भ्रम में हैं राहुल गांधी, मुस्लिम ब्रदरहुड से बड़ी चुनौती है आरएसएस
आज मिस्र में ब्रदरहुड के साठ हजार लोग जेलों में हैं जबकि भारत में आरएसएस अपने आप में कानून बना हुआ है; इस लिहाज से आरएसएस कई गुना बड़ी चुनौती कहा जाएगा...
आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण
राहुल गाँधी की आरएसएस की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना सटीक होते हुए भी ऐतिहासिक सतहीपन का शिकार नजर आती है। सबसे पहले, उन्होंने वैश्विक शांति के नजरिये से आकलन में वही गलती की है जो 2013 में मिस्र में मोहम्मद मोरसी की सरकार का तख्ता पलट होने देने में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने की थी।
दूसरे, भारतीय समाज को आरएसएस के खतरे से चेताने के लिए उन्हें देशी जमीन का इस्तेमाल करना चाहिये था क्योंकि आरएसएस विश्व शांति को नहीं भारतीय समाज की शांति को खतरा है। आज मिस्र में ब्रदरहुड के साठ हजार लोग जेलों में हैं जबकि भारत में आरएसएस अपने आप में कानून बना हुआ है; इस लिहाज से आरएसएस कई गुना बड़ी चुनौती कहा जाएगा।
अमेरिका में इसी महीने मिस्र में ब्रदरहुड सत्ता पलट पर न्यूयॉर्क टाइम्स के कैरो में ब्यूरो प्रमुख रहे डेविड किर्कपैट्रिक की किताब ‘इनटू द हैंड्स ऑफ़ द सोल्जर्स’ का प्रकाशन हुआ है। उनकी थीसिस के अनुसार, ब्रदरहुड शासन में अंततः लोकतान्त्रिक और समावेशी होने की संभावना थी| 2013 में मोरसी के पतन से अरब लोगों के हाथ आया हजारों वर्ष की निरंकुशता से निकलने का एक सुनहरा अवसर चला गया।
किर्कपैट्रिक का निष्कर्ष है कि अरब जगत में राजनीतिक सुधार और लोकतंत्र तभी संभव होंगे जब पॉलिटिकल इस्लाम को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाये। अन्यथा, वहां पॉलिटिकल इस्लाम को दूर रखने का एकमात्र रास्ता रह जाएगा कि समाज से लोकतंत्र को ही दूर रखा जाये। परिणामस्वरूप, क्रांति, अतिवाद और शरणार्थी आयाम चलते रहेंगे जिनका खामियाजा पश्चिम पहले की तरह भुगतता रहेगा।
मुस्लिम ब्रदरहुड, अरब जगत में पॉलिटिकल इस्लाम का अपेक्षाकृत लिबरल रूप है और संघ, भारत में पॉलिटिकल हिंदुत्व का फासीवादी रूप। हालाँकि, दोनों इस अर्थ में समान भी हुए कि दोनों ही अतीतजीवी जीवन दृष्टि समाज पर लादते आये हैं| जैसा कि कांग्रेस आईटी सेल प्रमुख दिव्या स्पंदना ने इंगित किया दोनों ही राज्य शक्ति को नियंत्रित करना चाहेंगे और दोनों ही धर्मनिरपेक्षता के विरोधी रहे हैं।
फिर भी, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके समकालीन प्रभाव को आंकें तो कहना पड़ेगा कि जहाँ संघ का दखल भारतीय समाज को हजार वर्ष पीछे ले जाना चाहेगा वहीं ब्रदरहुड अरब जगत को एक हजार वर्ष के सामाजिक पिछड़ेपन से बाहर आने की दिशा पकड़ने में उत्प्रेरक सिद्ध होगा।
भारत में गोरख, कबीर, नानक, मीरा, राममोहन राय, ज्योतिबा, दयानंद, विवेकानंद, पेरियार, गाँधी और अम्बेडकर के प्रभाव ने पॉलिटिकल हिंदुत्व को दकियानूसी दायरों से आजाद कराया, जबकि अरब जगत को अभी मध्य युगीन शरिया के चंगुल से छूटने का इन्तजार है।
जहाँ आरएसएस की बेलगाम कॉर्पोरेट मुनाफे से दोस्ती जग जाहिर है, मुस्लिम ब्रदरहुड का आर्थिक दर्शन भी नव उदारवादी कॉर्पोरेट नीतियों को इस्लामिक जामा पहनाने में सिद्धहस्त है। क्योंकि इस्लाम में ‘सूद’ हराम है उनके इस्लामिक सिस्टम में इसे ‘मुनाफा’ बता कर हलाल करार दिया जाता है।
अरब स्प्रिंग का बड़ा हिमायती होते हुए भी ओबामा ने मिस्र की सेना को वहां की चुनी हुयी ब्रदरहुड सरकार से सत्ता हथियाने दी तो ब्रदरहुड के प्रति अमेरिका के अविश्वास में, राजशाही, फौज, कठमुल्ला संचालित अरब देशों के सामंती शासन की सहमति शामिल रही होगी| अमेरिकी पूंजी और सैन्य निवेश के भागीदार निरंकुश अरब शासक आइसिस से ब्रदरहुड तक किसी भी ब्रांड के पॉलिटिकल इस्लाम को बर्दाश्त नहीं कर सकते।
भारत के राजनीतिक सन्दर्भ में आरएसएस की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना को स्वयं कांग्रेस को और गंभीरता से लेने की जरूरत है। वर्तमान परिदृश्य में कालक्रम में तिरोहित हो चुकी इन बातों का क्या महत्व हो सकता है कि दोनों संगठनों की शुरुआत 1920 के दशक में हुयी या दोनों पर कभी प्रतिबन्ध लगा था। महत्व इस विश्वास का होना चाहिये कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र होने की नियति से बंधा है जो बदली नहीं जा सकती।
दरअसल, राहुल गाँधी की तुलना से निकली सही चुनौती होगी, भारतीय लोकतंत्र में पॉलिटिकल हिंदुत्व की अनिवार्य उपस्थिति को स्वीकारना। आरएसएस इस उपस्थिति को फासिस्ट रंग देना चाहेगा; इसका मुकाबला जनेऊ दिखाकर नहीं, आरएसएस को लगातार निशाने पर लेकर करना होगा।