प्रिय अभिषेक की कविता 'चलो सखी'
चलो सखी पर्वत है आएं
सब आपस में चंदा करकैं
डीजल की गाड़ी में भर कैं
देहरी छू भज आएं
चलो सखी पर्वत है आएं
काउ नाव में बैठ-बाठ कैं
माल रोड की काउ लाट पैं
स्लीवलेस पे टैटू गाँठ कैं
सेल्फ़ी खूब खिचाएँ
चलो सखी पर्वत है आएं
रोहतांग पर जायकैं खेलैं
पाँच हजार कौ कमरा लेलैं
बैठ वहीं सब ऑडर पेलैं
रम के पैग बनाएं
चलो सखी पर्वत है आएं
इतें-उतें ,हम कितें न देखैं
चिप्स कुरकुरे पैकिट फेंकैं
पूरी चढ़ाई भर-भर ओकैं
एवोमिन मंगवाएं
चलो सखी पर्वत है आएं
गिर कैं ऊपर लदर-पदर
हम पूरी मसूरी मचा गदर
छोड़ कमोड में अपओं असर
चेकआउट करि जाएं
चलो सखी पर्वत है आएं
खुदै दिखाऐं कर्रो सहरी
सौ रुपिया में लैं दस चैरी
रूखी खाय कैं स्ट्राबेरी
बुद्धू घर कौ आएं
चलो सखी पर्वत है आएं
घाटी देखो आय गई दून
यहीं मनेगौ हन्नीमून
जब-जब हूँ आए जे जून
दिल्ली से दौड़ आएं
चलो सखी पर्वत है आएं
होने दो जो है गई भीड़?
है कसोल में अपनौ नीड़
वहीं मिलैगी असली वीड
सुट्टा ख़ूब लगाएं
चलो सखी पर्वत है आएं
क्या घाटी, क्या झरने-पर्वत
अपने बाप की पूरी कुदरत
रोके हमको किसमें हिम्मत
मूड़ पे लट्ठ बजाएं
चलो सखी पर्वत है आएं
(ग्वालियर के प्रिय अभिषेक की यह कविता उनके एफबी वॉल से)