पत्रकारिता के लिए नासूर साबित होगा यह 'राष्ट्रवादी' मीडिया
पत्रकारिता अपनी मूल तर्क और तथ्य की भाषा से अलग पार्टी और कॉरपोरेट के लिए जो भाषा गढ़ रही है, वह पत्रकारिता की पीढ़ियों के लिए खतरनाक तो है ही, वह देश के लिए भी खतरनाक है...
वरिष्ठ पत्रकार एस. राजू का विश्लेषण
15 सितम्बर को एक टीवी चैनल ने दो खबरें एक साथ दिखाई। पहली खबर आतंकियों के साथ मुठभेड़ की थी और दूसरी रेवाड़ी की एक टॉपर छात्रा के साथ गैंग रेप की थी।
पहली खबर में रिपोर्टर लगभग गला फाड़ते हुए कह रहा था कि सुरक्षा बलों ने आतंकियों को मार गिराया है और दूसरी खबर में रिपोर्टर बेहद सावधानी से बता रहा था कि टॉपर रही छात्रा के साथ रेप करने वाले आरोपियों को पकड़ लिया गया है।
सम्भव है कि आपने भी ये दोनों खबरें एक साथ देखी हों, लेकिन आपने रिपोर्ट कर रहे पत्रकार या एंकर की भाषा पर ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन यदि कोई पत्रकारिता का छात्र होगा तो वह जरूर ध्यान दे रहा होगा। और सीख रहा होगा कि यदि पुलिस किसी रेप करने वाले को पकड़ती है तो वो आरोपी होता है और यदि वही पुलिस या सेना किसी आतंक प्रभावित इलाके में किसी को पकड़ती है तो वह आरोपी नहीं होता, सीधे आतंकी होता है और पुलिस या सेना किसी आतंकी को मार दे तो उस रिपोर्ट को कवर करते हुए चिल्लाना जरूरी होता है।
हमारी नई पीढ़ी वही सीखती है जैसा हम कर रहे होते हैं। ऐसे में किताबी ज्ञान कोई मायने नहीं रखता, जाहिर है पत्रकारिता की नई पीढ़ी भी यही सीखेगी। उन्हें कौन बताएगा कि पुलिस का काम आरोपी को पकड़ना होता है, इसी तरह सेना भी किसी को पकड़ ले या मार दे तो वह भी आरोपी ही होता है, आतंकवादी नहीं।
और पत्रकारिता की इस तहजीब को बनाए रखना बेहद आसान है। रिपोर्ट देते वक्त बस यह कहना था कि पुलिस या सेना का दावा है कि उन्होंने 5 आतंकवादियों को मार गिराया है। यानी कि जो सूचना आप दे रहे हैं, वह पुलिस द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है।
दरअसल हो यह रहा है कि जैसे ही पुलिस या सेना किसी को भी आतंकवादी के नाम पर गिरफ्तार करती है तो हमारे चैनल या यूं कहें कि पूरा मीडिया जगत राष्ट्रवादी बन जाता है और ऐसी खबरों को चिल्ला कर परोसने लगता है।
उनका राष्ट्रवाद यह मानने को तैयार ही नहीं रहता कि पुलिस या सेना गलत व्यक्ति को फंसा रही है, जबकि विगत में कई मामले ऐसे सामने आ चुके हैं, जब कोर्ट ने पकड़े गए लोगों को निर्दोष ठहराते हुए छोड़ दिया। बाटला हाउस ऐसा ही एक छोटा सा उदाहरण है।
ऐसे में सवाल ये है कि चैनल वाले पत्रकारिता की ऐसी भाषा गढ़ते ही क्यों हैं?
पहली बात तो यह कि पत्रकारिता के भाषाई खेल का धंधा सीधे-सीधे उनके व्यापार से जुड़ा है। यानि कि उन्हें लगता है कि उनके राष्ट्र वाद की वजह से दर्शक उनका चैनल देखने आएंगे और उनकी टीआरपी बढ़ेगी।
दूसरा कारण बेहद शातिराना है। दरअसल, यह केंद्र सरकार की चाल है कि देशवासियों का ध्यान असली मुद्दों पर न अटके और वे कश्मीर, आतंकवाद, पाकिस्तान जैसे मुद्दों पर अटके रहें। इसी के चलते केंद्र सरकार के इशारे पर ज्यादातर चैनल राष्ट्रवाद का लाबादा ओढ़कर ऐसी खबरें परोसते हैं, जिससे लोगों को लगे कि देश की असली समस्या यही है और सरकार इस समस्या से निपटने के लिए 'कुछ' कर रही है।
बात केवल आतंकवाद तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह केंद्र सरकार जनता के मुद्दों को उठाने वाले लोगों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर रही है और पुलिस ने ऐसे लोगों को नया नाम 'अर्बन नक्सली' दिया है।
यहां भी एजेंडाधारी मीडिया यह साबित करने पर तुला है कि ये लोग अर्बन नक्सली हैं। वह भी तब जबकि सर्वोच्च न्यायालय इन लोगों के खिलाफ पुलिस द्वारा लगाए जा रहे आरोपों से संतुष्ट नहीं है। ऐसे में इन कथित पत्रकारों द्वारा अपनी मान मर्यादा और भाषा भूल कर उन्हें आरोपी बताने की बजाय अपने समाचारों में लगातार दोषी कहा जा रहा है?
दिक्कत यह नहीं कि मीडिया में बैठे कुछ लोग एक एजेंडे के चलते ऐसा कर रहे हैं, लेकिन बड़ी दिक्कत या बिडम्बना यह है कि पत्रकारिता कर रहे बहुत से लोगों को इस एजेंडे का आभास नहीं है और केवल पिछलग्गू बनकर वही कर रहे हैं, जो ये एजेंडा धारी कथित पत्रकार चाहते हैं।
इन पत्रकारों को यह समझना होगा कि वे पत्रकारिता की मूल भाषा को बदल कर न केवल एजेंडे का शिकार बन रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की आने वाली पीढ़ी के लिए भी एक खतरनाक परम्परा को जन्म दे रहे हैं।