10 साल की जूली पढती है झारखंड में, कमाती है सूरत में, अब गांव लौट क्वारंटीन सेंटर में कर रही चूल्हा-चौका
जूली छठी कक्षा में पढ़ती हैं और उसका नामांकन झारखंड के देवघर जिले के ताराबाद के गांव में है। लेकिन वह सूरत में अपनी मां कुंती देवी के साथ साड़ी का काम करती है, ताकि परिवार के लिए कुछ आर्थिक मदद जुटायी जाए। दोनों मां-बेटी साड़ी में मोती चिपकाती हैंं...
देवघर से राहुल सिंह की रिपोर्ट
10 साल की जूली कुमारी का चेहरा भाव शून्य है। एक कोरोना क्वारंटीन सेंटर में उसके चेहरे की यह भाव शून्यता खबरों के संकलन के दौरान भी पीड़ा पहुंचाती है। जूली की कहानी जानिए। जूली आर्थिक जद्दोजहद का दबाव व तनाव झेलते देश के करोड़ों बचपनों में से एक की कहानी है जिसके लिए उसके घर वाले और उससे बातचीत करने के दौरान भी मैं यह कोशिश करता हूं कि वह थोड़ी सहज दिखे, खुश दिखे और कोरोना महामारी से बने भय, दूरियां, आर्थिक असुरक्षा के बीच अपने कहीं बेहतर भविष्य की कल्पना कर सके।
उसे यह समझाने की कोशिश करता हूं कि यह सब कुछ दिनों की बात है लेकिन यह समझाना आसान नहीं है। वो कभी भारत के पिछड़े सूबे झारखंड में ठौर ढूंढते हैं तो कभी चार पैसे की कमाई के लिए विकसित माने जाने वाले गुजरात की औद्योगिक नगरी सूरत में। वह पढ़ती तो झारखंड में है, लेकिन परिवार की मदद के लिए कमाती सूरत में है।
जूली छठी कक्षा में पढ़ती हैं और उसका नामांकन झारखंड के देवघर जिले के ताराबाद के गांव में है। लेकिन वह सूरत में अपनी मां कुंती देवी के साथ साड़ी का काम करती है, ताकि परिवार के लिए कुछ आर्थिक मदद जुटायी जाए। दोनों मां-बेटी साड़ी में मोती चिपकाती हैं। दस से पंद्रह दिन में दोनों मां-बेटी औसतन तीन-चार घंटे काम करती हैं तो डेढ हजार के करीब बन जाता है। उसके पिता दीवाकर दास सूरत में ही सिक्योरिटी का काम करते हैं।
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16-17 साल का जूली का भाई विपीन दास है जो सूरत में मशीन चलाने का कोई काम करता है। जूली के पिता दीवाकर दास बताते हैं कि पिछले दिनों बड़ी बेटी की शादी की थी तो 70-80 हजार रुपये कर्ज चढ गया, जिसे चुकाने के लिए हम सब काम करते हैं। दीवाकर दास होली के बाद किसी काम से गांव आए थे, पत्नी, बेटे व बेटी सूरत में ही थे। फिर कोरोना लाॅकडाउन लग गया तो दोनों तरफ के लोग फंस गए।
जब श्रमिक ट्रेनों का परिचालन शुरू हुआ तो 10 दिन पहले पत्नी, बेटे व बेटी आए और उन्हें जब वे रिसीव करने स्टेशन गए तो इसी आधार पर उन्हें भी क्वारंटीन कर दिया गया। ये सब ताराबाद मध्य विद्यालय के क्वारंटीन सेंटर में हैं। क्वारंटीन सेंटर पर ये खुद खाना बनाते हैं, घर से छोटा गैस चूल्हा मंगा लिया और सारी व्यवस्था खुद की।
शाहाबुद्दीन व अर्जुन की कहानी
गुजरात के मोरबी में सिरामिक इंडस्ट्री में 12,000 रुपये की नौकरी करने वाला लक्ष्मनियांटाड़ गांव का 23 साल का मोहम्मद शाहाबुद्दीन दोगुने दाम में टिकट खरीद कर घर आया और वापस जाने को बहुत इच्छुक नहीं है। हालांकि यह कहता है कि परिस्थिति ठीक हुई तो जाएंगे।
बेंगलुरु में मार्बल टाइल्स का काम करने वाला अर्जुन अग्रवाल वहां 10 हजार रुपये हर महीने कमाता था और ताराबाद स्कूल के क्वारंटीन सेंटर में रह रहा है। वह बेलटिकरी गांव का रहने वाला है और पांच-छह साल से बेंगलुरू में काम कर रहा था। मात्र आठवीं तक पढा है। क्वारंटीन सेंटर में इन्हें कोई ऐसी सुविधा नहीं मिल रही जिसकी तारीफ की जाए। ये लोग बताते हैं कि पहले यहां 30 लोग क्वारंटीन थे, जिनमें बारी-बारी से कई लोग छूटते रहे और आज सुबह ही 10 लोग गये हैं। हालांकि कुछ और लोग एक-दो दिन में बाहर से आने वाले हैं।
कागज पर लिखवाया नौकरी छोड़ रहा हूं, तब दिया पैसे, यहां ठीक से खाना भी मयस्सर नहीं
