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रहीम मियां की कविता 'कुन्दा'
सड़क के किनारे
चिलचिलाती धूप के प्रचण्ड साये में,
एक आदिवासी चेहरा
रंग काला, तन पर मांस नहीं
कंकाल सा छाती दिख रहा।
हाथ में भारी कुल्हाड़ी
करता बार-बार प्रहार,
फाड़ देना चाहता
हड्डी सा सख्त लकड़ी का कुन्दा।
आँखें हैं लाल, शायद गुस्से से भरी हुई,
चीख है, या दर्द है सीने में
दबी हुई उसकी।
आक्रोश उसका...
न अन्ना सी भूख की ताकत,
न जय प्रकाश सा जोश।
बेतहाशा सिकन को पोंछता,
पचास रुपय मजदूरी के लिए
रक्त जनित परिश्रम वह करता।
किनारे सुपारी की छाया में,
उसका बच्चा सोया है -
भूखा और प्यासा।
कुन्दा फटने का नाम न ले रहा
शोषण तंत्र या तानाशाह है आज का।
हार न मानता वह
करता बार-बार प्रहार,
इस बार वज्र प्रहार
कुन्दा फट गया,
गहरी साँस ली।
अब मालिक खुश होगा...
(रहीम मियां जलपाईगुड़ी में शिक्षक हैं।)
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