बिना लॉकडाउन के कोरोना पर काबू पाने वाला दुनिया का एकमात्र देश कैसे बना दक्षिण कोरिया ?
अभी भी लॉकडाउन या कर्फ्यू का पालन करवाने के अलावा सरकार की गंभीरता कहीं नजर नहीं आ रही है। यह सब भी तब किया जा रहा है जबकि स्थिति नियंत्रण से बाहर जा रही है। हम कुआं तभी खोदते हैं जब आग सबकुछ भस्म कर देती है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। 24 मार्च को प्रधानमंत्री जी टीवी पर फिर प्रगट हुए, और चार घंटे के नोटिस पर 21 दिनों के लिए पूरे देश में कर्फ्यू लगाकर चले गए। वैज्ञानिकों का हावाला देकर प्रधानमंत्री जी सोशल डिस्टेंसिंग को कोरोना वायरस रोकने का एकमात्र विकल्प बताते रहे। सोशल मीडिया पर भक्त गण प्रधानमंत्री जी के ज्ञान पर खुश हो रहे हैं, पर कोई यह नहीं पूछ रहा है कि यह ज्ञान 500 से अधिक लोगों के पॉजिटिव होने और 10 से अधिक लोगों के मरने के बाद ही क्यों आया?
अगर प्रधानमंत्री जी इतना ही सतर्क थे तो फिर इतना सबकुछ होने के बाद क्यों स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए और चिकित्सा कर्मियों के लिए प्रोटेक्टिव उपकरण के लिए राशि स्वीकृत की। अभी राशि स्वीकृत की गयी है, कहाँ कितना खर्च किया जाएगा, किस हॉस्पिटल को क्या चाहिए, ये सब आकलन करते-करते कम से कम 15 दिन और निकल जाएंगे। जब एक बार स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से बाहर हो चुकी होगी तब इस राशि का क्या लाभ होगा?
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चार घंटे का नोटिस देते हुए क्या मोदी जी ने ये सोचा कि वे इन चार घंटों में सोशल डिस्टेंसिंग को पूरी तरह नकार ही नहीं रहे हैं, बल्कि कालाबाजारी को भी बढ़ावा दे रहे हैं। उनके भाषण ख़त्म होने के पहले ही जो भी छोटी-मोटी दुकानें खुली थीं, वहां भीड़ इकट्ठा हो गयी और जिसके हाथ में जो आया और जिस भी कीमत पर आया, उसे लोग बटोरते रहे। प्रधानमंत्री जी लगातार कहते रहे हैं कि जरूरी चीजें उपलब्ध रहेंगी, पर जब हम घर से बाहर जा ही नहीं सकते तो फिर कोई भी वस्तु उपलब्ध हो या न हो क्या फर्क पड़ता है।
इटली, स्पेन, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस जैसे देश भी सोशल डिस्टेंसिंग की बात करते हैं। वहां यह हफ़्तों से किया भी जा रहा है, लेकिन कोरोना का कहर कम तो नहीं हो रहा है। वैसे भी हम ये मान बैठे हैं कि भारत की अधिकतर आबादी विशाल भवनों या कोठियों में बसती है, जहां परिवार के सदस्यों की संख्या कमरों से कम ही रहती है। देश की आधी से अधिक आबादी जिस माहौल में रहती है या रहने को मजबूर है, वहां सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द एक चुटकुले जैसा लगता है।
चीन में कोरोना के विस्तार के बाद यह दक्षिण कोरिया और इटली में लगभग एक समय पर फैला। दोनों देशों के बीच लगभग 8000 किलोमीटर का फासला है, लेकिन दोनों देशों में कोरोना के मामलों में बहुत समानता थी। दोनों देशों में इसका आरम्भ छोटे शहरों से हुआ और फिर बड़े शहरों में फैला। दोनों देशों ने इसे नियंत्रित करने के लिए सबसे अधिक जोर इसके परीक्षण पर दिया।
19 मार्च तक इटली में 73000 से अधिक सामान्य आबादी का परीक्षण किया गया जबकि दक्षिण कोरिया ने 307000 लोगों का परीक्षण किया था। लेकिन आज इटली की जो हालत है सभी देख रहे हैं और दक्षिण कोरिया ने इसे बहुत हद तक नियंत्रित कर लिया है। इटली में 6000 से अधिक लोग इससे मर चुके हैं जबकि दक्षिण कोरिया में कोरोना से मरने वालों की संख्या 120 के आसपास है। फिर सवाल यह उठता है की दक्षिण कोरिया ने ऐसा विशेष क्या किया?