ताराबाद मध्य विद्यालय जैसा ही हाल कमोबेश बगल के कुसुमडीह गांव के क्वारंटीन सेंटर का है, जो वहां के सरकारी विद्यालय में है। यहां सोनीपत से आए मुकेश कुमार यादव व उमाशंकर यादव अपने घर से भोजन व अन्य चीजें मंगाते हैं। ये दोनों 24 मई को आए हैं। वहां प्लाईबोर्ड की फैक्टरी में काम करते थे, लेकिन 22 मार्च से ही काम बंद हो गया। मुकेश चार साल से सोनीपत में रह रहे हैं, पत्नी-बच्चे गांव में ही रहते हैं। वे कहते हैं कि अब बाहर नहीं जाएंगे।
इस क्वारंटीन सेंटर में रह रहे बेंगलुरू से आए संजय मोदी कहते हैं कि एक टाइम खाना मिलता है, उसमें भी आधे लोगों को मिलता है, आधे को नहीं। संजय मोदी बेंगलुरू में एक फेमस कपड़ा ब्रांड के रिटेल चैन शाॅप सभ्यता में काम करते थे और 18 हजार की तनख्वाह पाते थे। वे कहते हैं लाॅकडाउन में मेरी सैलरी उन लोगों ने रोक दी और नौकरी से निकाल दिया, लेकिन बकाया पैसा जब मैंने मांगा तो मुझे इस शर्त पर दिया कि कागज पर लिख कर दूं कि मैं खुद नौकरी छोड़ कर जा रहा हूं।
संजय के अनुसार, उनसे कंपनी ने कागज पर ऐसा लिखवा कर ले लिया, तभी पैसे दिए। वे कहते हैं कि मेरे साथ सात-आठ और बंदों के साथ ऐसा ही हुआ। बेंगलुरू में एक गेस्टहाउस के आॅफिस में काम करने वाले प्रदीप यादव हों या वहां के नोकिया कंपनी के आॅफिस में काम करने वाले युवा किशन कुमार यादव सबकी इस आपदा के समय जूझने व परेशानियां झेलने की कहानी है।
क्वारंटीन सेंटर से भाग गए लोग
देवघर के रिखिया के शामा रानी राजकीय कृत मध्य विद्यालय में स्थित क्वारंटीन सेंटर में 15-16 लोग थे, जो 31 मई की रात वहां से निकल गए। स्कूल के सामने रहने वाले बुजुर्ग प्रसाद रमानी ने कहा कि कोई सुविधा मिल नहीं रही थी, इसलिए सब रात में यहां से भाग गए। उनके अनुसार, लोठिया, अमरबा आदि गांव के बाहर से आए लोग यहां क्वारंटीन किए गए थे।
देर से आने वाली जांच रिपोर्ट से भी लोग हैं परेशान
क्वारंटीन सेंटर में रह रहे लोगों की देर से आने वाली जांच रिपोर्ट से भी परेशानियां होती हैं। इस कारण कई लोगों को 14 दिन के तय समय से अधिक दिन भी अस्पताल व क्वारंटीन में गुजरना पड़ जाता है। उन्हें लंबी अवधि वहां से गुजारने में जरूरी सुविधाएं नहीं मिलने के कारण परेशानियां होती हैं।
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रांची के हेहल के काजू बगान स्थित क्वारंटीन सेंटर में रह रहे लोगों ने वाट्सएप मैसेज, फोटो व वीडियो के माध्यम से अपनी परेशानियां बतायीं। यहां मुंबई से 15 दिन साइकिल चला कर व ट्रक की मदद लेकर पहुंचे मुन्ना कुमार साह क्वारंटीन किए गए। उन्होंने सोशल मीडिया पर व मैसेज के माध्यम से फोटो व वीडियो भेज कर बताया कि पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है, हम मजदूरों को कम खाना मिलता है। हमें इतना खाना दिया जाता है, जिससे बड़े लोगों का पेट भर सकता है, मेहनत मजदूरी करने वालों का नहीं।
उन्होंने यह भी कहा कि सेंटर पर स्वच्छता का ख्याल नहीं रखा जाता है और न ही सेनेटाइजर दिया गया। उनकी पीड़ा यह है कि संक्रमण रोकने के लिए आवश्यक सभी नियमों का पालन करने के बाद उनका मामला लंबा खींचा जा रहा है। वह खुद जांच व क्वारंटीन के लिए रिम्स अस्पताल गए थे। काजू बगान क्वारंटीन सेंटर मंे रह रहे लोगों की सरकारी कर्मियों से नोंक-झोंक भी हुई थी।
मुन्ना का कहना है कि उनके गृह जिले में उनके संपर्क के कई लोग बाहर से आए उन्हें सात दिन के क्वारंटीन के बाद घर में ही होम क्वारंटीन रहने की अनुमति दी गयी। राज्य में रेड जोन व आरेंट जोन से आने वाले प्रवासियों को सरकारी क्वारंटीन में रखने का आदेश है, जबकि ग्रीन जोन से आने वाले लोग होम क्वारंटीन रह सकते हैं। अलग-अलग क्वारंटीन सेंटर पर अलग व्यवस्था से लोगों में गुस्सा है।