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क्या तुर्की के वैज्ञानिक की तरह हमारे देश का एक भी वैज्ञानिक सरकार के विरोध में जा सच कहने का कर पायेगा साहस!
जिस देश में इंडियन साइंस कांग्रेस के मंच पर खड़े होकर प्रधानमंत्री और नेता विज्ञान की उड़ाते हों धज्जियां और देश के सभी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक अपनी कुर्सियों पर बैठकर बजाते हों तालियां, वहां के वैज्ञानिकों से सच बोलने की उम्मीद करना है बेमानी...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। हमारे देश में वैज्ञानिक कुछ कहते ही नहीं हैं और अनुसंधान में क्या किया जा रहा है यह सब प्रयोगशाला की चारदीवारी में ही कैद रहता है। वैज्ञानिक सोशल मीडिया पर भी कोई वैज्ञानिक ज्ञान नहीं देते और प्रिंट या विसुअल मीडिया से तो बहुत दूर रहते हैं।
प्रदूषण के मुद्दे पर अगर वैज्ञानिक बोलते भी हैं तो सही नहीं बताते, बल्कि मामले की लीपापोती और सरकार की निष्क्रियता को बचाने के लिए बोलते हैं। हमारे देश के वैज्ञानिकों की निष्क्रियता का आलम यह है कि अभी हाल में ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने वायु प्रदूषण के केवल एक पैरामीटर पीएम 2.5 के आंकड़े के आधार पर दावा कर दिया कि दिल्ली में वायु प्रदूषण 25 प्रतिशत तक कम हो गया है। इस दावे के विरुद्ध किसी वैज्ञानिक या वैज्ञानिक संस्थान ने कोई आवाज नहीं उठाई।
तुर्की में जनता को प्रदूषण और पर्यावरण की सही जानकारी देने के कारण एक वैज्ञानिक, बुलेंट सिक को पंद्रह महीने की जेल की सजा सुनाई गयी है। बुलेंट सिक तुर्की के अक्देनिज़ यूनिवर्सिटी में फ़ूड सेफ्टी एंड एग्रीकल्चरल रिसर्च सेंटर में डिप्टी डायरेक्टर रह चुके हैं, और वर्तमान में मानवाधिकार के लिए काम कर रहे हैं।
वर्ष 2010 में तुर्की के मिनिस्ट्री ऑफ़ हेल्थ ने पश्चिमी तुर्की में कैंसर के बढ़ाते मामलों के कारण के अध्ययन के लिए एक प्रोजेक्ट स्वीकृत किया था और अध्ययन करने वाले दल के एक सदस्य बुलेंट सिक भी थे।
लगातार पांच वर्षों तक अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि इस पूरे क्षेत्र की भूमि, खाद्य पदार्थों और पानी में भारी मात्र में विषाक्त पदार्थ मौजूद हैं, जिनके कारण कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं। इस पूरे क्षेत्र में भूमि और पानी में कीटनाशकों, भारी धातुयें और पोलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन यौगिकों की सांद्रता बहुत अधिक पायी गयी थी और ये सभी रसायन और यौगिक कैसर-जनक हैं।
तुर्की के पश्चिमी क्षेत्रों में घरों में जो पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है उसमें भी लेड, एल्यूमीनियम, क्रोमियम और आर्सेनिक जैसे रसायनों की सांद्रता खतरनाक स्तर तक रहती है। अध्ययन से स्पष्ट था कि इस पूरे क्षेत्र में प्रदूषण और विषाक्तता के कारण कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं।
वर्ष 2015 में इस अध्ययन की रिपोर्ट तुर्की सरकार को सौप दी गयी, पर जब सरकार ने इस रिपोर्ट को देखा तो उसे ठन्डे बस्ते में डालकर गोपनीय करार दिया। बुलेंट सिक लगातार एक वर्ष तक सरकार से आग्रह करते रहे कि यह पूरा मामला करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ा है, इसलिए इस पर त्वरित कार्यवाही की जरूरत है। पर, सरकार ने इस पूरी सूचना को गोपनीय बनाए रखा और प्रदूषण या विषाक्तता से निपटने के लिए कोई कार्यवाही नहीं की।
