प्रिंसिपल खुद ही कर गयी विश्वविद्यालय टॉप, अब होगी एफआईआर दर्ज
बिहार से एक कदम आगे निकला यूपी, रिपोर्ट सार्वजनिक होने में लग गए एक साल, पर मामले के असल दोषियों यानी कॉलेज प्रबंधन और विश्वविद्यालय प्रशासन का किया जा रहा बचाव
जनज्वार, गोरखपुर। उत्तर प्रदेश के दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के बहुचर्चित टॉपर कांड में जांच समिति ने पाया कि इस कांड की सरगना रेशमा देवी महाविद्यालय की प्रिंसिपल नीलम पांडेय ही हैं। प्रिंसिपल नीलम पांडेय अपना नाम बदलकर शिवांगी पांडेय बनीं और अपने ही परीक्षा केंद्र से 2016 में बीए में विश्वविद्यालय टॉप कर गोल्ड मेडलिस्ट बनीं।
टॉपर फर्जीवाड़े कांड में गठित चार सदस्यीय जांच समिति की 20 जून को जारी हुई रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 की बीए टॉपर शिवांगी पांडेय और रेशमा देवी महाविद्यालय अमवां सोहनरियां, जिला देवरिया की कार्यवाहक प्रिंसिपल और केंद्राध्यक्ष डॉ. नीलम पांडेय एक ही हैं। प्राचार्य ने ही साजिशन अपना नाम बदलकर दोबारा स्नातक की डिग्री लेने के लिए इस कांड को अंजाम दिया था।
प्रो.चितरंजन मिश्र की अध्यक्षता में गठित जांच समिति की सिफारिशों को विश्वविद्यालय की परीक्षा समिति ने मानते हुए फैसला किया है कि रेशमा देवी कॉलेज प्रशासन को एक सप्ताह के भीतर प्राचार्य नीलम पांडेय के विरुद्ध एफआइआर दर्ज करानी होगी और उसकी एक कॉपी हफ्तेभर के भीतर विश्वविद्यालय को सौंपनी होगी। ऐसा न करने पर रेशमा देवी महाविद्यालय को 2019 तक किसी भी परीक्षा के लिए केंद्र नहीं बनाया जाएगा।
इस पूरे प्रकरण पर जांच समिति के अध्यक्ष प्रो. चितरंजन मिश्र कहते हैं कि प्रदेश में जिस तरह से शिक्षा घोटाले सामने आ रहे हैं उन पर लगाम लगना बहुत कठिन है। नीलम पांडे उर्फ शिवांगी प्रकरण में एक प्राचार्य इस घटिया हरकत तक इसलिए उतरीं क्योंकि उन्हें स्नातक में अपने नंबर बढ़ाने थे, क्योंकि नंबर बढ़ने के बाद उनका बीटीसी में एडमिशन हो गया था। अगर वह यूनिवर्सिटी टॉप नहीं करतीं तो शायद यह मामला खुलता भी नहीं। प्रदेशभर में न जाने कितने लोग दूसरों के नाम पर परीक्षा दे रहे हैं।
चितरंजन मिश्र का मानना है कि इस तरह के मामले शिक्षा के लगातार निजीकरण के चलते सामने आ रहे हैं। सरकार शिक्षा को निजी हाथों में सौंप रही है, तो शिक्षा माफिया भी पैर पसार रहा है। जाहिर तौर पर निजी हाथों में जाने के बाद वो वही करेगा जिसमें उसका लाभ होगा।
जांच समिति की रिपोर्ट में देरी की वजह में प्रोफेसर चितरंजन कहते हैं कि पिछले वर्ष सितंबर 2016 में गठित हमारी समिति ने जनवरी 2017 में ही अपनी रिपोर्ट यूनिवर्सिटी को सौंप दी थी, मगर उपकुलपति के रिटायरमेंट के चलते रिपोर्ट खुल नहीं पाई। नए वाइस चांसलर के आने के बाद उन्होंने परीक्षा समिति की मीटिंग रखी और जांच समिति की रिपोर्ट खुली है।
गौरतलब है कि रेशमा देवी महाविद्यालय की शिवांगी पांडेय ने डीडीयू के 2015-16 सत्र में स्नातक के कला संकाय में टॉप किया था, जिसे विश्वविद्यालय के 35वें दीक्षांत समारोह में गोल्ड मेडल देकर सम्मानित किया जाना था, जिसके लिए उनकी खोजबीन की गई। अगर शिवांगी पांडे ने विश्वविद्यालय टॉप नहीं किया होता तो शायद यह मामला भी अन्य मामलों की तरह दबा ही रह जाता और वो आराम से बीटीसी की डिग्री ले चुकी होतीं।
हालांकि फर्जीवाड़े में संलिप्त प्राचार्य पिछले वर्ष ही कॉलेज से निलंबित कर दी गई थीं और मामले की शुरुआती पड़ताल के बाद शिवांगी पांडेय उर्फ नीलम पांडेय का स्वर्ण पदक भी निरस्त कर दिया गया था।
स्ववित्तपोषित और वित्तविहीन महाविद्यालय एसोसिएशन से जुड़े डॉ. चतुरानन ओझा कहते हैं, शिक्षक नेताओं और समाचार पत्रों द्वारा लगातार इस मुद्दे को उठाया गया, जिस कारण विश्वविद्यालय को मज़बूरनकर जांच कमेटी बिठानी पड़ी। मगर सारा ठीकरा प्राचार्या डॉ नीलम पांडे पर फोड़कर खेल के प्रायोजक प्रबंधक और विश्वविद्यालय प्रशासन को बचाया जा रहा है। सवाल तो यह भी है न कि प्राचार्य को यदि अनुबंध के अनुरूप वेतन भुगतान किया जा रहा होता तो उसे प्राइमरी का मास्टर बनने के लिए गलत काम नहीं करना पड़ता।
हालांकि घटना के बाद आरोपी नीलम पांडेय ने पूरी जांच व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए कहा था कि मेरा नाम जान—बूझकर फर्जीवाड़ा घोटाले में जोड़ा जा रहा है। चूंकि कॉलेज की वेबसाइट पर मुझसे संबंधित सारी जानकारी उपलब्ध है तो किसी ने साजिश के तहत मुझे फंसाया है। मैं बेकसूर हूं और इस मामले की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए। आखिर एक प्राचार्य एक समय में दो जगह कैसे मौजूद हो सकता है?