दक्षिण कोरिया ने अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को चीन में पहला मामला आने के बाद ही चुस्त-दुरुस्त कर दिया था और लगभग 6000 जांच प्रयोगशालाएं जांच के लिए खोल दी थी और वहां कोई भी जिसे कोरोना का भय हो जांच करावा सकता था। मोबाइल से सरकार की तरफ से सन्देश और सावधानियों के संदेश सबको भेजे जाने लगे थे और संभावित इलाकों की निगरानी सेटेलाइट के माध्यम से शुरू कर दी गई थी।
सभी सरकारी और प्राइवेट चिकित्सा केन्द्रों को सतर्क कर दिया गया था। आइसोलेशन वार्ड बना दिए गए थे और सरकार की तरफ से हरेक चिकित्सा कर्मचारी को जरूरी उपकरण या सामग्री मुहैय्या करा दी गयी थी। शुरू में तो दक्षिण कोरिया में भी कोरोना तेजी से फैला, एक समय एशियाई देशों में यह चीन के बाद सबसे अधिक मरीजों वाला देश बन गया था, पर इसके बाद जब सारी सेवाओं में समन्वय स्थापित हो गया तब जल्दी ही स्थिति नियंत्रित हो गई।
हाल में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस मामले में दक्षिण कोरिया की तारीफ़ की है। दक्षिण कोरिया दुनिया का अकेला देश है जिसने कोरोना के कहर को विस्तार को बिना किसी क्षेत्र या शहर को लॉकडाउन किए बिना ही नियंत्रित किया। वहां केवल एक अपार्टमेंट जिसमें एक साथ बहुत सारे मरीज थे, उनको लॉकडाउन किया था। दक्षिण कोरिया ने एक और कदम उठाया था- सभी मरीजों या फिर संदिग्ध मरीजों और उसके आस-पास के इलाके में रहने वाले सभी लोगों को चिह्नित किया और फिर उनकी गतिविधियों की मोबाइल और सेटेलाइट से निगरानी की।
अपने देश में जबतक कोरोनावायरस से पीड़ित रोगियों की संख्या 200 पार नहीं कर गई और मरने वालों की संख्या 7 नहीं पहुँच गयी, तब तक सरकारें इसे एक मजाक वाली महामारी समझती रहीं। कोई इसे हवन से ठीक कर रहा था, कोई गोमूत्र पी रहा था, कोई गोबर से लेप लगा रहा था, कोई योग सिखा रहा था, कोई गो कोरोना के नारे लगा रहा था, कोई बता रहा था कि राम-भक्तों को कोरोना नहीं हो सकता और प्रधानमंत्री लोगों से थालियां पिटवा रहे थे, तालियां बजवा रहे थे। यही सब करने में समय बीतता गया और संक्रमण फैलता रहा। अब जाकर पूरे देश को लॉकडाउन किया जा रहा है। देश के प्रधानमंत्री भी अब तक जनता से शिद्दत से थालियां और तालियां बजाने का आह्वान कर रहे थे और जनता भी भरपूर सहयोग कर रही थी।।
भारत सरकार और इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने वैज्ञानिकों के आकलन को अनदेखा किया और विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशों का मजाक उड़ाते रहे। यह खबर तो बहुत सामान्य हो चली है कि सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रोटेक्टिव मास्क और दूसरे उपकरणों के मामले में दी गई चेतावनी की पूरी अवहेलना की है। आज भी देश के अनेक अस्पताल ऐसे हैं जहां कोरोनावायरस से संक्रमित मरीज पड़े हैं पर डोक्टरों और नर्सों के पास सुरक्षित ऐप्रेन, ग्लव्स और मास्क नहीं हैं।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन का एक और महत्वपूर्ण निर्देश था-अधिक से अधिक लोगों की जांच करने का। इस निर्देश को इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के निदेशक डॉ भार्गव ने यह कह कर टाल दिया था कि अभी यह समुदाय में नहीं फैला है इसलिए इसकी जरूरत नहीं है। आश्चर्य यह है कि देश के सबसे बड़े चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान के निदेशक वायरस के समुदाय तक नहीं पहुँचने के निष्कर्ष पर देश की 130 करोड़ जनता में से महज 826 लोगों पर किए गए टेस्ट के परिणाम के आधार पर पहुंच गए थे। पिछले 20 मार्च तक देश में महज 14175 लोगों का टेस्ट किया गया था, जो दुनिया में सभी देशों में आबादी के अनुसार सबसे कम है।
सरकार की यही लापरवाही अब पूरे देश की जनता को जोखिम में डाल चुकी है, लेकिन अभी भी लॉकडाउन या कर्फ्यू का पालन करवाने के अलावा सरकार की गंभीरता कहीं नजर नहीं आ रही है। यह सब भी तब किया जा रहा है जबकि स्थिति नियंत्रण से बाहर जा रही है। हम कुआं तभी खोदते हैं जब आग सबकुछ भस्म कर देती है। काश हमने भी दक्षिण कोरिया से कुछ तो सीखा होता।