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समाज

अब दुनियाभर के रोगियों को उत्तराखण्ड की 'कासनी' का सहारा

Janjwar Team
9 Nov 2017 3:55 PM GMT
अब दुनियाभर के रोगियों को उत्तराखण्ड की कासनी का सहारा
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उत्तराखंड वानिकी प्रशिक्षण अकादमी हल्द्वानी के मदन सिंह बिष्ट ने 'कासनी' को क्या जिलाया, अब सारी दुनिया कासनी के लिए हल्द्वानी पहुंचने लगी है...

हल्द्वानी से संजय रावत और हरीश रावत की रिपोर्ट

'कासनी' कुछ और नहीं एक वन्य वनस्पति है, जो लुप्तप्राय वनस्पति की श्रेणी में आती है। इसका बायोलॉजिकल नाम Cichorium intybus है। मगर इसकी खासियत है कि यह कई बीमारियों के लिए रामबाण साबित हुई है। इसका श्रेय जाता है मदन सिंह बिष्ट को। इन्होंने न सिर्फ इस वनस्पति को बचाया, बल्कि देश के 27 राज्यों के अलावा अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब सहित 15 मुल्कों के वाशिंदों तक को इसका लाभ पहुंचाया है।

'उत्तराखंड वानिकी प्रशिक्षण अकादमी' के वन अनुसंधान रेंज, रामपुर रोड हल्द्वानी में पिछले दस वर्षों से जैव विविधता पर काम कर रहे मदन सिंह बिष्ट ने वन औषधियों को खोजने और संरक्षित करने का काम बखूबी किया है।

इसी क्रम में उन्हें देहरादून में लुप्तप्राय कासनी का पौंधा मिला जिसे वे हल्द्वानी ले आये और अनुसंधान रेंज में संरक्षित किया। धीरे धीरे नर्सरी कासनी के पौंधों से लहलहा उठी। इस दौरान मदन सिंह बिष्ट ने कासनी के कई सफल प्रयोग कर दिखाए। ये प्रयोग लीवर संबंधी, मधुमेह, रक्तचाप, बवासीर और स्वांस संबधी बीमारियों में रामबाण साबित हुए। फिर कासनी के फायदों का ऐसा प्रचार शुरू हुआ कि देश विदेश के लोग कासनी की चाह में हल्द्वानी पहुंचने लगे और लाभान्वित भी हुए।

पहाड़ के दर्द को महसूसने वाले मदन सिंह वन औषधि को वरीयता इसलिए देते हैं क्योंकि पहाड़ के आदमी के लिए बीमारियां भी किसी पहाड़ से कम नहीं होतीं। बीमारियों में ही घर के घर बर्बाद हो जाते हैं। इसी संवेदनशीलता के चलते उन्होंने कासनी को बचाने में जी जान झोंक दी।

क्या है कासनी
कासनी एस्टेरेशिया कुल का पौंधा है। यह मूल रूप से यूरोपी देशों में पाई जाने वाली वनस्पति है। भारत में यह पौंधा उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर के निचले क्षेत्रों, पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक में पाया जाता है।

अत्यधिक कीटनाशक दवाओं के प्रयोग ने इसे लुप्तप्राय श्रेणी में पहुंचा दिया है। इसमें दो अन्य प्रजातियां बहुतायत में पाई जाती हैं, जो खासकर चारे के लिए बोयी जाने वाली 'बरसीम' घास में उग आती है। इनमें सफेद और पीले रंग के फूल निकलते हैं। जबकि कासनी के पौंधे पर नीले रंग के फूल खिलते हैं। इसी कासनी की पहचान औषधि के रूप में होती है।

प्रयोग जो 'कासनी चबाओ-रोग भगाओ' कहलाया
बकौल मदन सिंह, मैं लीवर, मधुमेह, किडनी संक्रमण, रक्तचाप, बवासीर और दमा के मरीजों को सुबह दो पत्ते कासनी के चबाकर खाने को देता रहा। इस क्रम को 3-4 महीने नियमित कर खून की जांच कराई गई तो सकारात्मक परिणाम नजर आए। इन्हीं रोगियों को इसी प्रक्रिया में 9 से 10 महीने रखा तो फिर जांच में ये चीजें सामान्य आ गईं। कासनी के पत्ते चबाने का प्रयोग सफल हुआ।

इस प्रयोग से जिन मरीजों को लाभ हुआ था उन्होंने और कई मरीजों को बताया, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय पत्र—पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया 'कासनी चबाओ -रोग भगाओ', जिसके बाद मदन सिंह के पास रोगियों का तांता लग गया। इसके चलते नर्सरी में पैदावार बढ़ाई और सबको 5 पौंधे घर पर लगाने की सलाह दी।

अब लोग पौंधे यहां से ले जाकर उगाते हैं और नियमित सेवन कर मुझे रोग नियंत्रण की सूचना देते रहते हैं। समाजसेवी रिटायर प्रोफेसर डॉ. प्रभात उप्रेती जी ने फेसबुक और यू ट्यूब पोस्ट से कासनी हर्ब को इतना प्रचारित किया कि हल्द्वानी, उत्तराखंड दुनियाभर में सुर्खियों में आ गया। दुनियाभर के मरीज मदन सिंह के कार्यालय और नर्सरी में जमा होने लगे।

जो कासनी लुप्तप्राय थी, मदन सिंह बिष्ट की जद्दोजहद से अब दुनियाभर को उसका सहारा हो गया है, और लोग कई बीमारियों से निजात पा रहे हैं।

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