ऐसा हमारे देश में भी लगातार होता रहा है। बहुत सारी रिपोर्टें जो सरकार के विरुद्ध होतीं हैं उन्हें दबा दिया जाता है और लोग खतरों से जूझते रहते हैं और मरते रहते हैं। हमारे देश में वैज्ञानिकों और संस्थाओं के पास मतभेदों से बचने का एक दूसरा तरीका भी है। यहाँ सबसे पहले नेता या मंत्री बयान देते हैं और फिर वैज्ञानिक या वैज्ञानिक संस्थान उसी बयान के आधार पर रिपोर्ट बना देते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि प्रधानमंत्री ने कहीं बयान दिया कि गंगा नदी में प्रदूषण का स्तर कम हो गया है तो फिर पर्यावरण मंत्रालय या केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरफ से एक दो दिनों के भीतर बयान आ जाता है कि प्रदूषण कम हो गया है और फिर महीने के भीतर ही एक ऐसी रिपोर्ट भी प्रकाशित कर दी जाती है। पर, यदि कोई विदेशी रिपोर्ट प्रदूषण बढ़ने से सम्बंधित आती है तब यही संस्थान तुरंत वक्तव्य जारी कर उस रिपोर्ट को गलत करार देते हैं।
बुलेंट सिक ने वर्ष 2015 में लगातार प्रयास किया कि सरकार इस रिपोर्ट पर कार्यवाही करे, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया। इसके बाद के तीन वर्षों तक बुलेंट सिक ने इस इन्तजार में बिताये कि शायद अब सरकार कुछ करेगी। इस दौरान उस क्षेत्र में कैंसर के मामले और तेजी से बढ़ते रहे। इसके बाद अप्रैल 2018 में बुलेंट सिक ने अपने पास के आंकड़ों के सहारे तुर्की के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, कुम्हुरिएत, में इस समस्या पर चार लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की।
कुम्हुरिएत समाचारपत्र को तुर्की का शासन पसंद नहीं करता, क्योंकि यह विरोध की खबरें भी प्रकाशित करता है। तुर्की में जब भी समाचारपत्रों के दफ्तरों पर सरकारी छापे पड़ते हैं तब पहला नंबर इसी समाचारपत्र का रहता है। इस श्रृंखला के प्रकाशित होते ही सरकार ने बुलेंट सिक पर गोपनीय आंकड़ों को उजागर करने के लिए मुक़दमा दायर कर दिया। इस मुकदमें का फैसला इसी महीने आया है और बुलेंट सिक को पंद्रह महीने की जेल की सजा सुनाई गयी है।
तुर्की के क़ानून के अनुसार बुलेंट सिक यदि माफी मांग लेते तो यह सजा रुक सकती थी पर खुद्दार बुलेंट सिक ने माफी नहीं माँगी और केवल इतना कहा कि उन्होंने एक जिम्मेदार नागरिक और जिम्मेदार वैज्ञानिक का फर्ज निभाया है। बुलेंट सिक के भाई अहमत सिक, तुर्की में विपक्षी सांसद हैं और मानवाधिकार के लिए काम भी करते हैं।
अहमत सिक भी पहले खोजी पत्रकार रह चुके हैं, जिनके अनेक लेखों ने सरकार के लिए समस्याएं खड़ी की हैं और उन्हें भी कई बार सच उजागर करने के लिए जेल भेजा जा चुका है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के तुर्की के मामलों की जानकार मेलीना बुयुम ने कहा कि सरकार ने एक बार भी यह नहीं कहा कि बुलेंट सिक द्वारा प्रकाशित आंकड़े गलत हैं, बल्कि इसे गोपनीय बताकर सरकार ने यह खुद ही साबित कर दिया कि ये आंकड़े बिल्कुल सही हैं और सरकार इस समस्या से डरी हुई है।
तुर्की के वैज्ञानिक ने तो सही बोलने का दम दिखाया, पर सवाल यही है कि हमारे देश का एक भी वैज्ञानिक क्या कभी सरकार के विरुद्ध जाकर सच को सच कहने का साहस कर पायेगा? जिस देश में इंडियन साइंस कांग्रेस के मंच पर खड़े होकर प्रधानमंत्री और नेता विज्ञान की धज्जियां उड़ाते हों और देश के सभी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक अपनी कुर्सियों पर बैठकर तालियाँ बजाते हों, उस देश में यह उम्मीद तो बेकार है।