घटना होती है, एक दिन अफरातफरी मचाती है, समाचार बनता है और फिर अगले दिन से कुछ प्रभावित परिवारों को छोड़कर सबकुछ सामान्य हो जाता है। इस बीच सरकार मुवावजे का ऐलान कर देती है, जिससे लोग खुश हो जाते है और सबकुछ भूल जाते हैं।
एलजी पोलीमर्स से गैस रिसाव के बाद यूनियन कार्बाइड दुर्घटना को भी लोगों ने एक दिन के लिए याद किया। इन दोनों दुर्घटनाओं का पैमाना तो अलग है, प्रभाव भी अलग है, फिर भी बहुत समानताएं हैं। दोनों बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं, दोनों से गैस का रिसाव देर रात में हुआ, दोनों उद्योग पहले बंद थे और फिर वापस खोलने की तैयारी कर रहे थे, दोनों उद्योगों से गैस का रिसाव द्रव से हुआ जो टैंक में रखा था।
देश में कितनी औद्योगिक दुर्घटनाएं होती हैं, इसका आंकड़ा किसी के पास नहीं है। अधिकतर दुर्घटनाओं की जानकारी भी किसी के पास नहीं होती और सम्बंधित उद्योग कर्मचारियों को डरा धमकाकर उनका मुंह बंद कर देते हैं। फिर भी सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 से 2016 के बीच देश में औद्योगिक दुर्घटनाओं में लगभग 54000 लोगों ने अपनी जान गंवाई। पर इस सम्बन्ध में काम करने वाले गैर-सरकारी संस्थाओं के अनुसार यह आंकड़ा बहुत कम है, वास्तविक आंकड़ा इससे 15 गुना अधिक होगा।
जाहिर है कि प्रदूषण और दुर्घटनाओं को जो देश सरकारी स्तर पर बढावा देता हो, वहां आखिर दुनियाभर से भगाए जा रहे प्रदूषणकारी उद्योग क्यों नहीं जायेंगे? हमारी सरकारें तो ऐसे उद्योगों का स्वागत करती हैं और सरकारी समर्थक इसे सरकार की जीत मानते हैं। आखिर, मरती तो जनता है जिसका कोई मोल नहीं है।